हिंदी दिवस पर मुझे हिंदी की बात करना चाहिए लेकिन मै जाबूझकर हिन्दुस्तान की बात कर रहा हूं। उसी हिन्दुस्तान की जो भारत भी है और इंडिया भी। इस हिन्दुस्तान में हिंदी के मुकाबले हिन्दुस्तानी सियासत की बात करना जरूरी है क्योंकि हिन्दुस्तान की सियासत रंजो-गम से ऊपर उठ चुकी है । आज की सियासत केवल जश्न मनाना जानती है। जश्न में डूबी सियासत को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कहाँ उसके जवान मारे जा रहे हैं और कहाँ लोकतंत्र कराह रहा है।
आप जब ये आलेख पढ़ रहे होंगे उससे कोई बारह घंटे पहले इसी हिंदुस्तान में जब केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर में आतंकियों ने सेना के एक मेजर, एक कर्नल और पुलिस के एक डीएसपी की जान ले ली लेकिन उसी वक्त दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय में जी-20 की कामयाबी के लिये माननीय प्रधानमंत्री जी का अभिनंदन हो रहा था । फुलझड़ियां चलाई जा रही थीं। हृदयहीन सियासत के लिए बहादुर जवानों की शहादत का कोई मतलब नहीं है। फ़ौजी और पुलिस वाले तो नौकरी करने आते ही शायद शहादत देने के लिए है। उनके लिए क्या आंसू बहाना ?
कायदे से मुझ जैसे अदना से आदमी को इस तरीके से किसी के जश्न को लेकर सवाल करने का हक नहीं है। इस देश में सरकार सवाल करने के अधिकार को बहुत पहले या तो छीन चुकी है या फिर उसे सीमित कर चुकी है। यहां तक हिन्दुस्तान की जमीन पर हिन्दुस्तान के फिलवक्त के सबसे बड़े और भरोसेमंद दोस्त अमेरिका को भी पत्रकारों से बतियाने की इजाजत नहीं दी जाती । मित्र देश के राष्ट्रपति को दूसरे देश में जाकर अपने मन की बात प्रेस से साझा करना पड़ती है। मित्र देश के राष्ट्रपति के पास मन की बात करने के लिए आकाशवाणी तो थी नहीं।
पूरे देश को इस विषय पर बात करना चाहिए क्योंकि यदि देश की सियासत हृदयहीन होगी तो नौकरशाही भी वैसी ही हो जाएगी और भुगतना पडेगा जनता को। जनता पहले से ही बहुत कुछ भुगत रही है। आगे भी उसे बहुत कुछ भुगतने के लिए कमर कसकर तैयार रहना चाहिए। दरअसल इस समय देश रहस्यवाद से घिरा है। किसी को नहीं पता कि देश में अगले पल क्या होगा ? कोई नहीं जानता कि संसद के विशेष सत्र की दूसरे दिन की कार्यसूची क्या है ? किसी को जानने की क्या जरूरत है ? जो होगा सो सामने आ ही जाएगा।
देश में हिंदी दिवस पर हिंदी की बात करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि देश हिंदी का कोई कल्याण नहीं कर सकता। देश की सरकार के पास हिंदी का कल्याण करने के अलावा बहुत से दूसरे काम है। हिंदी का कल्याण खुद हिंदी कर लेगी। यूं भी हिंदी दिवस मना लेने से हिंदी का क्या कल्याण हो सकता है ? हम पिछले 70 साल से हिंदी दिवस मना रहे हैं लेकिन हिंदी का कल्याण नहीं कर सका। बीते 50 साल को छोड़िये पिछले 9 साल के मोदी युग में भी हिंदी जहाँ थी, वहीं खड़ी है। सरकार को गगनचुम्बी प्रतिमाएं बनवाने से फुरसत मिले तो सरकार हिंदी के बारे में सोचे ।
सरकार एक देश एक चुनाव के बारे में सोच सकती है । एक देश एक नागरिक संहिता के बारे में सोच सकती है लेकिन एक देश, एक भाषा के बारे में नहीं सोच सकती। हिंदी कोई संविधान की धारा 370 नहीं है जो संसद की सहमति से उसे हटा दिया जाये । हिंदी एक भाषा है, भाषा को कोई सियासी दल अपने चुनावी एजेंडे में शामिल नहीं करना चाहता । क्योंकि उसे एक देश एक चुनाव तो मजबूरी में चाहिए, एक देश एक भाषा नहीं।
हिंदी कोई धर्म की तरह सनातन थोड़े ही है ! हिंदी को लेकर मै कभी परेशान नहीं होता क्योंकि जिसकी अटकेगी वो हिंदी सीखेगा, हिंदी बोलेगा, लिखेगा, पढ़ेगा । हिंदी का बाजार सबसे बड़ा बाजार है। दुश्मन भी हिंदी बोलते हैं और दोस्त भी। आपने ' हिंदी-चीनी भाई -भाई ' का नारा सुना होगा। आजतक किसी ने ' अंग्रजी -हिंदी भाई-भाई ' का नारा नहीं लगाया। हम धर्म पर गर्व करते है लेकिन भाषा पर नही। हमें गर्वोन्नत करने के लिए भाषा की नहीं भाषणों की जरूरत है। भाषण ' टेलीप्रॉम्प्टर ' से दिया जा सकता है ।
हकीकत ये है कि देश हिंदी से चल रहा है, हिन्दुस्तानियों से चल रहा है । एक देश ,एक चुनाव या एक देश, एक नागरिक संहिता से नहीं। इस देश को ऐसे ही चलने देना चाहिये । यहां वेश -भूषा और भाषा के झगड़ों के लिए कोई जगह नहीं है । गनीमत है कि हमारा देश हमारा देश है, कनाडा नहीं । कनाडा की जनता ने अपने पंत प्रधान जस्टिन टूडो के लत्ते ले लिए क्योंकि वे जी -20 के सम्मेलन में अपनी विदेश नीति की मिटटी कुटवा कर लौटे। कनाडा में पंत प्रधान की आलोचना को राष्ट्रद्रोह नहीं माना जाता । हमारे यहां माना जाता है । इसीलिए हमारे यहां चाहे मीडिया हो या राजनीतिक कार्यकर्ता, वे सब समवेत स्वर में पंत प्रधान का अभिन्दन करते हैं। फुलझड़ी चलाते है। स्तुतिगान करते हैं। हमें लग रहा है कि हमने 'लंका जीत ली '। हमने ' दुनिया मुठ्ठी में कर ली ' जबकि हकीकत ये है कि हमने अपनी आदत के मुताबिक जी-20 के समूह को भी दो फांक कर दिया । कुछ चीन के साथ खड़े हैं तो कुछ चीन के खिलाफ ।
हम बांटने में सिद्धहस्त है। हम समाज को बाँट सकते हैं, हम सियासत को बाँट सकते हैं।' बांटो और राज करो' के मामले में अंग्रेज भी हमारा मुकाबला नहीं कर सकते। यदि ये हमारी विदेश नीति की सफलता है तो मुझे कुछ नहीं कहना।
(राकेश अचल के फ़ेसबुक पेज से)