होता यही रहा है कि हर चुनाव में बसपा मीडिया और सामान्य राजनैतिक चर्चा से बेहतर प्रदर्शन करती है। कोई कह सकता है कि इस बार भी ऐसा हो सकता है। उस संभावना को चार जून के पहले खारिज किए बिना यह कहा जा सकता है कि इस बार शायद ऐसा न हो। इसका कारण है कि दलित मतों की लूट मची है। है तो यह लूट सभी जगह पर उत्तर प्रदेश सबकी नजर में है। और वही दलितों को डराने-धमाकाने, फुसलाने, हल्के प्रलोभन की जगह उनके मतों की लूट तक स्थिति लाने के लिए जिम्मेवार है। वही क्यों, बहुजन समाज पार्टी के आंदोलन से यह स्थिति बनी कि दलितों का वोट रोकना, बदलना, किसी और द्वारा डलवा देना और ज्यादा हुआ तो हल्के फुसलावे से मत पाने की जगह ‘लूट’ का इंतजाम करना होता है। अब चोरी से नहीं, लूट से काम चलता है। चोरी और डकैती जैसे प्रचलित शब्दों से यह अंतर ज्यादा बढ़िया समझ आएगा।
अब कांसीराम और उनके साथियों ने किस किस तरह से हिन्दी पट्टी के इस मुख्य अखाड़े में चीजें बदलीं और बसपा को सत्ता में आने लायक बनाया यह सब बहुत पुराना इतिहास नहीं है। और इस उभार के साथ देश भर में दलितों के बीच एक सुगबुगाहट बनने लगी जो उस महाराष्ट्र जैसे राज्य के गाँव-गाँव में भी दिखी जहां देश में सबसे ताक़तवर दलित आंदोलन चला था और जो बाबा साहब की मुख्य कर्मभूमि भी थी। वहां की दलित बस्तियों में नव बौद्धों के विहार के साथ नीले झंडे वाले दफ्तर (बसपा के) भी दिखने लगे।
पर उस शीर्ष से बसपा निरंतर गिरती गई है और यह आलेख उसकी चर्चा पर नहीं जाएगा। लेकिन पिछले आम चुनाव में बसपा और सपा के गठजोड़ ने जब पुलवामा-बालाकोट वाले नरेंद्र मोदी के विजयी रथ को भी उत्तर प्रदेश में चुनौती दी और भाजपा की सीटें कम हुईं तब मायावती ने तुरंत गठजोड़ तोड़ दिया। उसके बाद से वह क्या और क्यों कर रही हैं, इसकी कहानी बहुत विस्तार मांगेगी। पर इतना कहने में हर्ज नहीं है कि इस चुनाव में बसपा अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रही है। और इसमें भी जब युवा आनंद के भाषणों से थोड़ी जान आती दिख रही थी तब मायावती ने उन्हें अवयस्क बताकर दरकिनार कर दिया।
बसपा के सांसद और विधायक तो मान्यवर काँसीराम वाले दौर में भी टूटते और बिकते रहे लेकिन मतदाता, समर्थक मजबूत होते जाते थे (ऐसा झारखंड के आदिवासियों के साथ भी जमाने से हो रहा है)। उनके न रहने और मायावती के आय से अधिक संपत्ति मामलों में घिरते जाने के बाद से बसपा का मूल जनाधार भी छीजने लगा। उत्तर प्रदेश से बाहर राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, बिहार और दिल्ली में बसपा का आधार खत्म नहीं हुआ लेकिन चुनावी राजनीति में उसकी हैसियत गिरती गई।
सत्ता का लोभ और दल-बदल से उसके लोगों को तोड़ने का काम हर जगह हुआ लेकिन उत्तर प्रदेश में उसके उस आधार वोट को ‘लूटने’ की कोशिश चुनाव पहले से शुरू हुई थी। जो दलित शहरों में रहते हैं उन पर भाजपा का रंग थोड़ा ज़्यादा चढ़ा था लेकिन उत्तर प्रदेश के पासी समाज, सोनकर समाज पर समाजवादी पार्टी और भाजपा ने काफी डोरे डाले। बिहार में रविदासियों पर बसपा का असर ज़्यादा था तो उस पर कांग्रेस और राजद के साथ भाजपा ने भी प्रभाव बनाने का प्रयास किया। दुसाध समाज पर रामविलास पासवान का असर रहा और इसके चलते वे हर दौर में सत्ता की मलाई खाते रहे। और इधर उनकी पार्टी को भाजपा ने तोड़ा-मरोड़ा लेकिन छोड़ा नहीं। भाजपा अधिकाधिक आरक्षित सीटों पर भी जीत हासिल करने लगी।
लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव के बाद एक तरफ़ मायावती लंबी चुप्पी साधकर पड़ी रहीं तो बाकी लोग बसपा के ‘कोर वोट’ अर्थात जाटव समाज में अपनी घुसपैठ की कोशिश करने लगे।
मायावती जानकर भी चुप रहीं। सालाना जमावड़ा भी बंद रहा। चुनाव में उनके टिकट बांटने को लेकर भी सवाल उठे कि वह भाजपा को जितवाने के लिए अपने उम्मीदवार दे रही हैं।
अपने सारे चुनावी ज्ञान और अनुभव के बावजूद यह लेखक इस बार बसपा द्वारा दिए उम्मीदवारों की राजनीति को नहीं समझ पाया। खुद जीतने लायक उसके उम्मीदवार तो इक्का-दुक्का लग रहे हैं पर मायावती के निशाने पर भाजपा, सपा और कांग्रेस, सभी लगते हैं। कोई चाहे तो संख्या में कम ज्यादा गिनवा सकता है। संयोग से शुरुआती दौर का मतदान जाटव बहुल इलाकों वाले थे। और वहां नगीना में एक अन्य उभरते जाटव नेता चंद्रशेखर आजाद को छोड़कर और बहुत ज्यादा हलचल दलितों में नहीं दिखी। हां, उनका बसपा उम्मीदवार के प्रति उत्साह से भरा समर्थन नहीं दिखा। ऐसा होते ही ज्यादातर उम्मीदवार अपनी बिरादरी का या अल्पसंख्यक समाज का वोट पाने में असफल रहे। लड़ाई सपा/कांग्रेस और भाजपा उम्मीदवारों के बीच सिमट गई। पर बाद के दौर के चुनाव में दिनोंदिन बसपा लड़ाई से और ज्यादा बाहर जाती दिखी।
फिर दलित मतों की लूट का जो जुमला पहले उछाला गया है, वह काम शुरू हुआ। इसमें रोहित वेमुला की मौत से संबंधित बकवास जांच रिपोर्ट का आना भी दलित समाज में कोई गोलबंदी नहीं पैदा कर पाया। भाजपा ने पिछली बार ही आंबेडकरवादी और गैर आंबेडकरवादी जमात का फासला बना दिया था। चुनावी पंडितों समेत हर किसी की नज़र इसी पर रही कि अगर दलित, खासकर जाटव वोट बसपा से छिटक रहे हैं तो किसकी झोली में जा रहे हैं। नजदीकी लड़ाई में इतने वोटों का एक तरफ होना निर्णायक हो सकता है। जाहिर तौर पर दलित वोटों में बढ़त पर रही भाजपा इस वोट बैंक पर अपना हक मानती है। उसने कांग्रेस द्वारा दलित-पिछड़ों का आरक्षण काटकर अल्पसंख्यकों का मुद्दा जोर-शोर से उठाया जो कायदे से मुद्दा है भी नहीं।
लेकिन इस मामले में विपक्ष ज्यादा तैयार था। उसने लोकतंत्र और बाबा साहब के बनाए संविधान पर ख़तरे का मुद्दा बनाया और भाजपा के चार सौ पार के लक्ष्य के पीछे संविधान संशोधन की मंशा बताई। विपक्ष ने एक सामाजिक इंजीनियरिंग भी की- मुसलमानों का समर्थन पक्का मानकर उसने कम मुसलमान उम्मीदवार दिए और कुशवाहा/मौर्या/कोइरी ही नहीं, मल्लाह-बिन्द, पटेल जैसी उन जातियों के ज्यादा उम्मीदवार दिए जिनमें बसपा का कभी अच्छा आधार था। एक प्रयोग सामान्य सीट से दलित उम्मीदवार उतारने का था। यह काम लालू यादव ने सुपौल में और आप ने पूर्वी दिल्ली में किया लेकिन सपा द्वारा मेरठ और अयोध्या से दलित उम्मीदवार उतारना ज्यादा असरदार लगा। ये दोनों उम्मीदवार सीनियर लोग भी थे और उनके मिले सम्मान से बाक़ी जगहों पर भी असर लगा। हरियाणा और बिहार में भी बदलाव महसूस हो रहा है। लेकिन इन सारे गुना-भाग का नतीजा अगली राजनीति से ज़्यादा आगे के समाज पर क्या होगा, इसकी चिंता कम ही लोगों को लगती है।