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कब तक कहते रहेंगे कि कोई डर नहीं लग रहा?

कब तक कहते रहेंगे कि कोई डर नहीं लग रहा?

चारों तरफ़ भय और आतंक का माहौल है। नई-नई सत्ताएँ आए दिन प्रकट हो रही हैं जो नागरिकों को डरा रही हैं। सत्ता प्रतिष्ठान या तो नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने में निकम्मा साबित हो रहा है या फिर अपराधी उसके संरक्षण में ही नियंत्रण से बाहर हो गए हैं। वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग क्या कहना चाहते हैं, उनका लिखा पढ़िएः

नागरिकों को या तो भान ही नहीं है कि वे भयभीत हैं या फिर उन्होंने किसी और भी बड़े ख़ौफ़ के चलते अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी के सारे डरों को दूसरों के साथ बाँटना भी बंद कर दिया है। ऐसी स्थितियां किस तरह की व्यवस्थाओं में जन्म लेती हैं अभी घोषित होना बाक़ी है।

हम अभी तक इतना भर ही पढ़ते-सुनते आ रहे थे कि कुछ लोगों की भीड़ ने अपने से भिन्न समुदाय के निर्दोष इंसानों को दिन-दहाड़े घेरकर या तो उनकी मानहानि या जनहानि कर दी।अपराध के बाद वे क़ानून की कमज़ोर होती आँखों में आने से या तो वे बच गए या व्यवस्था के मज़बूत हाथों ने उन्हें सुरक्षित बचा लिया। पीड़ित समुदाय के लोगों ने बेख़ौफ़ होकर घरों से बाहर निकलना बंद कर दिया।

अब जो लोग डर रहे हैं उनमें उस समुदाय के भी हैं जो या तो धार्मिक हमलावरों की भीड़ में शामिल रहते हैं या रहते रहे हैं। डर से प्रभावित होने के मामले में धर्म और समुदायों के बीच का फ़र्क़ मिटता जा रहा है।अब कोई भी किसी को भी डरा सकता है। समाज धर्मनिरपेक्ष नहीं बन पाया पर डर की स्थितियाँ क़ानून और व्यवस्था निरपेक्ष बनती जा रही है। कुछ क़िस्से हैं जो अलग-अलग परिस्थितियों में पैदा हुए पर उन्हें साथ जोड़कर देखा-पढ़ा जा सकता है।

करोड़ों की आबादी वाले एक महानगर के एक चलते-फिरते इलाक़े में एक ऐसे प्रभावशाली और सुरक्षाप्राप्त राजनेता की हत्या हो जाती है जो डबल इंजन वाले शक्तिशाली सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा था। बताया गया कि जिन शूटरों द्वारा हत्या की वारदात को अंजाम दिया गया उनका संबंध उस गैंग से हो सकता है जिसका सरगना जेल में बंद है। यानी व्यवस्था की क़ैद में बंद अपराधी भी किसी ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों की हत्याएं करवा सकता है जो जेल के बाहर हैं या खुली जेलों में हैं।

जिस सत्ता प्रतिष्ठान के साथ वह राजनेता जुड़ा हुआ था न तो उसने बाद में ज़ाहिर नहीं होने दिया कि उसकी सुरक्षा व्यवस्था चरमरा गई है और न ही नागरिकों ने ही लगने दिया कि इतनी ख़ौफ़नाक घटना के बाद भी वे कहीं से डरे हुए हैं।सब कुछ सामान्य दिखाया जा रहा है।

सिनेमा के पर्दे की अविश्वसनीय कहानियों में किसी पराए मुल्क में भी घुसकर बहादुरी के क़िस्से गढ़ने वाले एक बड़े अभिनेता को आए दिन धमकियाँ मिल रही हैं, अपराधी उसके रहने के ठिकाने पर गोलियाँ बरसा कर ग़ायब हो रहे हैं पर उसके लाखों-करोड़ों प्रशंसक बस उसकी अगली फ़िल्म के रिलीज़ होने की ही प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे अभिनेता के साथ हो रही घटनाओं पर किसी तरह का भय या ग़ुस्सा नहीं व्यक्त करते। अभिनेता भी अपने चाहने वालों को पता नहीं लगाने देता कि वह ठीक से नींद ले पा रहा है कि नहीं ? व्यवस्था इतना भर करती है कि उसके आसपास सुरक्षा का घेरा और मज़बूत कर देती है। बताया जाता है कि अभिनेता को धमकाने वाले और राजनेता की जान लेने वालों के सूत्र आपस में जुड़े हुए हैं।

इतना ही नहीं ! कुछ विदेशी हुकूमतें आरोप लगा रही हैं कि उनकी ज़मीन पर उनके ही नागरिकों की कथित हत्याओं और ज़बरिया वसूली के पीछे उन लोगों का हाथ है जो हमारे मुल्क में या तो व्यवस्था का हिस्सा रहे हैं या हमारी जेलों में बंद अपराधी गिरोह हैं। जनता को जानकारी नहीं है कि संसद में विपक्ष द्वारा सरकार से इस बाबत कोई जानकारी माँगी गई कि नहीं। मानकर चला जा सकता है कि विपक्ष की नज़रों में मामला नागरिक महत्व का नहीं होगा।

पिछले ग्यारह महीनों के दौरान कोई 93 हज़ार नागरिक ‘डिजिटल अरेस्ट’ नामक अपराध का शिकार होकर अपनी ज़िंदगी भर की कमाई का अनुमानित 2,141 करोड़ रुपए गँवा चुके हैं और अपराधियों के गिरोह गिरफ़्त से बाहर हैं। साल 2024 के दौरान सभी तरह के साइबर अपराधों में हुए नुक़सान का आँकड़ा 20,000 करोड़ बताया जाता है। उपसंहार यह है कि सिर्फ़ सौ अपराधी भी अगर तय कर लें तो सौ करोड़ लोगों की ज़िंदगी हराम कर सकते हैं।

प्रधानमंत्री ने अपने मासिक कार्यक्रम ‘मन की बात’ में श्रोताओं को ‘डिजिटल अरेस्ट’ अपराध की पूरी प्रक्रिया समझाई कि अपराध को कैसे अंजाम दिया जा रहा है और फिर फ्रॉड से बचने के तीन चरण (रोको, सोचो और एक्शन लो) भी उन्हें बताए।नागरिकों को यह तो पता चल गया कि उन्हें क्या करना चाहिए पर यह जानकारी नहीं मिल पाई कि सरकार और एजेंसियाँ अपराधियों को पकड़ने के लिए क्या कार्रवाई कर रही हैं। ऐसा इसलिए कि पीएम के कार्यक्रम के बाद भी अपराध बेख़ौफ़ जारी हैं।

नागरिकों ने अज्ञात नंबरों से आने वाले सभी तरह के फ़ोन कॉल्स को सुनना बंद कर दिया है। इनमें वे कॉल्स भी शामिल हैं जो किसी परिचित या संबंधी की बीमारी या रोड एक्सीडेंट की जानकारी वाले या किसी ज़रूरी सूचना से जुड़े होंगे।नागरिकों ने हर दुख-तकलीफ़ और भय के साथ अपने आप को एडजस्ट कर लिया है।

मुल्क में इस वक्त ख़ौफ़ पैदा करने की कई तरह की व्यवस्थाएँ समानांतर रूप से चल रही हैं और नागरिक सभी से बराबरी से डरे हुए हैं। मसलन, एक व्यवस्था शासन की है जिसमें पुलिस, सभी तरह की जाँच और ख़ुफ़िया एजेंसियाँ शामिल हैं। जनता के लिए इन सबसे पूरी तरह डर कर रहना ज़रूरी है।

दूसरी व्यवस्था उन धार्मिक संगठनों की है जो तय कर रही हैं कि नागरिकों को क्या ख़ाना,पीना, पहनना और किन मार्गों से गुज़ारना है। इन संगठनों की मर्ज़ी के मुताबिक़ नारे लगाना है ,मुँह-माँगा चंदा देना है और उनके आयोजनों में भाग लेना है। सरकारी संरक्षण प्राप्त इन संगठनों से भी नागरिक डरने लगा है।

तीसरे वे अपराधी हैं जिनके पास पूरी गोपनीय जानकारी है कि नागरिकों के आधार कार्ड का नंबर क्या है, उनके बैंकों के खातों में कितना धन और एफ़डी जमा है। डिजिटल अरेस्ट और फिरौती की माँग की माँग ने ऐसा आतंक पैदा कर दिया है कि नागरिक अब घरों में बैठे-बैठे ही डर रहे हैं, डरने के लिए सड़कों पर निकालने की ज़रूरत नहीं बची !

चारों तरफ़ भय और आतंक का माहौल है। नई-नई सत्ताएँ आए दिन प्रकट हो रही हैं जो नागरिकों को डरा रही हैं। सत्ता प्रतिष्ठान या तो नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने में निकम्मा साबित हो रहा है या फिर अपराधी उसके संरक्षण में ही नियंत्रण से बाहर हो गए हैं।सवाल यह कि नागरिक और कब तक अभिनय करते रहेंगे कि उन्हें किसी भी अपराध से डर नहीं लग रहा है ? क्या इसे नागरिकों के अपराधियों में परिवर्तित होने की प्रक्रिया नहीं मान लिया जाना चाहिए ?

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