संभवत: लोकसभा का यह पहला चुनाव है जब महात्मा गाँधी का ज़िक्र नहीं हो रहा है, अगर किसी का ज़िक्र हो रहा है तो वह हैं राहुल गाँधी। राहुल गाँधी का महात्मा गाँधी से कोई पारिवारिक संबंध नहीं है। राहुल का संबंध तो इंदिरा गाँधी से है जो नेहरू परिवार से थीं। राहुल गाँधी इस चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निशाने पर हैं। इसलिए मोदी की सभाओं में अक्सर राहुल गाँधी का नाम उछलता रहता है। एक गाँधी और हुए हैं, जिनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गाँधी था और आज़ादी की लड़ाई में वह महात्मा गाँधी के रूप में मशहूर हुए थे।
महात्मा गाँधी के जन्म के डेढ़ सौ साल पूरे हो रहे हैं। इसलिए संस्कृतिकर्मी ज़रूर उन्हें याद कर रहे हैं। इस सिलसिले में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने महात्मा गाँधी के जीवन पर आधारित एक नाटक ‘पहला सत्याग्रही’ पेश किया। नाटक के लेखक हैं जाने-माने कला समीक्षक और पत्रकार रविंद्र त्रिपाठी।
‘पहला सत्याग्रही’ नाटक में गाँधी के जीवन और भारत की आज़ादी की लड़ाई से जुड़े कई महत्वपूर्ण पड़ावों को समेटकर लेखक रविंद्र त्रिपाठी ने आज के दौर में गाँधी की प्रासंगिकता को समझने की कोशिश की है।
एक तरफ़ गाँधी के शुरुआती दिनों की तलाश में नाटक दक्षिण अफ़्रीका पहुँचता है, जहाँ गाँधी ने रंगभेद के ख़िलाफ़ संघर्ष से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। गाँधी जब भारत लौटकर आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा बनते हैं, तो दक्षिण अफ़्रीका का रंगभेद संघर्ष भारत के छुआछूत विरोधी अभियान के रूप में सामने आता है। गाँधी के छुआछूत विरोधी अभियान के अब क़रीब 100 साल पूरे हो रहे हैं। लेकिन हिंदू समाज आज भी दलित घृणा के अभिशाप से मुक्त नहीं हो पाया है। लेकिन आज़ादी के क़रीब 70 सालों के बाद इतना ज़रूर हुआ है कि दलितों के बीच से मायावती जैसे सबल क्षत्रप खड़े हो गए हैं जो जाति व्यवस्था और छुआछूत को खुली चुनौती दे रहे हैं।
मायावती या अन्य दलित नेता अब सिर्फ़ डॉक्टर अंबेडकर का नाम लेते हैं लेकिन इस एतिहासिक तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि छुआछूत के ख़िलाफ़ एक बड़ी पहल गाँधी ने की थी।
दलित अपने वोट की ताक़त समझ चुका है, इसीलिए चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक दलित का पैर छूते हैं और राहुल गाँधी उनके घर पर भोजन करके उन्हें सम्मान देने की बात करते हैं। लेकिन यह साफ़ है कि छुआछूत अभी हिंदू समाज में मौजूद है और दलित अपनी राजनीतिक शक्ति से ही बराबरी का अधिकार प्राप्त कर सकते हैं।
रविंद्र त्रिपाठी ने अपने नाटक में चंपारण के नील सत्याग्रह को बड़े सशक्त ढंग से रखा है। यह पहला आंदोलन या सत्याग्रह है जिसने गाँधी को भारत के गाँव और किसान की समस्या को समझने में बड़ी मदद की। अंग्रेज चले गए, अब तो 70 वर्ष हो गए, नील की खेती बंद हो गई लेकिन किसान का शोषण आज भी बरक़रार है।
कर्ज के बोझ से दबा किसान आज भी आत्महत्या कर रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी ने किसानों की आमदनी दो गुना करने का वादा किया था। 2019 के चुनाव में अब मोदी किसान का ज़िक्र नाममात्र के लिए ही करते हैं।
राहुल गाँधी की कांग्रेस ने ग़रीब परिवारों को न्याय योजना में हर महीने 6 हज़ार रुपये तक देने का वादा किया है। किसान के लिए अलग बजट की भी बात की गई है। उनकी सरकार बनी तो इस वायदे की भी जाँच हो जाएगी लेकिन फिलहाल तो मोदी पुलवामा के शहीदों और पाकिस्तान के बालाकोट में भारत के हवाई हमले को भारत की आन-बान-शान का प्रतीक मानकर वोट माँग रहे हैं। यहाँ उल्लेख करना ज़रूरी है कि पुलवामा में शहीद हुए ज़्यादातर जवान देश के ग़रीब किसानों के बेटे थे।
गाँधी का नमक सत्याग्रह और दांडी मार्च भी नाटक का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। नमक पर टैक्स के ख़िलाफ़ गाँधी ने देशव्यापी सत्याग्रह खड़ा कर दिया था। मोदी सरकार के जीएसटी ने छोटे उद्योगों की भी कमर तोड़ दी। देश भर की लाखों छोटी फ़ैक्ट्रियाँ बंद हो गईं, मजदूर बेरोज़गार हो गए। इससे तो सिर्फ़ इतना समझा जा सकता है कि सत्ता की सोच सिर्फ़ समृद्ध वर्ग तक ही सीमित है। अंग्रेजी राज में इसका क्रूर चेहरा दिखाई देता था। अब वोट के भय से सत्ता का चेहरा बहुरुपिये की तरह बदलता रहता है।
गाँधी का हिंद स्वराज मशीनों के ख़िलाफ़ था। इसलिए उसकी आलोचना उस समय भी की गई थी लेकिन गाँधी ने चरखे को प्रतीक बनाकर दिखा दिया कि हाथ से काम करके भी चमत्कार किया जा सकता है। चरखे के सूत से बने खादी आंदोलन ने देश के कपड़े की ज़रूरत को भी पूरा किया और इंग्लैंड के मैनचेस्टर की कपड़ा मिलों की चूलें हिला दीं, जो भारत को कपड़ा निर्यात करके मोटी कमाई कर रही थीं।
आज के दौर में मशीन हमारे जीवन को चारों तरफ़ से घेर चुकी है। लेकिन आज़ाद सरकारें ऐसी योजनाएँ बना ही सकती हैं जिसके जरिये छोटे उद्योग और धंधे भी जीवित रहें। 2014 में मोदी का नारा - अच्छे दिन आने वाले हैं, ने ऐसी उम्मीद जगाई लेकिन 5 साल बाद न अच्छे दिन पर जोर है और न जर्जर जीवन जी रहे ग़रीब पर। अबकी बार जोर है सिर्फ़ राष्ट्रवाद पर। बल्कि कई बार तो यह सिर्फ़ हिंदू राष्ट्रवाद दिखाई देता है।
‘पहला सत्याग्रही’ में लेखक ने गाँधी के उस चेहरे को उभारा है जो भारतीय राष्ट्रवाद की वकालत करता था। गाँधी भारत के विभाजन के ख़िलाफ़ थे, गाँधी हिंदू थे लेकिन मुसलमान या किसी धर्म के ख़िलाफ़ नहीं थे। भारत बँट गया, गाँधी की नहीं चली। देश आज़ाद हो रहा था, तब वह बंगाल में हिंदुओं को बचाने में जुटे थे।
अंतत: गाँधी उग्र हिंदुत्व के शिकार हो गए। 2019 के चुनाव में जिस राष्ट्रवाद की वकालत हो रही है, वह गाँधी का राष्ट्रवाद नहीं है। संभवत: वह वही हिंदू राष्ट्रवाद है, जिसने गाँधी की जान ली।
नाटक के निर्देशक सुरेश शर्मा ने शानदार दृश्यों के निर्माण से पूरी प्रस्तुति को जानदार बना दिया। निर्देशन में कल्पना और वास्तविकता का बेजोड़ संगम दिखाई दिया। गोविंद सिंह यादव की प्रकाश परिकल्पना ने नाटक को लगातार जीवंत बनाए रखा।
गाँधी की भूमिका में शाहनवाज ख़ान और राजू राय, महादेव के रूप में दीप कुमार और प्यारे लाल के चरित्र में पराग बरूआ ने पात्रों को जीवंत बना दिया। हमारे नेताओं के लिए गाँधी अब सिर्फ़ 2 अक्टूबर और 30 जनवरी भर हैं। गाँधीवाद को फिर से जीवित करने के लिए रंगकर्मी साधुवाद के पात्र हैं।