अंग्रेज़ी के आगे प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री दब्बू साबित हुए, हिंदी कैसे बने राष्ट्रभाषा?

10:47 am Jul 20, 2020 | डॉ. वेद प्रताप वैदिक - सत्य हिन्दी

भारत में उत्तर प्रदेश हिंदी का सबसे बड़ा गढ़ है लेकिन देखिए कि हिंदी की वहाँ कैसी दुर्दशा है। इस साल दसवीं और बारहवीं कक्षा के 23 लाख विद्यार्थियों में से लगभग 8 लाख विद्यार्थी हिंदी में अनुतीर्ण हो गए। डूब गए। जो पार लगे, उनमें से भी ज़्यादातर किसी तरह बच निकले। प्रथम श्रेणी में पार हुए छात्रों की संख्या भी लाखों में नहीं है। यह वह प्रदेश है, जिसने हिंदी के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकारों और देश के सर्वाधिक प्रधानमंत्रियों को जन्म दिया है।

हिंदी को महर्षि दयानंद ‘आर्यभाषा’ और महात्मा गाँधी ‘राष्ट्रभाषा’ कहते थे। नेहरु ने उसे ‘राजभाषा’ का दर्जा दे दिया लेकिन 73 साल की आज़ादी के बाद हिंदी के तीनों नामों का हश्र क्या हुआ ‘आर्यभाषा’ तो बन गई ‘अनार्य भाषा’ याने अनाड़ियों की भाषा! कम पढ़े-लिखे, गांवदी, पिछड़े, ग़रीब-गुरबों की भाषा। ‘राष्ट्रभाषा’ आप किसे कहेंगे यह ऐसी राष्ट्रभाषा है, जिसका प्रयोग न तो राष्ट्र के उच्च न्यायालयों में होता है और न ही विश्वविद्यालयों की ऊँची पढ़ाई में होता है। राष्ट्रभाषा के ज़रिए आप न तो क़ानून, न चिकित्सा, न विज्ञान पढ़ सकते हैं और न ही कोई अनुसंधान कर सकते हैं। 

आज से 55 साल पहले मैंने जब ‘इंडियन स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़’ में अपना पीएच.डी. का शोधग्रंथ हिंदी में लिखने का आग्रह किया था तो संसद में ज़बर्दस्त हंगामा हो गया था। मुझे ‘स्कूल’ से निकाल बाहर किया गया। संसद और प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद मुझे वापस लिया गया लेकिन आज तक कितने पीएच.डी. भारतीय भाषाओं के माध्यम से हुए जहाँ तक ‘राजभाषा’ का सवाल है, आज भी देश में राज-काज के सारे महत्वपूर्ण काम अंग्रेज़ी में होते हैं। संसद और विधानसभाओं के क़ानून क्या हिंदी में बनते हैं सरकारी नौकरशाह क्या अपनी रपटें, टिप्पणियाँ, अभिमत, आदेश वगैरह अंग्रेज़ी में नहीं लिखते हैं

सच्चाई तो यह है कि अंग्रेज़ी आज भी भारत की राजभाषा है। अंग्रेज़ी की इस भूतनी के आगे हमारे सारे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री दब्बू साबित हुए हैं। ये स्वतंत्र भारत के ग़ुलाम नेता हैं। इन बेचारों को पता ही नहीं कि कोई राष्ट्र संपन्न, शक्तिशाली और सुशिक्षित कैसे बनता है।

दुनिया का कोई भी राष्ट्र विदेशी भाषा के ज़रिए संपन्न और महाशक्ति नहीं बना है। जिस देश में किसी विदेशी भाषा का वर्चस्व होगा, उसके छात्र नकलची ही बने रहेंगे। उनकी मौलिकता लंगड़ाती रहेगी। जो देश तीन-चार सौ साल पहले तक विश्व-व्यापार में सर्वप्रथम था, जिस देश के नालंदा और तक्षशिला- जैसे विश्वविद्यालयों में सारी दुनिया के छात्र पढ़ने आते थे और जो देश अपने आप को विश्व-गुरु कहता था, आज उस देश के लाखों छात्रों का प्रतिभा-पलायन क्यों हो जाता है क्योंकि उनकी रेल को बचपन से ही अंग्रेज़ी की पटरी पर चला दिया जाता है। 

मैं विदेशी भाषाएँ सीखने का विरोधी बिल्कुल नहीं हूँ। मैंने स्वयं अंग्रेज़ी के अलावा रुसी, फारसी और जर्मन भाषाएँ सीखी हैं लेकिन अपने प्रत्येक काम में मैंने अपनी मातृभाषा हिंदी को प्राथमिकता दी है। सभी प्रांतों में यदि शिक्षा का अनिवार्य माध्यम मातृभाषा हो तो हिंदी आर्यभाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा अपने आप बन जाएगी।