चाणक्य का खेल: महाराष्ट्र की चेतावनी, संभल जाओ मोदी-शाह जी!

07:31 am Nov 27, 2019 | अरविंद मोहन - सत्य हिन्दी

महाराष्ट्र का राजनैतिक नाटक अगर षड्यंत्रकारी ढंग से मुख्यमंत्री बने देवेन्द्र फडणवीस के इस्तीफ़े के साथ एक मुकाम पर पहुँची लगती है तो यह काफ़ी राहत देने वाली चीज है। राहत आगे के लिए बहुत सुधार की उम्मीद से न होकर गिरावट की इंतहा न दिखने से है। बीजेपी-शिवसेना का गठबंधन विधानसभा ज़रूर जीत गया था पर चुनाव पूर्व से ही दाँव-पेच चालू हो गए थे। मुक़ाबले वाला कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन कहीं लड़ाई में नहीं लग रहा था। 

चुनावी लाभ के लिए एनसीपी नेता शरद पवार और उनके भतीजे अजीत पवार ही नहीं, उनके क़रीबी माने जाने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रफुल पटेल के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के मामलों का इस्तेमाल उन्हें दबाने के लिए किया जाने लगा था। शायद यही तरीक़ा नाराज़ शिवसेना को बराबर-बराबर सीट लड़ने के लोकसभा चुनाव के वायदे से नीचे उतरने के लिए आजमाया गया। कांग्रेस तो मरी-सी रही पर शरद पवार ने प्रवर्तन निदेशालय के नोटिस समेत केंद्र सरकार के इस ‘भ्रष्टाचार निवारण अभियान’ को यह घोषित करके चुनावी मुद्दा बनाया कि वे ख़ुद सरेंडर करने जा रहे हैं। तब चुनावी हवा प्रभावित होते देखकर इस तरीक़े को रोका गया, पर चुनावी नतीजे आते ही वही खेल शुरू हो गया। 

शरद पवार ‘बड़े चाणक्य’ हैं और नरेन्द्र मोदी के ‘चाणक्य’ अमित शाह अभी प्रोबेशन पर हैं, यह साबित हो गया।

चुनाव में बीजेपी गठबंधन को मिली साफ़ जीत भी मोदी-शाह के व्यवहार और अहंकार की भेंट चढ़ गया, क्योंकि शिवसेना ने काफ़ी समय से अपने साथ किए जा रहे व्यवहार और अपनी घटती ताक़त को आधार बनाकर सत्ता की ज़्यादा बड़ी सौदेबाज़ी शुरू की। महाराष्ट्र में पिछले चार बार से सत्ता, मंत्रालय, और मंत्रालयों के बजट के आधार पर जो गठबंधन सरकारें बनती रही हैं, इस बार भी अगर यह क्रम बना रहा तो सबको लगा कि यह एक स्वाभाविक मोल-तोल है या जनता के हाथ से लोकतंत्र की बागडोर छूटते ही नेताओं की धंधेबाज़ी है। पर जब काठ की तलवार की लड़ाई ने ही ऐसी स्थिति बना दी कि बीजेपी और शिवसेना दोनों के लिए झुकना मुश्किल हो गया तो असली चाणक्य सक्रिय हुए। उन्हें अपनी एनसीपी के साथ कांग्रेसी विधायकों की तरफ़ से भी खेल करने का लाभ था।

बीजेपी शायद आख़िर तक सत्ता की अकड़, शिवसेना की कुछ मजबूरियों और ईडी-सीबीआई जैसी एजेंसियों की ताक़त के भरोसे अकड़ी रही। उसके किसी भी ढंग के नेता ने शिवसेना से कोई बात करनी ज़रूरी नहीं मानी। और शायद अपनी राजनैतिक मैनेजरी (जिसके सहारे इस जोड़ी और ‘चाणक्य अमित शाह ने कम से कम आधा दर्जन राज्यों में हारकर भी सरकार बनवा ली थी) पर अत्यधिक भरोसा ही था कि पहले शरद पवार को शिवसेना से गठबंधन करने दिया गया और जब ‘तीन पहिया’ की सवारी बनती लगी तो अजीत पवार को साथ लेकर रातोरात सरकार बनवा ली गई। इसमें ईडी-सीबीआई या राजनैतिक-मौद्रिक लाभ का कितना इस्तेमाल हुआ यह बताना मुश्किल है, पर उनके बगैर यह सरकार बनी हो यह मान लेना उससे भी ज़्यादा मुश्किल है। देर रात से शुरू हुआ नाटक सुबह शपथ ग्रहण के रूप में समाप्त हुआ और सीधे प्रधानमंत्री ने अपना आशीर्वाद (ट्विटर के ज़रिए) देकर इस बेमेल शादी पर मोहर भी लगा दी। 

इससे पहले राज्यपाल को किस तरह ‘नचाया’ गया, राष्ट्रपति का का ‘इस्तेमाल’ हुआ और प्रधानमंत्री ने किस आफ़त के चलते कैबिनेट की बैठक के बिना ही अपनी स्वीकृति दी, यह सवाल उठाने वाला कोई न था। अपयश का सारा ठीकरा शरद पवार के सिर फोड़ा गया जिन्होंने सरकार बनने वाले दौर में ही राज्य के किसानों को राहत दिलवाने के लिए प्रधानमंत्री से मिलने की ‘ग़लती’ कर ली थी। और कुछ नहीं तो सरकार बनने के बाद बीजेपी द्वारा अपने एक सांसद को शरद पवार से मिलने जाने की ख़बर ही उड़वा दी गई। पर शरद पवार असली चाणक्य निकले। 

शरद पवार का खेल

बढ़ती उम्र और गिरते स्वास्थ्य के बावजूद पवार ने अगर ज़बरदस्त चुनाव अभियान चलाकर बीजेपी-शिवसेना गठबंधन की चुनावी सफलता को (जिसको 225 सीटें आने की भविष्यवाणी की जा रही थी) थामा तो हर तरह से बेमेल ताक़तों का गठबंधन बनाकर नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की अपार शक्ति को खुली चुनौती दी और वह ‘बिल्ली’ के गले में घंटी बांधकर ही माने। जैसा पहले कहा गया है इस बदलाव से महाराष्ट्र और मुल्क की राजनीति में कोई स्वर्णयुग नहीं आने वाला है पर जिस तरह कलयुगी अंधेरा गहराता जा रहा था वह एक जगह आकर रुक गया है। शिवसेना सुधर जाएगी, एनसीपी नेताओं का भ्रष्टाचार बंद हो जाएगा, अजीत पवार दूध के धुले हो जाएँगे और कांग्रेस गाँधी युग वाली बन जाएगी, ऐसा नहीं होगा। 

अपार साधनों, राजनैतिक सत्ता के दुरुपयोग और लोकतांत्रिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर ‘चाणक्य’ और ‘चन्द्रगुप्त’ बनने का खेल अगर थम जाता है तो यह क़ीमत ज़्यादा नहीं होगी।

महाराष्ट्र के झटके के बाद अचानक मोदी-शाह की जोड़ी और उसकी कार्यशैली सवालों के घेरे में आ गई है। मोहन भागवत जैसे शुभचिंतक तो नीति-वक्तव्य के सहारे कुछ सुधार चाहते हैं पर झारखंड में बीजेपी के सहयोगी ही नहीं उसके लोग भी बाग़ी हो गए हैं। जदयू और लोक जनशक्ति पार्टी ही नहीं, सरकार में भागीदार आजसू भी अलग चुनाव लड़ रहा है। बिहार में जदयू के तेवर बदले हैं। हरियाणा में मंत्रिमंडल विस्तार आसान नहीं रहा। एनडीए को ज़िंदा करने की माँग खुलकर उठाई जाने लगी है। दूसरी ओर महाराष्ट्र के बहाने ही यूपीए के सहयोगी ज़्यादा व्यवस्थित ढंग से न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर सबकी सहमति बनाकर आगे बढ़ना चाहते हैं। 

आगे क्या-क्या होगा, यह भविष्यवाणी करना इस लेख का मकसद नहीं है। न ही किसी एक जमात को तमगा देना ही, क्योंकि जमाने तक कांग्रेस गठबंधन के साझीदार ढूँढने की जगह उसकी सत्ता की पालकी ढोने वाले ही तलाशती रही है। उसे भी गठबंधन चलाना तभी आया जब अटल बिहारी वाजपेयी और जॉर्ज फर्नांडीस जैसे लोगों ने छह साल तक क़रीब 20 दलों की सरकार सफलतापूर्वक चला ली। भारत जितनी विविधताओं का देश है उसमें एक दल, एक नेता द्वारा हर क्षेत्र, हर सामाजिक और राजनैतिक समूह की इच्छाओं-आकांक्षाओं को पूरा करना असंभव है। जब कांग्रेस का एकछत्र राज था तब भी तमिलनाडु, पंजाब और कश्मीर ही नहीं, पूरे पूर्वोत्तर में नाराज़गी थी, बीच की जातियाँ कांग्रेस से छिटकती थीं (इनका वोट समाजवादियों को जाता था) और मज़दूर नाराज़ रहते थे। 

यह नाराज़ समूह कई रंग-रूप में विकसित हुए, राजनैतिक ताक़त बने और धीरे-धीरे क्षेत्रीय राजनीति केन्द्रीय भूमिका में आ गई थी। उसके क्या गुण-दोष थे, वह क्यों बढ़ी, क्यों बदनाम और कमज़ोर हुई और राष्ट्रीय दलों और नेताओं की क्या ख़ूबी-खामी रही, यह चर्चा बहुत विस्तार की माँग करती है। लेकिन अभी मोदी-शाह का सूरज शीर्ष पर पहुँचकर मद्धिम पड़ता दिखता है तो उसे रेखांकित करने की ज़रूरत है। और यह ज़रूरत और भी तब बढ़ जाती है जब लगता है कि यह जोड़ी मुल्क और समाज के बुनियादी स्वभाव या धर्म को न समझ कर अपनी चलाने लगी थी। महाराष्ट्र की चेतावनी अगर उन्हें जगा दे तो उनका ही भला होगा।