बड़ी भद्दी कहावत है पूर्वी उत्तर प्रदेश की, जिसका परिमार्जित रूप है — बंदर के हाथ में उस्तरा। यहाँ हम मोदी को दोष नहीं देते। मोदी एक इनसान हैं और हर इनसान की समझ अलहदा होती है, जो देश, काल और परिस्थिति से बनती है। मोदी के पास काशी का इतिहास-ज्ञान है नहीं, विशेषकर काशी की वास्तुकला के बोध से तो वह बिलकुल परे हैं। उन्होंने अगर विश्वनाथ कॉरिडोर बनाने का फ़ैसला लेने के पहले होमवर्क कर लिया होता, विशेषकर काशी के निर्माण का काल, काशी की बनावट, जिसमें मुख्य रूप से जल-संरक्षण, मल-निस्तारण और थल की संरचना आती है तो आज यह स्थिति न बनती। मोदी की पहली दिक़्क़त है उनका एकाधिकारवादी दृष्टिकोण, जो दूसरे से निहायत परहेज़ी है। राजनीति में यह घातक माना जाता है। दूसरे नम्बर पर आती है नौकरशाही। पिछले कुछ दिनों से नौकरशाही ग़रीब की लुगाई बन गई है। इस नौकरशाही के पास ताल-तिकड़म, जालबट्टा और लफड़झंडुसी का एक ऐसा मिज़ाज है जिसने उसे 'हाँ हुज़ूर' बना कर छोड़ दिया है। उससे यह उम्मीद करना बेकार है कि वह सियासत के तुगलकी फ़रमान को रोक कर हुकूमत को आगाह कर सके और कह सके कि सरकार यह ऐसा है, इसे दुरुस्त कर लें। 19 77 के बाद से आई यह नौकरशाही सत्ता और संतति के महफ़ूज़ मुस्तक़बिल की आकांक्षा लिए ज़िंदगी बसर कर रही है।
तीसरी सीढ़ी पर अवाम है। 1974 के बाद जनमन पंगु हो चुका है और वह अनुदान भोगी की श्रेणी में आकर जम गया है। उसमें बदलाव की आकांक्षा ही मर चुकी है।
चलिए, काशी पर आने के पहले संक्षेप में सियासत में आए बड़े बदलाव पर एक नज़र। 1977 भारतीय राजनीति का टर्निंग प्वाइंट है, जब पुरुषार्थ की राजनीति घूम कर जरायमपेशे को ओढ़ कर इतराने लगती है, बंदूक और संदूक स्थापित मान्यता ले लेते हैं (संसद और विधानसभाओं के आँकड़े देख लीजिए, हमारे प्रतिनिधि कौन हैं)। इतने सारे पेंचों में फँसी काशी उजाड़ हो रही है।
काशी का मायने क्या है?
काशी देश की ही नहीं, दुनिया की सबसे पुरानी और जीवित बची हुई मानव बस्ती है। बाद की बाक़ी सब बस्तियाँ उजड़ीं या उजाड़ दी गईं। कुछ को प्रकृति ने ख़ुद उजाड़ दिया, अनेक बस्तियाँ ऐसी रहीं जिन्हें विदेशी लुटेरों ने तबाह किया लेकिन काशी अपनी रौ में आबाद रही, अपनी पुरानी तमीज़ व तहज़ीब के साथ। क्यों और कैसे? यह जानने के लिए समूचा विश्व परेशान है, चुनांचे वह चल के काशी आता है इसे देखने। उन्हीं ख़ूबियों को यह सरकार मिटा रही है!
गली तोड़ कर कॉरिडोर बनेगा, क्यों?
इसका जवाब न बनारस दे रहा है, न सरकार। काशी दुनिया की अकेली एक ऐसी आबादी है जो गलियों में रहती है। यहाँ आदिम सभ्यता के सबूत आज भी मौजूद मिलते हैं कि गज़ भर चौड़ी गली से होकर चलने में कोई यंत्र मददगार नहीं हो सकता। यह 'पैदल पथ' की आदिम सभ्यता है जो बनारस में आज भी ज़िंदा है। गंगा के किनारे आबाद यह बस्ती चालीस कोस की यात्रा पैदल कर लेती है गलियों में। दुनिया यह गली देखने आती थी, जिसे यह सरकार तोड़ कर 'फ़ोर लेन' बना रही है।
कम अक़ल सरकारी कारकुनों! कम्पटीशन से निकल कर ओहदे पर आए हो, क्यों नहीं मोदी को समझाया कि हुज़ूर काशी दुनिया की अकेली बस्ती है जिसे कोई कितना भी निर्दयी लुटेरा रहा हो, इस आबादी को लूटना तो दूर अंदर प्रवेश तक नहीं कर पाया।
बनारस भांग घोंट कर पान दबाए मस्ती में गमछा पहने अड़ी पर बैठ कर कजरी सुनता रहा, आक्रमणकारियों से इस मस्ती की हिफ़ाज़त कोई और नहीं कर रहा था। इस बस्ती की हिफ़ाज़त की गारंटी ये गलियाँ ही कर रही थीं और आज भी कर रही हैं। आप उसे तोड़ रहे हैं।
- हुज़ूर काशी देखिए। सियासत की नज़र से नहीं, खोजी कुतूहल की नज़र से झाँकिए। घुस जाइए किसी गली में। डेढ़ फीट चौड़ी गली में किसी 'गुरु' का साँकल खटकाइए, दरवाज़ा खुलेगा। यहाँ का मुख्य दरवाज़ा पाँच फीट ऊँचा भी नहीं होता, आपको झुक कर अंदर जाना होगा। अंदर पूरा फुटबॉल का मैदान मिलेगा। उस मैदान में कुआँ, नीम का पेड़, फूलों के गाछ, फिर हवेली। इस काशी को कौन लूट सकता है? सिवाय आढ़तियों के?