किसान आंदोलन पर आज सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई है। ज्यादातर लोग आशंकित हैं। उन्हें डर है कि सुप्रीम कोर्ट कोई ऐसी टिप्पणी ना कर दे जिससे किसान आंदोलन को कोई धक्का पहुँचे। कोरोना महामारी या बर्ड फ्लू के भय के बहाने क्या सुप्रीम कोर्ट किसानों को सड़क खाली करने के लिए कह सकता है?
दरअसल, कोरोना संक्रमण के भय के कारण दिल्ली के शाहीन बाग सहित लखनऊ आदि स्थानों पर सीएए-एनआरसी के खिलाफ चल रहे आंदोलनों को खत्म कर दिया गया। शाहीन बाग आंदोलन के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आंदोलन के लिए सार्वजनिक स्थलों को बाधित नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने एक समिति गठित करके आंदोलन खत्म करने के लिए बीच का कोई रास्ता निकालने का आग्रह किया था।
हठ छोड़े सरकार
यह सही है कि आंदोलन के कारण आम लोगों को कोई तकलीफ नहीं हो। कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी भी प्रशासन की होती है। लेकिन एक स्वस्थ लोकतंत्र में नागरिकों को विरोध और आंदोलन करने का अधिकार है। यह भी जरूरी है कि सरकार अपने नागरिकों को सुने। उनकी माँगों पर गौर करे और परेशानियों को दूर करे। लेकिन आंदोलन को बदनाम करके खारिज करना लोकतंत्र के कतई हित में नहीं है।
यहाँ एक सवाल पूछना ज़रूरी है। शाहीन बाग आंदोलन और किसान आंदोलन से आम लोगों को होने वाली परेशानी की बात करने वाले लोग कौन हैं?
देश के अधिकांश लोग हमेशा सरकार के मनमाने रवैये की आलोचना करते हैं। वे आंदोलनों के मार्फत देश में लोकतंत्र को फलते-फूलते देखना चाहते हैं। लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर आंदोलनों का समर्थन करते हैं। यूपीए सरकार के दौरान अप्रैल 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए अन्ना आंदोलन में हजारों-लाखों लोग जुटे थे।
आंदोलन को क्यों कर रहे बदनाम
इसी तरह से 16 दिसंबर 2012 को निर्भया बलात्कार केस में लोगों ने सड़कों पर प्रदर्शन किए। सोशल मीडिया पर भी लोगों ने विरोध दर्ज किया। तब आंदोलन करने वालों को देशद्रोही और गद्दार नहीं कहा गया। यूपीए सरकार ने अन्ना आंदोलन को दबाने की कोशिश ज़रूर की, लेकिन सरकार के किसी भी प्रतिनिधि ने आंदोलनकारियों को आतंकवादी या 'टुकड़े-टुकड़े गैंग' नहीं कहा।
किसान आंदोलन पर देखिए वीडियो-
इसी तरह निर्भया केस में सरकार ने झुकते हुए बलात्कार पीड़िता को उपचार के लिए सिंगापुर भेजा। निर्भया के निधन के बाद सरकार पर और दबाव बढ़ा तो बलात्कार कानून में समुचित बदलाव किए गए। स्त्रियों की सुरक्षा के लिए एक नया पोस्को एक्ट 2012 बनाया गया। लेकिन पिछले छह साल में किसी भी जनआंदोलन को सबसे पहले बदनाम करके खारिज करने की कोशिश होती है। आंदोलन करने वालों को देशद्रोही, गद्दार और आतंकवादी करार दिया जाता है। छह साल में आए इस परिवर्तन को बढ़ाने में मीडिया की भी बड़ी भूमिका है।
यूपीए सरकार के दौरान मीडिया ने बढ़-चढ़कर रिपोर्टिंग की। सरकार को घेरा। मीडिया और सोशल मीडिया के दबाव का ही नतीजा था कि सरकार को झुकना पड़ा। लेकिन आज का मीडिया सरकार की भाषा बोल रहा है।
तमाम चैनलों और अखबारों में ऐसी हेडलाइन लगाई जाती हैं जिससे आंदोलनकारी पहले ही ग़लत साबित हो जाते हैं। साथ ही सरकार के प्रवक्ता कई दफा आंदोलनकारियों पर आपत्तिजनक और अभद्र टिप्पणियां करते हैं। भाजपा और उसके तमाम संगठनों के छोटे-बड़े नेता आंदोलनकारियों के ख़िलाफ़ बोलते हुए सारी मर्यादाएं लांघ जाते हैं।
शाहीन बाग को किया बदनाम
मसलन, शाहीन बाग आंदोलन को आतंकवादी और पाकिस्तानी कहा गया। शाहीन बाग की औरतों को पांच-पांच सौ रुपये में बिकने वाली बताया गया। शादीशुदा सफूरा जगरर के बारे में बेहद शर्मनाक बातें कही गईं। सोशल मीडिया पर सफूरा की प्रेगनेंसी को नाजायज कहकर प्रचारित किया गया।
शाहीन बाग आंदोलन के बारे में यह भी कहा गया कि यहाँ लोग बिरयानी खाने के लिए आ रहे हैं। किसी भी आंदोलन को लेफ़्टिस्ट या पाकिस्तानी बता देना अब आम बात हो गई है। कभी कहा जाता है कि पाकिस्तान और चीन से आंदोलन के लिए फंडिंग हो रही है।
किसान आंदोलन को शुरुआत से ही कलंकित करने की कोशिश की गई। आंदोलन में शरीक पंजाब के किसानों को खालिस्तानी बताया गया। फिर उनके खानपान की फोटो वायरल करते हुए कहा गया कि यहां लोग पिकनिक मनाने आए हैं। पिज्जा और हलवा खा रहे हैं।
बीजेपी नेताओं द्वारा लगातार अभद्र और अशालीन टिप्पणियाँ की जा रही हैं। इन्हीं टिप्पणियों को लेकर किसान सुप्रीम कोर्ट गए हैं। क्या सुप्रीम कोर्ट सरकार के प्रतिनिधियों द्वारा की जा रही ओछी टिप्पणियों पर रोक लगाएगा?
आंदोलनकारियों को देशद्रोही और पाकिस्तानी कहने वालों पर क्या सुप्रीम कोर्ट कानूनी कार्यवाही करने का आदेश देगा? आज की सुनवाई में नागरिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की आजादी पर सुप्रीम कोर्ट के रुख का पता चलेगा। दरअसल, किसान आंदोलन से भारतीय लोकतंत्र की दशा और दिशा तय होने जा रही है। इस मसले पर होने वाली न्यायिक टिप्पणी भारतीय लोकतंत्र के भविष्य की रूपरेखा ही नहीं तय करेगी बल्कि यह भी सुनिश्चित होगा कि सरकार की नीतियों के विरोध में आंदोलन करने के मायने क्या होंगे।
न्यायपालिका से है उम्मीद
पिछले छह सालों में भारतीय लोकतंत्र में कई दरारें आ चुकी हैं। लोकतांत्रिक संस्थाएं और संसदीय परंपराएं कमजोर हुई हैं। चौथा खंभा मीडिया पूरी तरह से ढह चुका है। इस दौर में निश्चित तौर पर लोगों की उम्मीदें न्यायपालिका पर टिकी हैं। लेकिन कुछ समय से ऐसा लग रहा है कि सर्वोच्च न्यायपालिका में भी सब कुछ ठीक ठाक नहीं है।
12 जनवरी 2018 को न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों ने प्रेस कांफ्रेंस करके सबको चौंका दिया था। उनका कहना था कि 'अगर सुप्रीम कोर्ट को नहीं बचाया गया तो लोकतंत्र नाकाम हो जाएगा।' यह सीधे तौर पर सरकार द्वारा न्यायपालिका में हस्तक्षेप की ओर इशारा था। इनमें शामिल जस्टिस रंजन गोगोई बाद में भारत के मुख्य न्यायाधीश बने। लेकिन सेवानिवृत्त होने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने रंजन गोगोई को राज्यसभा में मनोनीत किया। तब सवाल उठता है कि ऐसे मनोनयन से न्यायपालिका के फैसलों पर कोई असर होता है या नहीं।
रंजन गोगोई ने अयोध्या भूमि विवाद, राफ़ेल विमान सौदा और एनआरसी जैसे बेहद महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई करने वाली पीठ की अध्यक्षता की थी। इस तरह की नियुक्तियों पर और बहुत सारे न्यायिक फैसलों से बौद्धिक समाज को निराशा हुई है।
धारा 370 जैसे कई बहुत जरूरी मामलों पर सुनवाई में देरी हो रही है लेकिन रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्णब गोस्वामी के मामले में त्वरित सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत दे दी। इससे भी न्यायपालिका पर सवाल उठ रहे हैं और उसके फैसलों पर संदेह होता है।
किसानों और सरकार के बीच आठ दौर की बेनतीजा बातचीत के बाद कृषि मंत्री द्वारा किसानों को सुप्रीम कोर्ट जाने की सलाह देना भी संदेह को बढ़ाता है। इससे लगता है कि दाल में कुछ काला है। एक चुनी हुई सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों को रद्द कराने के लिए किसानों को सुप्रीम कोर्ट क्यों जाना चाहिए?