रघुवीर सहाय की कविता पंक्ति है- ‘लोकतंत्र का अंतिम क्षण है, कहकर आप हंसे।‘
भारत के संसदीय लोकतंत्र के सिर पर यह पंक्ति किसी आपद संकेत की तरह घूम रही है। संसद में जिस तरह विपक्षी सांसदों को अनुशासन के नाम पर निलंबित किया जा रहा है, वह हतप्रभ करने वाला है। यह नया ‘अनुशासन पर्व’ है जिसमें यह तथ्य छुपा लिया जा रहा है कि सरकार संसद में संवाद से पीछा छुड़ा रही है। जैसे उसे विपक्ष मुक्त संसद चाहिए जहाँ वह बिना किसी अवरोध और प्रतिरोध के मनचाहे बिल पास करा सके।
लेकिन विपक्ष किस बात पर संवाद चाह रहा है? यह सवाल हंगामे में ग़ायब होता लग रहा है। संसद की सुरक्षा में चार नौजवानों ने जो सेंधमारी की, उस पर विपक्ष सरकार से जवाब चाहता है। वह चाहता है कि गृहमंत्री इस पर सदन में बयान दें। इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बाहर बयान दे रहे हैं, लेकिन संसद में कुछ बोलने को तैयार नहीं? क्या यह कोई असंसदीय या असंभव सी मांग है? गृहमंत्री जो बात बाहर कह रहे हैं, वह सदन के भीतर कह दें तो क्या हो जाएगा? सरकार इसके लिए तैयार क्यों नहीं हो रही?
क्योंकि अभी सेंधमारी के जिन आरोपी युवकों को दिल्ली पुलिस आतंकवादी साबित करने की कोशिश में जुटी हुई है, उनके साथ एक और नाम भी अपरिहार्यतः शामिल है। वे हैं बीजेपी के मैसुरु के सांसद प्रताप सिम्हा जिनके पास और दस्तख़त पर इन युवकों ने संसद में घुसपैठ की। जब संसद में सुरक्षा पर चर्चा चलेगी तो यह बात अपने-आप उठेगी कि आख़िर वे किसकी मदद से लोकसभा में पहुंचे? प्रताप सिम्हा को बताना पड़ेगा- जो बाहर वे बता रहे हैं- कि वे इन लोगों को नहीं जानते, या फिर मानना पड़ेगा कि इनकी साज़िश में वे भी शामिल हैं। दोनों स्थितियों में उन पर कार्रवाई होनी चाहिए। संसद की सुरक्षा की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी सांसदों की ही है। वे अगर किसी अनजान व्यक्ति को पास दे देते हैं तो संसद की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ यहीं से शुरू हो जाता है। ऐसी स्थिति में प्रताप सिम्हा पर कुछ वैसी ही कार्रवाई होनी चाहिए जैसी महुआ मोइत्रा पर पासवर्ड साझा करने के मामले में हुई। लेकिन प्रताप सिम्हा सदन में बैठे हुए शान से सरकार के बिल पास करवाने में मदद कर रहे हैं और संसद की सुरक्षा पर सरकार से जवाब मांगने वाले बाहर कर दिए गए हैं।
लेकिन मामला बस प्रताप सिम्हा को बचाने का भी नहीं है। यह बात अब बहुत स्पष्ट है कि संसद में घुसने वाले लड़के जो भी हों, आतंकी नहीं हैं। उनकी पृष्ठभूमि जांची जा चुकी है। अगर इन युवकों के कोई आतंकी मंसूबे होते तो सांसद प्रताप सिम्हा की लापरवाही से वे जहां तक पहुंच गए थे, वहां से कुछ भी कर सकते थे।
यह सच है कि यह भी उन्हें नहीं करना चाहिए था। इस तरह की घुसपैठ अपराध ही है और इस पर जो सज़ा होनी चाहिए, वह उन्हें होगी। लेकिन सिर्फ़ कल्पना करें कि अगर ये लोग किसी बीजेपी सांसद की जगह किसी कांग्रेसी या टीएमसी सांसद या एआईएमआईएम के सांसद के पास से संसद में दाख़िल हुए होते तो क्या होता? संसद के भीतर और बाहर बीजेपी का रुख़ बदला हुआ होता। वह ऐसे किसी सांसद को आतंकवाद का सहयोगी घोषित कर देती और उसे कड़ी से कड़ी सज़ा देने की मांग करती। वह संसद में इस पर चर्चा भी चाहती और पूरे विपक्ष पर इल्ज़ाम मढ़ती कि उसकी वजह से संसद भी सुरक्षित नहीं है। लेकिन हक़ीक़त चूंकि कुछ और निकली है इसलिए बीजेपी ने अपने होंठ सिल रखे हैं और वह दूसरों के होंठ सिलने में लगी हुई है।
फिर बहस होती तो यह बात भी सामने आती कि आखिर संसद में घुसपैठ के पीछे इन लोगों का मक़सद क्या था। यहाँ से युवाओं की वह हताशा खुलती जो अभी के शोर-शराबे में दिख नहीं रही है और जिसका ज़िक्र करने पर प्रधानमंत्री इसे सेंधमारों का साथ देना बता रहे हैं।
सच तो यह है कि सेंधमारों का असली साथ तो एक बीजेपी सांसद ने दिया और फिर बाक़ी बीजेपी अपने उस साथी को बचाने में लग गई है। तो यह वह बहस है जिससे बीजेपी अपने-आप को और अपने गृह मंत्री को बचाना चाहती है। इसके लिए संसदीय लोकतंत्र में संवाद की परंपरा की बलि चढ़ानी पड़े तब भी उसे दुविधा नहीं है।
दिलचस्प यह है कि इस सारे हंगामे को अब बीजेपी एक नया मोड़ दे रही है। दो दिन लगातार चली निलंबन की अलोकतांत्रिक कार्रवाई के बाद विपक्ष के कुछ सांसदों ने संसद परिसर में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की नक़ल की और राहुल गांधी उसका वीडियो बनाते नज़र आए। बस इस बात से उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री इतने आहत हो गए कि उन्हें फोन पर बात करनी पड़ी। प्रधानमंत्री को बीस साल से चला आ रहा अपना कथित अपमान याद आ गया।
इसे ‘सेलेक्टिव मेमोरी’ कहते हैं। राजनीतिक टकराव में प्रधानमंत्री ने जितने अपशब्द झेले हैं, उससे कम अपशब्द कहे नहीं हैं। उनके सहयोगियों और भक्तों के अपशब्द जोड़ दिए जाएँ तो इतने भर से लोकतंत्र शर्मिंदा हो सकता है। इनमें स्त्रियों के प्रति बहुत त्रासद टिप्पणियाँ शामिल रही हैं। उनको यहाँ फिर से गिनाने का कोई मतलब नहीं है। लेकिन क्या जगदीप धनखड़ की नक़ल करना ऐसी अलोकतांत्रिक अभिव्यक्ति है जिसका इस बड़े पैमाने पर संज्ञान लिया जाए? और ख़ुद धनखड़ राज्यपाल और उपराष्ट्रपति रहते हुए जैसी अमर्यादित हरकतें और बातें करते आए हैं, क्या उनसे वाक़ई लोकतंत्र शर्मिंदा नहीं होता?
लोकतंत्र, संवाद, मर्यादा- इन सबके प्रश्न बहुत सूक्ष्म होते हैं। प्रतिरोध की भी बहुत सारी अभिव्यक्तियाँ होती हैं। इनमें हास-परिहास तक शामिल होता है। नुक्कड़ नाटकों में नेताओं की नक़ल आम है। दुनिया भर के- और भारत के भी- कार्टूनिस्ट नेताओं की वास्तविकता को तरह-तरह की मुद्राओं में पकड़ते रहे हैं। हाल ही में बीजेपी ने इंडिया गठबंधन की बैठक का मज़ाक उड़ाते हुए ऐसा ही एक वीडियो भी जारी किया था।
यह सच है कि तानाशाहों के ख़िलाफ़ ज़्यादा चुटकुले बनते हैं। पाकिस्तान के जनरल जिया उल हक़ पर भी बने और हिटलर पर भी। हिटलर के जर्मनी में तो व्हिस्परिंग जोक्स- यानी फुसफुसाते हुए चुटकुलों- का दिलचस्प सिलसिला चल पड़ा था जिसका दस्तावेज़ीकरण भी हुआ है।
लेकिन मूल सवाल पर लौटें। सरकार संसद में बहस से क्यों भाग रही है? और अगर वह भाग रही है तो इसका क्या जवाब हो सकता है? विपक्ष की मौजूदा हालत देखकर प्रधानमंत्री व्यंग्य कर सकते हैं कि विपक्ष वहीं रहना चाहता है, जहां वह है। लेकिन अपने ही लंबे राजनीतिक सफ़र पर वे पलट कर निगाह डाल लें तो समझ में आ जाएगा कि ऐसी अहंकारी अभिव्यक्तियाँ अचानक एक दिन मात खा जाती हैं।
बेशक, इसके लिए विपक्ष को धनखड़ की नक़ल से कहीं ज़्यादा रचनात्मक उपाय सोचने होंगे। लोहिया कहा करते थे कि जब सड़कें सूनी हो जाती हैं तो संसद आवारा हो जाती है। संसद से निकाले गए विपक्ष को यह सन्नाटा तोड़ने की लड़ाई लड़नी पड़ेगी और फिर सड़क से संसद तक जाने का रास्ता बनाना होगा। नहीं तो मामूली सेंधमार आतंकी साबित किए जाते रहेंगे, सेंधमारों के साथी बचाए जाते रहेंगे और सरकार कहीं और गुनहगार खोजती रहेगी।