इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जैसे प्रगतिशील वामपंथी शायर की उस नज़्म को, जो प्रतिरोध के एक सार्वभौमिक स्वर का दर्जा पा चुकी है, मज़हबी चश्मे से देखा जाए और उस पर हिन्दू विरोधी या इसलाम परस्त होने का आरोप लगा दिया जाए। सिर्फ़ इस वजह से कि उसमें ख़ुदा, क़ाबा, बुत जैसे शब्द रूपक के तौर पर इस्तेमाल किये गये हैं।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की बेहद मशहूर इन्क़लाबी रचना 'हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे' फ़िलहाल नागरिकता क़ानून, एनआरसी और एनपीआर के मुद्दे पर चल रहे देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों के बीच अब हिंदू-मुसलमान के खेल के लपेटे में आ गई है। कानपुर आईआईटी में इस पर जाँच बिठा दी गई है। आरोप है कि यह हिंदू विरोधी है। कानपुर आईआईटी के छात्रों ने नागरिकता क़ानून के मुद्दे पर विरोध-प्रदर्शन के दौरान फ़ैज़ की इस कविता का इस्तेमाल किया था।
यह अफ़सोसजनक और शर्मनाक है। यह इस देश के एक उच्च शिक्षा संस्थान के प्रशासकों की बुद्धि का स्तर दिखाता है। और यह इस चिंताजनक स्थिति की एक और बानगी भी है कि सांप्रदायिक सोच के चलते हमारी सार्वजनिक मेधा किस क़दर कुंद हो चुकी है कि कविता, शायरी, सिनेमा, तसवीरों, गानों, ग़ज़लों और नारों को हम अपनी आस्थाओं और अस्मिताओं पर हमले और चुनौती की तरह देखने लगे हैं।
फ़ैज़ की इस नज़्म के बारे में धार्मिक आधार पर राय बनाने से पहले बेहतर है कि इसे पूरा पढ़ा जाए और समझा जाए।
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल[1] में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां [2]
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महक़ूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम [3]
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर [4] भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
(1- सनातन पन्ना, 2- घने पहाड़, 3- पवित्रता या ईश्वर से वियोग, 4- देखने वाला)
इस नज़्म की ऐतिहासिक लोकप्रियता का क़िस्सा पाकिस्तान के सैनिक प्रशासक ज़ियाउल हक़ के शासन काल से जुड़ा हुआ है जो अब काफ़ी मशहूर हो चुका है। ज़ियाउल हक़ के ज़माने में फ़ैज़ पाकिस्तान से बाहर बेरूत में निर्वासित जीवन बिता रहे थे। ज़ियाउल हक़ ने एक फ़रमान के ज़रिये पाकिस्तान में औरतों के साड़ी पहनने पर पाबंदी लगा दी थी। तब पाकिस्तान की मशहूर गायिका इक़बाल बानो ने प्रतिरोध स्वरूप काली साड़ी पहन कर इस नज़्म को स्टेडियम में पचास हज़ार की भीड़ की मौजूदगी में गाया था। वह सब एक रोमांचक इतिहास बन चुका है।
भारत में मौजूदा नागरिकता क़ानून विरोधी आंदोलन के दौरान फ़ैज़ के नग़्मे गूँज रहे हों तो इसमें ताज्जुब क्यों होना चाहिए। लेकिन चूँकि इस प्रतिरोध को किसी न किसी तरह सांप्रदायिक क़रार देने से इसकी ताक़त कम होती है और सरकार को फ़ायदा पहुँचता है इसलिए ऐसी कोशिशें भी तेज़ हो गई हैं। कानपुर आईआईटी की घटना उसी तरफ़ इशारा करती है।
प्रतिरोध की आवाज़ बन चुके फ़ैज़ जैसे महान शायर से धार्मिक प्रतीकों के संकुचित अर्थों में इस्तेमाल की उम्मीद करना उनके साथ अन्याय होगा।
हालाँकि ईमानदारी की बात तो यह है कि अर्ज़ ए ख़ुदा, क़ाबा से बुत हटवाने और 'बस नाम रहेगा अल्लाह का' के प्रतीक इसलामी ही हैं, इसे मानने में संकोच नहीं करना चाहिए। अगर सिर्फ़ इन शब्दों के आधार पर देखेंगे-परखेंगे तो इसमें मुसलिम परस्ती दिखेगी। लेकिन यह शायर की सोच का नहीं हमारी सीमित समझ और तंग नज़र का दोष होगा। क्योंकि फ़ैज़ इस नज़्म में अनलहक़ के सूफ़ी नारे को भी शामिल करते हैं। अनलहक़ का मतलब होता है - मैं ही ख़ुदा हूँ। संस्कृत के अहं ब्रह्मास्मि की तरह।
अब इस अनलहक़ की वजह से इस नज़्म को एक व्यापक जनवादी स्वरूप मिल जाता है और यह देश, काल पात्र की सीमाओं से बाहर जाकर पूरी दुनिया में आम जनता के प्रतिरोध का प्रतिनिधि स्वर बन जाती है। फिर तख़्त गिराने और ताज उछालने के मायने साफ़ हो जाते हैं।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ भारतीय उपमहाद्वीप की उन बुलंद आवाज़ों में से हैं जिन्होंने प्रेम के साथ-साथ विद्रोह की भावना को भी खुल कर, बिना डरे अभिव्यक्त किया है। लोकतंत्र के सजग प्रहरी की तरह। फ़ैज़ 1911 में अविभाजित हिंदुस्तान में पैदा हुए थे। जब भारत और पाकिस्तान का बँटवारा हुआ तो आज़ादी के जश्न के बीच फ़ैज़ ही थे जिन्होंने अपनी नज़्म के ज़रिये अपनी उदासी जताई थी जो कहीं न कहीं उस दौर में गाँधी के अकेलेपन और मोहभंग से भी जुड़ती दिखती है।
ये दाग़ दाग़-उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जाके रुकेगा सफ़ीना-ए-ग़मे-दिल
फ़ैज़ अपने देश पाकिस्तान में जेल में रहे, निर्वासित जीवन भी बिताया। दमन और तानाशाही का चेहरा अलग-अलग भौगोलिक और सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों के होते हुए भी एक जैसा होता है। यह आकस्मिक नहीं है कि उनकी शायरी में दर्द और तनहाई का ज़िक्र बार-बार बेहद असरदार तरीके़ से आता है और उनकी अभिव्यक्तियाँ भोगे हुए यथार्थ के कारण निजी न रहकर सार्वजनिक, सार्वभौमिक और सार्वकालिक हो जाती हैं। और पीढ़ियों के अंतर के बावजूद आम आदमी की बग़ावत की आवाज़ बन जाती हैं और उन्हें सत्ता के ख़िलाफ़ लामबंद होने की ताक़त देती हैं-
निसार मैं तेरी गलियों के ए वतन, कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जां बचा के चले
दमनकारी सत्ता हर जगह सबसे पहले अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलती है। यह सब सीधे तानाशाही तरीक़ों से भी होता है और लोकतांत्रिक मुखौटे की आड़ में भी।
इंदिरा गाँधी ने स्वतंत्र अभिव्यक्तिों पर अंकुश लगाने का जो काम इमरजेंसी लगाकर किया, उसी तरह की नीतियों के आरोप वर्तमान बीजेपी सरकार पर लग रहे हैं जिसे सरकार के आलोचक बुद्धिजीवी और राजनैतिक विरोधी अघोषित आपातकाल भी कह रहे हैं। ऐसे में बोलने की आज़ादी की पुरज़ोर वकालत करने वाले फ़ैज़ की शायरी बेहद प्रासंगिक, अपनी और ज़रूरी लगने लगती है। फ़ैज़ बोलने को ज़िंदा होने का सबूत मानते हैं इसलिए चुप्पी के ख़िलाफ़ खुलकर आह्वान करते हैं-
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बां की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले
जो भी, कहीं भी दुनिया को बदलने का सपना देखते हैं, अपने हालात से बग़ावत कर रहे हैं, उनके लिए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरी लड़ने का एक हथियार भी है और रास्ता दिखाने वाली एक मशाल भी। इस अर्थ में फ़ैज़ सिर्फ़ एक शायर नहीं हैं, एक विश्व नागरिक हैं। प्रेम और विद्रोह की निरंतर गूँजती अभिव्यक्ति के साथ-
तुम मेरे पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
जब कोई बात बनाए न बने
जब न कोई बात चले
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी मातमी सुनसान, सियाह रात चले
पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो
वह फ़ैज़ थे जिनका ज़िक्र गुरुदत्त की फ़िल्म प्यासा के शायर नायक के हवाले से आता है। फ़ैज़ की शायरी को इस्माइल मर्चेंट ने अपनी फ़िल्म मुहाफ़िज़ में बहुत प्रभावी तरीक़े से इस्तेमाल किया है। केंद्रीय चरित्र नूर शाहजहांनाबादी के ज़रिये, जिसका किरदार शशि कपूर ने निभाया है, दरअसल फ़ैज़ की ही शायरी सामने आती है। कुछ साल पहले विशाल भारद्वाज की फ़िल्म हैदर में एक महत्वपूर्ण कश्मीरी चरित्र को फ़ैज़ की वही ग़ज़ल गाते दिखाया गया है जिसे मेहंदी हसन की आवाज़ में काफ़ी सुना और पसंद किया गया है- गुलों में रंग भरे बादे नौबहार चले। हम देख सकते हैं कि प्यासा से लेकर हैदर तक के लगभग साठ साल के अंतराल के बावजूद फ़ैज़ की शायरी की सामयिकता की चमक लोकप्रिय सिनेमा के लिए मुफ़ीद साबित हुई है।