क्यों जनता की नज़र में गिरता जा रहा है चुनाव आयोग? 

08:23 am Apr 18, 2021 | एन.के. सिंह - सत्य हिन्दी

भारत के संविधान का अनुच्छेद 324 (1) चुनाव आयोग को चुनाव संचालन के अधीक्षण, निदेशन और नियंत्रण के निर्बाध अधिकार देता है। लेकिन संस्थाओं की शक्ति क़ानून के शब्दों से नहीं, बल्कि उनके प्रयोग से मिलती है। वही क़ानून अगर सही प्रयोग हो तो संस्थाओं की उपादेयता और समाज में उसका सम्मान कई गुना बढ़ जाता है।

सुप्रीम कोर्ट तक ने हाल ही में एक सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग से कहा कि वह अपनी टी. एन. शेषन काल वाली गरिमा फिर से हासिल नहीं कर सकता। दरअसल दो साल पहले आयोग ने इस कोर्ट में कहा कि 'वह एक दंतहीन शेर की मानिंद है'। 

चुनाव आयोग तब और अब

दरअसल आज उपलब्ध शक्तियों से कम शक्ति के बावजूद शेषन ने अपने कार्यकाल में एक राज्यपाल को इस्तीफ़े के लिये मजबूर किया क्योंकि उन्होने चुनाव में अपने बेटे के लिए प्रचार किया था। लेकिन लगभग ढाई दशक बाद 2019 में जब राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह ने अपने गृहनगर में चुनाव प्रचार किया तो वही आयोग कुछ नहीं कर सका। 

इस चुनाव में जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भारतीय आर्मी को 'मोदी की सेना' कहा तो यह संस्था चुप बैठी रही।

यह शेषन का ही माद्दा था कि उन्होंने नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्रित्व में दो केन्द्रीय मंत्रियों-सीताराम केसरी और कल्पनाथ राय को पद से हटाये जाने की सिफारिश की, क्योंकि इन्होंने मतदाताओं को ग़ैरक़ानूनी तरीके से प्रभावित किया था।

शेषन, शेषन थे

अपने पद पर आने के दो साल बाद ही शेषन राजनीतिक दलों की आँख में खटकने लगे थे। मार्क्सवादियों ने तो इन के ख़िलाफ़ महाभियोग तक लाने का प्रयास किया। लेकिन शेषन शेषन ही रहे। शायद तब ईडी, आईटी और सीबीआई की हिम्मत अच्छे अफ़सरों को डराने की नहीं होती थी। 

भारत में एक ज़माने में चुनाव में नीचे के तबके के लोगों के वोट दबंग वर्ग डाल देता था और तब यही आयोग दशकों तक इस जनमत का बलात्कार निरीह सा देखता रहता था। 

क़ानून के प्रावधान अमल में लायें         

जन-प्रतिनिधित्व (आरपी) क़ानून की धारा 125 कहती है “कोई भी व्यक्ति निर्वाचन के संबंध में शत्रुता या घृणा की भावना भारत के नागरिकों के विभिन्न वर्गों के बीच धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के आधारों पर सम्प्रवर्तित करेगा या सम्प्रवर्तित करने का प्रयत्न करेगा वह कारावास से दंडनीय होगा।”

आचार-संहिता

आचार-संहिता के शीर्षक 'सामान्य आचरण' (1) के अनुसार 'किसी भी राजनीतिक पार्टी की आलोचना उसकी नीतियों और कार्यक्रमों, अतीत के रिकॉर्ड और काम तक सीमित होगी गैर-प्रमाणित रिपोर्ट्स के आधार पर किसी उम्मीदवार की आलोचना नहीं की जा सकती है। वोट पाने के लिए जातिगत और सांप्रदायिक उन्माद नहीं भड़का सकते हैं।'

उपखंड 3 के अनुसार 'मस्जिद, मंदिर, गिरजाघर और अन्य धर्मस्थल चुनावी प्रोपगंडा का फोरम नहीं बनाया जा सकता'। 

क्या कहा मोदी-ममता ने?

पश्चिम बंगाल की सभाओं में मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी के सार्वजानिक मंचों से बयान 'बाहरी बनाम भीतरी', 'मुसलमान एकजुट हों', 'केन्द्रीय बल के लोगों को घेर लो', 'केन्द्रीय बल के लोग वोटरों से बीजेपी को वोट देने का दबाव बना रहे हैं', हो या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 'अगर हमने ये कहा होता कि सारे हिन्दू एकजुट हो जाओ, भाजपा को वोट दो तो 8 - 10 नोटिस मिल गए होते', 'ये सरकार केवल 30 परसेंट वालों की सरकार है' या 'देना है तो मुझे गाली दो, मेरे दलित भाइयों को नहीं', ऐसे वाक्य पूरे देश ने सुना। 

क्या ये वाक्य उपरोक्त उल्लंघन की श्रेणी में नहीं आते? 

लेकिन क्या आज के चुनाव आयोग में शेषन जैसी हिम्मत है? शायद नहीं, क्योंकि उस समय तक मोदी और अमित शाह की जगह अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी हुआ करते थे और राजनीति में कुछ परदे अभी भी बचे थे।

पोशाक से पहचान!

भारत में लोगों की धार्मिकता या क्षेत्रीयता पोशाक से पहचान ली जाती है। धर्मस्थल का नाम एक पार्टी के घोषणापत्र में ही नहीं, मंचों से 1996 के बाद लगातार आता रहा। क्या वह उल्लंघन है? चुनावी सभाओं में 'जय श्री राम' या 'अल्ला हो अकबर' सरीखे नारे क्या धार्मिक अपील और वैमनस्यता पैदा करने के तत्व नहीं हैं? 

चुनाव के दौरान धार्मिक स्थलों पर जाना और किसी देवी-देवता के नाम पर पाठ करना किस श्रेणी में आयेगा? एक ज़माने में चुनाव के दौरान दीवालों पर लिखे 'तिलक-तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार” क्या धारा 125 का उल्लंघन नहीं था? 

वर्तमान चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट में कहता है वह दंत-विहीन शेर है। लेकिन शेषन ने इसे ग़लत साबित किया था। पश्चिम बंगाल चुनाव तो संपन्न हो जायेंगें लेकिन दो समुदायों के बीच की खलिश स्थाई रहेगी। चुनाव आयोग शक्ति के लिए एक गिड़गिड़ाती संस्था बन जनता की नज़रों में सम्मान खो चुकी होगी।