इस बात में दो राय नहीं है कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय इसलिए हुआ कि शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरू एक-दूसरे का बहुत ही ज़्यादा विश्वास करते थे, लेकिन विलय के बाद ही हालात इतने बिगड़ने शुरू हो गए कि नेहरू और शेख के बीच बहुत ही बड़े मतभेद हो गए। 1952 आते-आते तो दोनों के बीच बहुत बड़ी खाई बन चुकी थी। नेहरू की सरकार में हर आदमी शेख को नेहरू जी की निजी समस्या मानने लगा था। गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी ने तो एक बार नेहरू से कह ही दिया कि वल्लभ भाई (सरदार पटेल) सोचते हैं कि शेख अब्दुल्ला को डील करना नेहरू का ही काम है। सच बात यह है कि दिल्ली का हर अधिकारी और नेता यही समझता था।
शेख दिन पर दिन मुश्किल पैदा करते जा रहे थे। उन्होंने 11 अप्रैल 1952 के दिन रणबीर सिंह पुरा में एक भाषण दे दिया जिसमें जवाहरलाल और उनके मतभेद साफ़ खुलकर सामने आ गए। भाषण में उन्होंने भारत और पाकिस्तान को एक-दूसरे के बराबर साबित करने की कोशिश की और भारतीय अख़बारों को ख़ूब कोसा। जवाहरलाल नेहरू ने उनके इस बयान पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, उनके बयान की अनदेखी की।
जब नेहरू की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई तो शेख की समझ में आ गया कि प्रधानमंत्री नेहरू नाराज़ हैं। उसके बाद उन्होंने अपनी तरफ़ से ही सफ़ाई देना शुरू कर दिया और एक बयान जारी करके कहा कि प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इण्डिया ने उनके बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि प्रेस ट्रस्ट वालों ने उनकी सरकार से कुछ आर्थिक सहयोग माँगा था। जब मना कर दिया गया तो उनके पीछे पड़ गए हैं।
शेख अब्दुल्ला के इसके बाद के बयान भी इसी तर्ज के हैं। इन सबके कारण जवाहरलाल को बहुत दिक़्क़तें आईं। वह इतने परेशान हो गए कि उन्होंने शेख को 25 अप्रैल 1952 के दिन एक चिट्ठी लिखी और उसमें लिखा कि वह शेख साहब से इस सम्बन्ध में कोई बात नहीं करना चाहते। उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि वह उनसे किसी भी मसले पर बात नहीं करना चाहते। उन्होंने लिखा कि मेरी नज़र में आप ही कश्मीरी अवाम के प्रतिनिधि थे लेकिन आपने इस तरह के बयानात देकर मुझे बहुत तकलीफ़ पहुँचाई है।
व्यक्तिगत रूप से शेख अब्दुल्ला इस सबके बाद भी दोस्ती की बात करते थे लेकिन अपनी राजनीति के लिए बिल्कुल अफ़सोस नहीं जताते थे। नेहरू की परेशानी यह थी कि सरदार पटेल का स्वर्गवास हो चुका था। जब तक सरदार जीवित थे कश्मीर के राजा या शेख अब्दुल्ला की ऊलजलूल बातों को संभाल लेते थे लेकिन अब नेहरू अकेले पड़ गए थे। अगस्त 1952 तक कश्मीर की हालत यह हो गयी थी कि वह न तो स्वतंत्र था, न वहाँ शांति थी और न ही वहाँ के हालात सामान्य थे। उथल पुथल का माहौल था।
1952 के दिसंबर तक यह बात साफ़ नज़र आ रही थी कि देश भर में शेख अब्दुल्ला मुद्दा बनते जा रहे थे। जम्मू में प्रजा परिषद का शेख अब्दुल्ला और उनकी सरकार के ख़िलाफ़ आन्दोलन चल रहा था। प्रजा परिषद को हिन्दू महासभा के पुराने नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी की नई पार्टी जनसंघ, अकाली दल, हिन्दू महासभा और आरएसएस का समर्थन मिल रहा था। हालात बहुत नाज़ुक हो गये थे। अब इस आन्दोलन के निशाने पर जवाहरलाल नेहरू आ गए थे। शेख के हवाले से बढ़ रहे आन्दोलन में गो हत्या और पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) से आये शरणार्थियों के मुद्दे भी जोड़ दिए गए थे। सिख नेता, सरदार तारा सिंह ने एक ऐसा बयान दे दिया था जिससे लगता था कि वह नेहरू की हत्या का आह्वान कर रहे थे।
ऐसा लगने लगा था कि एक बार फिर वही हालात पैदा हो जाएँगे जो बँटवारे के वक़्त थे और क़त्लो-गारद का माहौल बन जाएगा। अगर फ़ौरन कार्रवाई न की गयी तो हालात के और भी बिगड़ने का खतरा रोज़ ही बढ़ रहा था।
जवाहरलाल ने ख़ुद संकेत दिया कि वह हर मोर्चे पर असफल नज़र आ रहे थे। उनके आदेशों का पालन नहीं हो रहा था। उन्होंने आदेश दिया कि जहाँ भी उपद्रव हो रहा हो उसको फ़ौरन रोका जाए लेकिन कोई असर नहीं हो रहा था क्योंकि नए गृह मंत्री कैलाशनाथ काटजू कुछ नहीं कर पा रहे थे। जम्मू के आन्दोलन को श्यामा प्रसाद मुखर्जी ज़ोरदार तरीक़े से जवाहरलाल की आलोचना करने के लिए इस्तेमाल कर रहे थे। उन्होंने जवाहरलाल को 3 फ़रवरी 1953 को एक बहुत ही सख़्त चिट्ठी लिखी जिसमें लिखा था, ‘आपकी ग़लत नीतियों और अपने विरोधियों की राय को नज़रअंदाज़ करने की आपकी आदत के कारण ही आज देश बर्बादी के मुहाने पर खड़ा है।’ इस मौक़े पर जवाहरलाल ख़ुद जम्मू का दौरा करना चाहते थे लेकिन शेख साहब ने इस बात को पसंद नहीं किया। नेहरू ने शेख अब्दुल्ला से कहा कि समस्या विकराल है और उसका समाधान लोगों के दिल और दिमाग को जीत कर हासिल किया जाना चाहिए। दमन का रास्ता ठीक नहीं है। लेकिन शेख उनकी बात मानने को तैयार नहीं थे।
शेख अब्दुल्ला कन्फ्यूज़ थे
एक मुकाम ऐसा भी आया जब साफ़ लगने लगा कि शेख अब्दुल्ला बुरी तरह से कन्फ्यूज़ हो गए। नेहरू ने 1 मार्च, 1953 को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को एक पत्र में बताया, ‘शेख साहब कन्फ्यूज़ हो गए हैं। उनके ऊपर तरह-तरह के दबाव पड़ रहे हैं और वह उसी में बुरी तरह से फँसते जा रहे हैं। वह किसी पर विश्वास नहीं कर रहे हैं लेकिन ऐसे लोगों के बीच घिर गए हैं जो उनको उलटा-सीधा पढ़ा रहे हैं। हालाँकि वे उनपर विश्वास नहीं करते लेकिन उनकी बात को मानकर कोई न कोई ग़लत क़दम उठा लेते हैं। मुझे डर है कि इस दिमागी हालत में शेख कोई ऐसा काम कर बैठेंगे जो बात को और बिगाड़ देगा।’ मौलाना आज़ाद को पत्र लिखने के बाद जवाहरलाल ने शेख अब्दुल्ला को भी उसी दिन एक बहुत ज़रूरी पत्र लिखा। उन्होंने लिखा, ‘केवल इतना ही काफ़ी नहीं है कि हम यह इच्छा करें कि सब ठीक हो जाए। उसके लिए कुछ करना भी चाहिए। नतीजा अपने हाथ में नहीं है लेकिन समस्या के हल की कोशिश करना तो हमारे हाथ में है।’ शेख अब्दुल्ला ने इस पत्र का कोई जवाब ही नहीं दिया।
नेहरू का गृह मंत्रालय
नेहरू की सबसे बड़ी कमज़ोरी उस वक़्त का लाचार गृह मंत्रालय था। गृह मंत्री कैलाशनाथ काटजू भी अपने प्रधानमंत्री की सलाह मानने को तैयार नहीं थे। इस आशय का एक पत्र भी उन्होंने 19 अप्रैल 1953 को नेहरू के पास भेज दिया था। उधर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने आंदोलन को बहुत ही तेज़ कर दिया था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी बिना किसी परमिट के जम्मू-कश्मीर चले गए और शेख अब्दुल्ला ने नेहरू की एक न मानी और इसके बाद उनको गिरफ़्तार कर लिया गया। उन्होंने नेहरू को श्रीनगर आने की दावत दी। जवाहरलाल वहाँ गये और शेख अब्दुल्ला ने उनको समझाया कि पूरी स्वायत्तता और पूर्ण विलय के बीच का कोई रास्ता नहीं है। जम्मू-कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय जम्मू-कश्मीर के लोग मानेंगे नहीं इसलिए केवल एक रास्ता बचता है कि राज्य को पूर्ण स्वायत्तता दे दी जाए। पूर्ण स्वायत्तता से शेख अब्दुल्ला का मतलब आज़ादी ही था।
नेहरू ने समझाया कि और भी बहुत से रास्ते हैं लेकिन शेख अब्दुल्ला और कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे जबकि उनकी वह हैसियत नहीं थी जो पहले हुआ करती थी। शेख साहब अपनी पार्टी में भी अलग-थलग पड़ रह थे।
नेहरू ने उनको और अन्य कश्मीरी नेताओं को समझाया कि वह कॉमनवेल्थ सम्मेलन में जा रहे हैं और उनके लौटने तक यथास्थिति बनाये रखा जाए। लेकिन भविष्य में कुछ और लिखा था। काहिरा में नेहरू को पता लगा कि 23 जून 1953 को श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जेल में ही मृत्यु हो गयी। उसके बाद तो सब कुछ बदल गया। शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त हुई और वह भी गिरफ़्तार हुए। लेकिन जवाहरलाल के मन में किसी के लिए तल्ख़ी नहीं थी। बाद में उनको जब लगा कि कश्मीर की समस्या का समाधान शेख अब्दुल्ला के बिना नहीं हो सकता तो उन्होंने शेख को रिहा किया और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर जाकर वहाँ के नेताओं से बात करने की प्रेरणा दी लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंज़ूर था।
शेख साहब पाकिस्तान गए। 27 मई 1964 के दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की ख़बर आई। इसके साथ ही नेहरू युग भी ख़त्म हो गया। और कश्मीर समस्या एक नए रूप में सामने आई जो आज बहुत ही नाज़ुक दौर में पहुँच चुकी है।