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अडानी के सवाल पर सरकार कब तक भागती रहेगी?

अडानी के सवाल पर सरकार कब तक भागती रहेगी?

जब बोफोर्स तोपों के सौदे में घूस का बवाल खड़ा किया जा सकता है, तब सोरोस कांड को भी उजागर किया जा सकता था। लेकिन, भाजपा के नेता खामोश रहे। पर अडानी कांड का विस्फोट होते ही सोरोस को क्यों उछाल दिया गया?

संसद का शीतकालीन सत्र मोदी+ अडानी पर कुरु कुरु स्वाहा होता प्रतीत होता है।

आज़ाद भारत की 75 -वर्षीय यात्रा में संभवतया यह पहला पड़ाव है जब सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष का एक बड़ा हिस्सा देश के सबसे बड़े कॉरपोरेट घराने की रक्षा में तैनात दिखाई दे रहा है। संसद के अंदर और बाहर, दोनों पक्षों का राजनैतिक प्रतिष्ठान एकाधिकार कॉरपोरेट सुप्रीमो गौतम अडानी की निर्लज्जता के साथ हिफाज़त में जुटा हुआ है। इस पत्रकार के ज्ञात इतिहास में ऐसा पहला अवसर है जब देश के सर्व शक्तिमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कॉरपोरेट घराने के सुर्प्रीमो की यारी -दोस्ती इतनी विस्फोटक बनी है। इससे पहले प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के शासन काल तक ( 1952 -2014 ) किसी भी प्रधानमंत्री का नाम किसी एक एकाधिकारवादी पूंजीपति घराने के साथ इस क़दर विवादास्पद ढंग से नहीं जुड़ा था। यह भी पहला अवसर है जब कांग्रेस, वामपंथी दल, और कुछ अन्य दलों को छोड़ कर, शरद पवार, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव जैसे दिग्गज विपक्षी नेता भी अडानी के प्रति उदारभाव दिखाने से चूकते नहीं रहे हैं। 

यह कम हैरतअंगेज़ नहीं है कि पहली बार मोदी+अडानी जोड़ी और भारत को परस्पर पर्याय के रूप में चित्रित किया जा रहा है! 1975-76  में ‘इंदिरा भारत है, भारत इंदिरा है’ जैसा नारा उछला था। लेकिन, इस दौर में एक झटपटिया एकाधिकार कॉरपोरेटपति के विवादास्पद कारनामों के भंडाफोड़ और कड़ी आलोचना को देश की अर्थ व्यवस्था के उत्थान-पतन से जोड़ा जा रहा है। इतना ही नहीं, विपक्ष के आलोचकों, मूलतः राहुल गांधी को ‘गद्दार व देशद्रोही’ बतलाया जाता है। 

बेशक़, शासक दल भाजपा के निशाने पर कांग्रेस की अग्रिम पंक्ति के नेता राहुल गांधी हैं। अडानी के आर्थिक साम्राज्य पर आक्रमण को विदेशी साज़िश कहा जा रहा है। भाजपा के कतिपय सांसदों की दृष्टि में इस साज़िश का सूत्रधार अमेरिका है। वैसे, अमेरिका ने इसका खंडन भी किया है। हास्यास्पद तो यह है कि विश्व में अमेरिका  + भारत दोस्ती विख्यात है। मनोनीत राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दोस्ती तो विश्व प्रसिद्ध है। भारत के अंध भक्तों के लिए दोनों ‘लंगोटिया यार’ हैं। अमेरिका के भारतवंशी समुदाय में उनकी यारी हमेशा कौतुक का विषय बनी रही है। फिर भी  सिर्फ एक शिखर पूंजीपति की रक्षा के लिए अमेरिका को साज़िश के विवाद में घसीटा गया है। क्या इसे कूटनीतिक दृष्टि से भाजपा की विदेश नीति की परिपक्वता की निशानी कहा जायेगा? 

ऐसा नहीं है, संसद में पूंजीपतियों पर कभी बहस हुई ही नहीं है। नेहरू काल से लेकर मनमोहन सिंह काल तक पूंजीपतियों -उद्योगपतियों के आर्थिक घोटालों की संसद में समय समय पर गूंज होती रही है और मंत्रियों के त्यागपत्र भी होते रहे हैं। मंत्री जेल भी गये हैं। मुख्यमंत्रियों ने भी त्यागपत्र दिये हैं। राव काल में संसद में हवाला कांड गूंजा, जिसमें दोनों पक्षों के नेताओं की लिप्तता सामने आई थी। हर्ष मेहता काण्ड में तत्कालीन प्रधानमंत्री राव आरोपों व विवादों के घेरे में रहे थे। इससे पहले राजीव गांधी भी बोफोर्स सौदे में घूसखोरी के आरोपों से घिर चुके थे। 

इसी प्रकार भाजपा की वाजपेयी सरकार में भी जॉर्ज फर्नांडीज जैसे धाकड़ समाजवादी मंत्री पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। इतना ही नहीं, भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण भी घूसखोरी के चक्कर में फंसे थे। एक स्टिंग ऑपरेशन में वे एक पार्टी से एक लाख रुपए ले रहे थे। उन्हें अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा था।

इन घटनाओं को याद रखा जाना चाहिए।’ कैश फोर क्वैरी काण्ड’ अधिक पुराना नहीं है। तत्कालीन गैर-कांग्रेसी विपक्ष के कतिपय सांसदों की लिप्तता भी उछली थी।लेकिन, तब और आज की राजनीति में बुनियादी फ़र्क़ यह है कि तब कोई भी बड़ा नेता और राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बेशर्मी के साथ पूंजीपति की ढाल नहीं बना करते थे। क्या कभी देश के किसी भी प्रधानमंत्री पर विदेशी राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों से उद्योगपतियों (टाटा, बिड़ला, बजाज, सिंघानिया, डालमिया, अंबानी आदि) के लिए पैरवी करने के आरोप लगे हैं? 

किन्तु, कथित पैरवी के आरोपों से मोदी जी बच नहीं सके हैं। उन पर अनिल अम्बानी, गौतम अडानी के लिए सिफारिश करने के कथित आरोप लग चुके हैं। ऐसे आरोपों से देश की गरिमा और प्रधानमंत्री का पद कलंकित होता है। हो सकता है, ऐसे आरोप निराधार हों! पर विदेश भूमि से आरोपों की गंध के उठने को अवांछित ही कहा जाएगा। आरोपों पर लीपापोती भी हुई है।

अडानी विवाद से देश का ध्यान भटकाने के लिए सोरोस–सोनिया विवाद का तूफान खड़ा किया गया है।

पिछले 10 सालों से केंद्र में मोदी सरकार है। आज जब अडानी को लेकर देश में आवाज़ें उठ रही हैं, अमेरिका की अदालत में भी उन पर घूस देने के आरोप लग चुके हैं। इस पृष्ठभूमि में, सोरोस–सोनिया वितंडा खड़ा करना, शासक दल के सांसदों के इरादों पर सवालिया निशान लगाता है। यदि कश्मीर को लेकर इतनी ही चिंता है, तब 2019 में ही इस मामले को उछाला जा सकता था। इतना ही नहीं, केंद्र में 1998 से 2004 तक भाजपा नेतृत्व की सरकार रही है। तब भी इस मुद्दे पर खामोशी क्यों रही? इससे पहले भी विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार भी भाजपा व वामदलों के समर्थन पर टिकी हुई थी। तब भी खामोशी रही है। जब बोफोर्स तोपों के सौदे में घूस का बवाल खड़ा किया जा सकता है, तब सोरोस कांड को भी उजागर किया जा सकता था। लेकिन, भाजपा के नेता खामोश रहे। पर अडानी कांड का विस्फोट होते ही सोरोस को उछाल दिया गया। निश्चित ही, इसकी भी छानबीन की जानी चाहिए। लेकिन, अडानी के सवाल पर सरकार कब तक भागती रहेगी? देर सबेर अडानी के कारनामों की भी जांच की जानी चाहिए। सेबी की प्रमुख माधबी पुरी बुच को भी तलब किया जाना चाहिए। वे क्यों संयुक्त संसदीय समिति के सामने हाज़िर होने से इंकार करती हैं। उनके कारनामे भी जाँच के घेरे में आते हैं। माना जाता है कि वे अडानी के साथ पक्षपात करती रही हैं।

इसी मुद्दे पर एक सवाल इंडिया गठबंधन से भी है। पिछले एक अर्से से राहुल गांधी ही शिद्दत के साथ मोदी-अडानी यारी-दोस्ती का सवाल उठाते चले आ रहे हैं। क्या कांग्रेस के दूसरे वरिष्ठ नेता भी सक्रिय हैं? इसी मुद्दे पर गठबंधन घटक के अन्य नेताओं (शरद पवार, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, स्टालिन आदि) की उदासीनता भी सवालों के घेरे में है। अडानी के मुद्दे पर इंडिया गठबंधन के घटक एकमत दिखाई देने चाहिए। स्पष्ट नीति और एकरूपता के अभाव में इंडिया विभाजित और कांग्रेस अलग-थलग दिखाई देते हैं। सदन के बहिष्कार के सवाल पर भी तृणमूल कांग्रेस का रवैया गठबंधन के अनुकूल नहीं रहा है। पार्टी सुप्रीमो ममता बनर्जी का स्पष्ट कथन था कि उनकी पार्टी कांग्रेस की लकीर पर नहीं चलेगी। इसके दो रोज़ बाद ही उन्होंने संकेत दे दिए कि वे कोलकाता से ही गठबंधन के संचालन की कमान संभालने के लिए तैयार हैं। शरद पवार ने भी उनका समर्थन कर दिया। इससे गठबंधन में दरार दिखाई देती है। होना तो यह चाहिए कि सभी घटकों की बैठक में इस मसले पर विचार किया जाता और सर्वसम्मति से संयोजक के नाम पर फैसला होता। वैसे भी, इस समय तक कोई भी संयोजक नहीं है। अतः गठबंधन के नेता तत्काल बैठक बुला कर कोई निर्णय ले। अडानी के मुद्दे पर भी एकमत हो। अगले वर्ष दिल्ली और बिहार में चुनाव होंगे। चुनावों में घटकों की अलग अलग ढपली बजती सुनाई नहीं दे, इस पर भी सोच विचार और निर्णय होना चाहिए।

कांग्रेस सबसे बड़ा घटक दल होने के नाते सभी के परामर्श से इस दिशा में पहल कर सकती है। संसद के दोनों सदनों और बाहर परिसर में प्रदर्शन ही काफी नहीं है; राजधानी दिल्ली से लेकर दूर दराज गांवों तक सवालों व प्रतिरोध को पहुंचाना जरूरी है। इसके लिए घटकों की साझा स्पष्ट रणनीति होना जरूरी है।

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