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मल्लिकार्जुन खड़गे पर नहीं स्वामी विवेकानंद पर हमलावर है बीजेपी!

मल्लिकार्जुन खड़गे पर नहीं स्वामी विवेकानंद पर हमलावर है बीजेपी!

भूखे बच्चों के लिए भोजन, बच्चों को स्कूल, मज़दूरों को मज़दूरी नहीं मिलने की शिकायत करना और हज़ारों रुपये ख़र्च कर कंपटीशन में डुबकियाँ लगाने की बात कहना क्या धर्म का अपमान हो गया? खड़गे के बयान को मुद्दा क्यों बना रही बीजेपी?

“भारत की लाखों पीड़ित जनता सूखे गले से जिस चीज़ के लिए बार-बार गुहार लगा रही है, वह है रोटी। वे हमसे रोटी माँगते हैं और हम उन्हें पत्थर पकड़ा देते हैं। भूख से मरती जनता को धर्म का उपदेश देना, उसका अपमान है। भूखे व्यक्ति को तत्व-मीमांसा की सीख देना उसका अपमान है।”

सत्ता संरक्षण में मचाये जा रहे ‘हिंदुत्व’ के देशव्यापी कोलाहल के बीच इन चार पंक्तियों के कारण किसी को भी ‘धर्मद्रोही’ घोषित किया जा सकता है। ‘सनातन को अपमानित करने’ और ‘हिंदू धर्म का दुश्मन’ बताते हुए क़ानूनी कार्रवाई भी हो सकती है। लेकिन यह उद्धरण योद्धा संन्यासी स्वामी विवेकानंद का है जिन्हें आधुनिक विश्व को हिंदू धर्म के शुभ पक्षों से परिचित कराने का श्रेय दिया जाता है। शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में 20 सितंबर को 1893 को अपना चौथा भाषण देते हुए स्वामी विवेकानंद ने ज़िंदगी की तकलीफ़ों से ध्यान भटकाने के लिए धर्म की आड़ लेने वाले को कड़ी फटकार लगाते हुए जो कहा था वह ‘धर्म नहीं है भारत की सबसे बड़ी ज़रूरत’ शीर्षक से उपलब्ध है। उन्नीसवीं सदी के उस अंतिम दशक में न आस्था की कमी थी और न धर्म का ज़ोर ही कम था लेकिन किसी ने विवेकानंद पर इस भाषण के लिए कोई लांछन नहीं लगाया। उल्टा भारत लौटने पर 'महान हिंदू संत' के रूप में उनको तरह-तरह से सम्मानित किया गया था।

बहरहाल, लगभग 131 साल बाद ‘हिंदू राष्ट्र’ का दम भरने वाले ऐसी कोई गुंजाइश छोड़ने को तैयार नहीं हैं। धर्म के परिसर से विवेक को निष्कासित करके उसे घृणा और हिंसा का पर्याय बना दिया गया है। बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और सांसद संबित पात्रा का कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे पर किया गया ताज़ा हमला इसी का सबूत है। उन्होंने मध्यप्रदेश के महू में ‘जय बापू, जय भीम, जय संविधान’ रैली में दिये गये कांग्रेस अध्यक्ष के भाषण को सनातन के ख़िलाफ़ बताते हुए माफ़ी माँगने की माँग की है जबकि उसमें एक तरह से स्वामी विवेकानंद के भाषण को ही दोहराया गया था।

डॉ. आंबेडकर की जन्मस्थली महू में 27 जनवरी को आयोजित रैली में मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा, “अरे भाई गंगा में डुबकी लगाने से ग़रीबी दूर होती है क्या? क्या आपको पेट में खाना मिलता है? मैं किसी की आस्था को कोई ठेस नहीं पहुँचाना चाहता। अगर किसी को दुःख हुआ तो मैं माफ़ी चाहता हूँ। लेकिन आप बताइए कि जब बच्चा भूखा मर रहा है, बच्चा स्कूल में नहीं जा रहा है, मज़दूरों को मज़दूरी नहीं मिल रही है… जब ये है, तो ये लोग जाकर हज़ारों रुपये ख़र्च करके कम्पटीशन में डुबकियाँ मार रहें हैं। कम्पटीशन में एक डुबकी मारता है, फिर दूसरा… और जब तक टीवी पर अच्छा नहीं आता, तब तक डुबकी मारते रहते हैं। …ऐसे लोगों से देश की भलाई होने वाली नहीं है। हमारी आस्था भगवान में है। कर सकते हैं। हर एक को आज़ादी है। आप रोज़ पूजा करिए। घर में हर आदमी और हर महिला पूजा कर के बाहर निकलती है। हमें कोई ऐतराज़ नहीं है। हमको ऐतराज़ है- ग़रीबों का जो शोषण हो रहा है, धर्म के नाम पर, उसके ख़िलाफ़ हमको लड़ना है।"

साफ़ है कि मल्लिकार्जुन खड़गे धार्मिक लोगों आस्था पर चोट नहीं कर रहे हैं जो परलोक सुधारने या मोक्ष के लिए कुम्भ में डुबकी लगाने जा रहे हैं, उनका निशाना वे सत्ताधारी हैं जो देश में फैली भीषण ग़रीबी और बेकारी पर पर्दा डालने के लिए महाकुम्भ के ‘इवेंट' का इस्तेमाल कर रहे हैं और अपनी तमाम असफलताओं पर उठ रहे सवालों को 'आस्था की डुबकी’ के पी.आर में ‘डुबो' देना चाहते हैं। उनके लिए गंगा में आस्था की डुबकी लगाने से ज़्यादा टी.वी. के पर्दे पर ‘स्नान करते दिखना’ है। 

स्वामी विवेकानंद ने इसे ही जनता का अपमान बताया था। तब किसी ने ये नहीं कहा था कि विवेकानंद दूसरे धर्म के बारे में सवाल क्यों नहीं उठाते?

पर संबित पात्रा ने चैलेंज किया है कि

“क्या खड़गे जी कह सकते हैं कि हज में जाने से क्या हो जाएगा? सनातन के ख़िलाफ़ उनके बोल शर्मनाक हैं। इस बयान के लिए कांग्रेस पार्टी को माफ़ी माँगनी चाहिए।”

संबित पात्रा शायद भूल गये हैं कि भारत के महान संत-महात्माओं ने ऐसे तमाम सवाल उठाये हैं। संत रैदास कहते हैं कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’ उनके लिए ईमानदारी से अपना काम करने वालों के लिए गंगा स्नान की ज़रूरत नहीं है। वहीं संत कबीर चेताते हैं, ‘न्हाये धोये क्या हुवा, मन का मैल न जाये/मीन (मछली) सदा जल में रहे, धोये बास न जाये।’ कबीरदास का एक प्रसिद्ध निर्गुण है- ‘चली कुलबोरिनी गंगा नहाय!’  इसमें वे कहते हैं, ‘गंगा नहाइन जमुना नहाइन, नौ मन मैलहि लिहिन चढ़ाय/ पाँच पचीस के धक्का खाइन, घरहु की पूंजी आई गँवाय/ कहैं कबीर हेत करु गुरु से, नहीं तोर मुक्ती जाइ नसाय/” 

उधर, गुरु नानक से जुड़ा प्रसिद्ध वाक़या है कि वे हरिद्वार में गंगा में खड़े होकर सूर्य को जल न देकर पंजाब की दिशा में पानी उलीचने लगे। पूछने पर जवाब दिया कि वे अपने खेतों को सींच रहे हैं। इस पर जब पुरोहित हँसे तो उन्होंने सवाल किया कि अगर आपका चढ़ाया जल सूर्य लोक पहुँच सकता है तो पंजाब के हमारे खेतों तक क्यों नहीं पहुँच सकता?

ज़ाहिर है, धर्म के मार्ग में विवेक को छोड़ना अनिवार्य नहीं है। ये सभी संत-महात्मा ईश्वर पर विश्वास करते थे लेकिन इसके लिए पूजा-पाठ या गंगास्नान करने की जगह मन का मैल दूर करने, सदाचरण और सद्भावना की सीख देते थे। क्या संबित पात्रा या बीजेपी नेता उन्हें भी चुनौती देते कि 'पहले किसी और धर्म पर सवाल उठाओ, यह हिंदू धर्म का अपमान है!’ 

कुम्भ में गंगा स्नान करके आस्थावान ‘मोक्ष’ यानी आवागमन के चक्र से मुक्ति चाहते हैं। यानी इस आयोजन का रिश्ता लोक से नहीं परलोक से है। जबकि प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या मुख्यमंत्री की ज़िम्मेदारी ‘लोक’ की व्यवस्था करना है। लोक के संकटों को दूर करना उनका ‘धर्म’ है।

इसीलिए इस व्यवस्था को ‘लोकतंत्र' कहा गया है न कि ‘पर-लोकतंत्र।’ राजनेता भी अपनी आस्था के तहत गंगा स्नान करें, इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है, लेकिन अगर लोकतंत्र की कमान सँभालने वाले नेता लोक-व्यवस्था की बदहाली के सवालों के जवाब में ‘परलोक की पुड़िया’ बाँटेंगे तो इसे धर्म नहीं अधर्म ही कहा जाएगा। विवेकानंद की नज़र में यह जनता का अपमान है। देश के सबसे ग़रीब राज्यों में शुमार उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार जिस तरह से महाकुम्भ की ब्रांडिंग से अपना चेहरा चमका रही है, वह नाकामी पर पर्दा डालने की कोशिश ही है।

संबित पात्रा सरीखे बीजेपी के तमाम नेता जो ‘हिंदू बनाम अन्य के खेल’ से अपनी सत्ता मज़बूत करना चाहते हैं उन्हें विश्व धर्म संसद में दिया गया विवेकानंद का अंतिम भाषण ज़रूर पढ़ना चाहिए। 27 सितंबर 1893 को सम्मेलन के समापन सत्र को संबोधित करते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ”पवित्रता, शुद्धता और उदारता, दुनिया के किसी एक धर्म की मिल्कियत नहीं है। सभी धर्मों ने सर्वश्रेष्ठ गुणों वाले महान पुरुषों और महिलाओं को जन्म दिया है। यह बात साबित होने के बाद भी अगर कोई व्यक्ति सिर्फ अपने धर्म के आगे बढ़ने और बाकी धर्मों के नष्ट होने का सपना देखता है, तो मुझे उस पर दिल की गहराइयों से तरस आता है। ऐसे लोगों को मैं बताना चाहूंगा कि तमाम विरोधों के बावजूद बहुत जल्द हर धर्म के बैनर पर लिखा होगा ‘युद्ध नहीं, सहयोग!’, ‘विनाश नहीं, मेल-मिलाप!’, ‘आपसी कलह नहीं, शांति और सद्भावना!’

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