कोरोना संकट ने केंद्र सरकार की कई असफलताओं को उजागर किया है। नेतृत्व क्षमता से लेकर कोरोना की समस्या की गंभीरता को समझते हुए ठोस रणनीति बनाने में विफलता जैसी कई ऐसी कमियाँ हैं जो पिछले दो महीनों में उभरकर हम सबके सामने आ गई हैं। मगर आज हम बात करेंगे उन तीन बड़ी असफलताओं की, जो इस सरकार को उसी की कसौटियों पर नाकाम साबित करती हैं।
मोदी सरकार की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण असफलता का स्मारक है मनरेगा। उसके मन में इस योजना के प्रति हिकारत का भाव था, मगर कोरोना संकट के दौरान एक यही योजना है जिसके बल पर सरकार लाखों लोगों को रोज़गार दे सकती है, उनको ज़िंदा रहने का सहारा दे सकती है।
आपको याद होगा कि नरेंद्र मोदी जब पहली बार देश के प्रधानमंत्री बने थे तो संसद में उन्होंने एक बड़बोला बयान दिया था। उन्होंने कहा था, ‘मेरी राजनीतिक सूझबूझ कहती है कि मनरेगा कभी बंद मत करो क्योंकि मनरेगा आपकी (कांग्रेस) विफलताओं का जीता–जागता स्मारक है और मैं गाजे- बाजे के साथ इस स्मारक का ढोल पीटता रहूंगा।’
मगर आज जब लाखों लोग बेरोज़गार हो गए हैं तो उन्हें काम देने के लिए मनरेगा का सहारा लिया जा रहा है। सरकार ने इस योजना का बजट चालीस हज़ार करोड़ रुपये बढ़ा दिया है।
मनरेगा को कमज़ोर किया गया
सच ये है कि मोदी सरकार इस योजना को पसंद नहीं करती थी, मगर उसे पता था कि इस योजना को बंद करने के क्या राजनीतिक परिणाम होंगे। इसलिए उसने इसे ज़िंदा तो रखा लेकिन लगातार कमज़ोर करने की कोशिशें भी कीं। अव्वल तो इसका बजट ही घटा दिया गया, जिसकी वज़ह से इसके लाभार्थियों की संख्या कम होती गई और कार्य दिवसों में भी कमी आ गई।
न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाने में कंजूसी
दूसरा, उसने इसकी न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाने में आनाकानी की और बढ़ाई भी तो वह मज़ाक जैसी थी। ये बढ़ोतरी 1 से 3 फ़ीसदी थी यानी मुश्किल से 2-3 रुपये। हालाँकि यूपीए सरकार का रुख़ भी इस मामले में बहुत सकारात्मक नहीं था, मगर मोदी सरकार तो और भी अड़ियल साबित हुई। हालाँकि वित्त मंत्री ने कथित आर्थिक पैकेज के तहत इसमें क़रीब दस फ़ीसदी की बढ़ोतरी का एलान किया है, मगर ये न्यूनतम मज़दूरी से अभी भी बहुत कम है।
दरअसल, मोदी सरकार और बहुत से लोग मानते हैं कि मनरेगा को दिया जाने वाला पैसा नाले में बहा देने जैसा है लेकिन हक़ीक़त इससे बिल्कुल अलग है।
मनरेगा के ज़रिए ग़रीब तबके के पास पैसा जाता है और जब वह उसे खर्च करता है तो अर्थव्यवस्था को चलाने वाले डिमांड (मांग) के पहिए को घूमने में मदद मिलती है।
ज़ाहिर है कि माँग बढ़ती है तो सप्लाई के लिए मैन्यूफ़ैक्चरिंग (निर्माण) बढ़ती है और उससे पूरी अर्थव्यवस्था गतिमान हो जाती है। लिहाज़ा मनरेगा ग़रीबों की जीवन रेखा ही नहीं है बल्कि ये अर्थव्यवस्था में रक्त प्रवाह को भी तेज़ करती है।
पीडीएस को ख़त्म करना चाहती हैं सरकारें
मनरेगा के बाद मोदी सरकार की दूसरी और बड़ी असफलता का स्मारक है जन वितरण प्रणाली यानी पीडीएस। बीजेपी और मोदी सरकार पीडीएस की बहुत बड़ी निंदक रही है। उसका बस चलता तो वह इसे कब का बंद कर चुकी होती। पीडीएस उसे काँग्रेसी राज की याद दिलाती है और ज़ाहिर है कि ये उसके लिए बेहद कष्टप्रद है।
हालाँकि मनमोहन सिंह सरकार भी पीडीएस को लेकर बहुत सकारात्मक नहीं थी। बल्कि पिछले तीन दशकों में जितनी भी सरकारें आई हैं वे इसे ख़त्म करने का एजेंडा लेकर चलती रही हैं। सब यही कहती थीं कि इसमें भ्रष्टाचार है, लीकेज है और टैक्सपेयर का पैसा बर्बाद हो रहा है। डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर का फंडा भी इसीलिए लाया गया था।
कुल मिलाकर पिछली और वर्तमान सरकारों ने पीडीएस को नष्ट-भ्रष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन मोदी सरकार को आज करोड़ों परिवारों को इसी प्रणाली से अनाज बाँटने का काम करना पड़ रहा है। ये काम अच्छे से हो सकता था अगर सरकारों ने इसे आधुनिक बनाने की कोशिश की होती, उसमें से भ्रष्टाचार को दूर करने की कोशिश की होती।
टेक्नालॉजी का उपयोग करके ऐसा करना बहुत मुश्किल नहीं होता, मगर इच्छाशक्ति हो तब न। वह तो इसे निपटाने के अभियान में लगी हुई थी। अगर उसने इसका कोई ज़्यादा कारगर विकल्प ही ढूँढ लिया होता तो उसके नज़रिए को सही मान लिया जाता। लेकिन पुराने की आलोचना करने से ही वह खुद को महान बनाने पर तुली हुई है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के प्रति उदासीनता
और अब मोदी सरकार की बड़ी विफलताओं का तीसरा स्मारक। कोरोना संकट ने ये बता दिया है कि जब भी देश किसी बड़े स्वास्थ्य संकट में फँसेगा तो उसे उबारने के लिए पब्लिक हेल्थ सिस्टम यानी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा ही काम आएगी।
सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पूरी स्वास्थ्य सेवाओं का केवल 30 फ़ीसदी है, मगर वह इस समय पूरे देश का बोझ उठा रही है और निजी क्षेत्र कोई भूमिका नहीं निभा रहा है, क्योंकि उसे इसमें मोटा माल मिलने की गुंज़ाइश नहीं दिख रही।
हालाँकि पिछली सरकारों ने भी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को ख़त्म करने की कोशिश ही की थी, मगर मोदी सरकार आयुष्मान भारत के ज़रिए एक नई छलाँग लगाने की फ़िराक़ में थी।
आयुष्मान योजना देकर उसने पब्लिक हेल्थ सिस्टम से पल्ला झाड़ लिया था और आम लोगों को बीमा कंपनियों और प्राइवेट हॉस्पिटल की मेहरबानियों पर छोड़ दिया था। ज़ाहिर है कि इससे लूट-खसोट को ही बढ़ावा मिल रहा है और रोगियों को विशेष फ़ायदा नहीं हो रहा। मज़े की बात है कि वित्त मंत्री को एलान करना पड़ रहा है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं सुधारी जाएंगी।
सबक सीखेगी मोदी सरकार
ज़ाहिर है कि कोरोना संकट ने मोदी सरकार को रोज़गार, स्वास्थ्य एवं आहार तीनों मोर्चों पर बुरी तरह से बेपर्दा कर दिया है। लेकिन क्या उम्मीद की जा सकती है कि वह इनसे कोई सबक सीखेगी और कोरोना संकट ख़त्म होते ही इन्हें भूल नहीं जाएगी। वास्तव में ज़रूरत तो इस बात की है कि रोज़गार, स्वास्थ्य और शिक्षा मामलों में सरकार अपनी नीतियों को पलटे और सामाजिक सुरक्षा बढ़ाने के लिए ठोस रणनीति बनाए।
पिछली सरकारों को कोसने पर ध्यान
यहाँ ये याद करवाना भी ग़लत नहीं होगा कि 2008 की आर्थिक मंदी के दौरान हमें हमारी बैंक व्यवस्था और पब्लिक सेक्टर ने बचाया था। ये सरकार अब इन्हीं पर वार कर रही है। क्यों कोरोना संकट के बाद उसे अपनी विनिवेश नीति को उलटना नहीं चाहिए। कार्पोरेट परस्त सरकार ऐसा करेगी, इसमें पूरा शक़ है। पिछली सरकारों को कोसने और उनके ऊपर दोष मढ़ने से ज़्यादा प्रतिभा, इस सरकार ने अभी तक नहीं दिखाई है।