क्या अहिंसा की रक्षा के लिए गांधी की हत्या होती रहेगी?
इस लेखक की दृष्टि से नाथूराम गोडसे ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या नहीं की थी। दोनों के बीच व्यक्तिगत दुश्मनी जैसे रिश्ते नहीं थे, और न ही कोई सम्पति विवाद था। फिर भी गोडसे ने आज़ से 77 वर्ष पहले मोहनदास करमचंद गांधी उर्फ़ बापू पर तीन गोलियां चला कर उनकी दैहिक भूमिका का पटाक्षेप कर दिया था। आख़िर क्यों? इस सवाल ने आज़ विकराल आकार ले लिया है।
कुछ रोज़ पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पूर्व सरकार्यवाह (2009- 2021) सुरेश “भैयाजी” जोशी की अहिंसा और हिंसा पर विवादास्पद टिप्पणी ने ‘आख़िर क्यों?’ सवाल को एक बार फिर से ज्वलंत बना दिया है। माननीय जोशी जी के मत में ‘अहिंसा की रक्षा व स्थापना’ के लिए कभी कभी ‘हिंसा’ का सहारा लेना पड़ता है। अर्थात हिंसा के माध्यम को अपनाना पड़ता है। उस समय हिंसा वैध और उपयुक्त रहती है। निश्चित ही, वर्तमान दौर में इस अवधारणा ने अहिंसा बनाम हिंसा के विमर्श को नए सिरे से खड़ा कर दिया है। सवाल यह है कि भारतीय समाज और राष्ट्र की अहिंसा को किस-किस से सम्भावी ख़तरा पैदा हो सकता है; मूलतः हिंसा आंतरिक और बाहरी होती है?
जहाँ तक बाहरी हिंसा का सवाल है, इसकी आशंका चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश से अधिक हो सकती है। पाकिस्तान– प्रायोजित आतंक का ख़तरा हमेशा बना रहता है। सरकार बाहरी आतंकी हिंसा से निपटने में सक्षम है, और वह सफलतापूर्वक इसे कुचल भी रही है। अब रह जाती है घरेलू हिंसा। इस हिंसा का संबंध माओवादियों, उत्तर-पूर्व जनजातीय हिंसा और अलगावादियों से है। इस हिंसा का भी शमन राज्य के विभिन्न सशस्त्र बल करते आ रहे हैं। देश में श्रमिक मिलिटेंट संघर्षों की कमर को तोड़ा जा चुका है। अलबत्ता, किसान शांतिपूर्वक संघर्ष ज़रूर कर रहे हैं। लेकिन, हिंसा से वे मीलों दूर हैं और गांधी जी के अहिंसक मार्ग पर चलते आ रहे हैं। तब किस दिशा से अहिंसा के लिए हिंसा का ख़तरा भैयाजी के मस्तिष्क में बना हुआ है?
सबसे पहले इस अवधारणा पर विचार करें कि क्या हिंसा से अहिंसा की स्थापना की जा सकती है? क्या अहिंसा के लिए हिंसा के पक्षधर गांधी थे? यह विश्व विदित है, बीसवीं सदी में गाँधी जी शांति और अहिंसा के सूत्रधार थे। फिर भी गोडसे ने उन्हें अपनी हिंसा का शिकार बनाया था। बीती सदी में ही गाँधी जी के अनुयायी अमेरिका के मार्टिन लूथर किंग जूनियर को भी हिंसक ढंग से मारा गया था। वे भी गाँधी मार्ग पर चलते हुए रंगभेद के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण व अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। क्या भैया जी जोशी को 1919 के जलियाँवाला कांड के नरसंहार को याद दिलाने की ज़रूरत है? उन्हें मालूम ही होगा कि अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में स्वतंत्रता सेनानी शांतिपूर्वक सभा कर रहे थे। फिर भी जनरल डायर ने उनपर गोलियों की बरसात की थी। बाग़ की सभा से किसकी शांति व अहिंसा को ख़तरा पैदा हो रहा था? भैया जी बताएं। जोशी जी यह भी बतलाएँ कि 19वीं सदी में अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन से किसकी अहिंसा को ख़तरा था और उनकी भी हत्या गोली मार कर की गई थी? वे तो सिर्फ अश्वेत मानवता को गुलामी से आजाद करा रहे थे। सदियों की दासता प्रथा को समाप्त कर रहे थे। फिर भी उन्हें हिंसा का शिकार होना पड़ा था। आख़िर क्यों?
जोशी जी, क्या आप हिटलर की हिंसा की तरफ भी ध्यान देंगे। पूछा जा सकता है कि हिटलर ने 60 लाख यहूदियों का नरसंहार किस अहिंसा की सत्ता की स्थापना के लिए किया था? क्या वे निहत्थे यहूदी हिंसक थे या अहिंसक? वे निश्चित ही शांतिप्रिय थे। फिर भी उन्हें गैस चैम्बरों में ठूंस-ठूंस कर मारा गया था। क्या उस महाविनाश को भी ‘कभी कभी हिंसा’ की श्रेणी में रख कर व्याख्यायित किया जाना चाहिए? क्या जोशी जी बतला सकते हैं कि पिछली ही सदी में दो महायुद्धों से कितनी अहिंसा व शांति स्थापित हो सकी है?
जापान के नगासाकी व हिरोशिमा नगरों पर अणुबम फेंकने और हज़ारों की मौत के बाद दुनिया में अहिंसा की स्थापना हो सकी है? क्या अब युद्ध नहीं हो रहे हैं?
दो-दो खाड़ी युद्ध हुए। पिछले ही दिनों इसराइल ने ग़ज़ा में 50 हज़ार से अधिक विधर्मी लोगों को मारा और क़रीब एक लाख लोग हताहत हुए हैं। इस ‘इसराइल की कभी कभी हिंसा’ को कैसे परिभाषित किया जाए? रूस -यूक्रेन जंग जारी है। वहां हिंसा से कौनसी अहिंसा की स्थापना की जा रही है? बारूद –सनी भूमि की कोख से यह सवाल तो उठता है।
महाकाव्य युगीन युद्ध (रामायण और महाभारत) के समय कहा जाता था कि धर्म व न्याय की स्थापना के लिए युद्ध अपरिहार्य है। क्या भारत में रावण और कौरवों के संहार के पश्चात धर्म व न्याय की स्थापना हो सकी है? क्या इस युग में हिंसा और अन्याय नहीं बढ़े हैं? क्या धर्म -मज़हब ‘कमोडिटी’ नहीं बन गया है? क्या धर्म को सत्ता प्राप्ति का माध्यम नहीं बनाया गया है? क्या ईरान में मज़हबी क्रांति व सत्ता की स्थापना के बावज़ूद वहां हिंसा जारी नहीं है? यही हालत अफगानिस्तान की है। तालिबानों ने इस्लामी राज स्थापित करने के लिए दो-दो बार हिंसा का सहारा लिया था। लेकिन, अहिंसा की स्थायी स्थापना नहीं हो सकी है। कट्टर इस्लामी राज्यपंथी अब भी जगह-जगह कहर बरपा रहे हैं। ईसा मसीह को सलीब पर लटकाया गया था। वे तो अहिंसा, शांति, करुणा और दया के पुंज थे। सलीब पर चढ़ा कर उनकी हत्या से कौनसी अहिंसा का राज स्थापित हो सका? ईसाइयों और मुस्लिमों के बीच जंग (क्रुसेड व जेहाद) चलती रही है। क्या जोशी जी, इस पर प्रकाश डालेंगे?
देश की आंतरिक शांति व अहिंसा को कौन तहस-नहस कर सकता है? भैया जी ने इस ख़तरे का खुलासा नहीं किया। ‘कभी-कभी हिंसा’ में काफी कुछ छुपा हुआ है। उनका अभिमत ऐसे समय में सामने आया है जब देश में चरम दक्षिण पंथ,हिंदुत्व व ध्रुवीकरण की आंधी, हिन्दू राष्ट्र, अखंड भारत, मंदिर-मस्जिद विवाद, लव-भूमि-वोट जिहाद, श्मसान बनाम कब्रिस्तान, वस्त्रों से पहचान, भीड़ हिंसा, गौ-रक्षक छापे, रोमियो विरोधी दस्ते, बुलडोज़र न्याय अभियान, समान नागरिक संहिता, धर्म परिवर्तन विरोधी क़ानून, रोहिंग्या मुस्लिम घुसपैठिये, बांग्लादेश में मंदिरों पर बहुसंख्यक मुसलमानों द्वारा हमले आदि का दौर-दौरा है। इसी दौर में देश के मुख्य अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय में ‘दोयम दर्ज़े’ के नागरिक होने के भाव भी पैदा होने लगे हैं। बेहतर रहता, अगर भैया जी जोशी इसका भी खुलासा कर देते कि किन लोगों के कारण हिन्दू धर्म, आध्यात्मिकता और अहिंसा संकटग्रस्त है।
अतः इन संकटों से देश को उबारने के लिए ‘कभी कभी हिंसा‘ का सहारा लेना पड़ता है या भविष्य में लेना पड़ेगा। माननीय जोशी जी, देश को 2002 में कभी- कभी रुपी हिंसा के वीभत्स दर्शन गुजरात में हो चुके हैं। इससे पहले अयोध्या में 6 दिसंबर,’92 और ‘93 में मुम्बई में भी हो चुके थे। पिछले ही दिनों संभल में भी हुए। विगत में देश को कभी -कभी साम्प्रदायिक हिंसा के दर्शन होते ही आये हैं। लेकिन, ‘कभी कभी हिंसा’ का शस्त्र चलाने के बावजूद, क्या देश में स्थायी शांति व अहिंसा के राज की स्थापना हो सकी है?
अब आरम्भ के सवाल की तरफ़ लौटते हैं। इस लेखक की दृष्टि में, महात्मा गांधी की शहादत में नाथूराम गोडसे केवल ‘निमित्त’ मात्र था। बापू की नृशंस हत्या की मूल अपराधी थी ‘सर्वसत्तावादी, जाति श्रेष्ठतावादी -शुद्धतावादी, सांस्कृतिक एकरूपता व वर्चस्ववादी, बहुसंख्यकवादी, एकतंत्र व अधिनायकवादी और मध्ययुगीन प्रजा मानसिकतावादी’ विचारधारा। क्या आज़ यह विचारधारा विभिन्न नक़ाबों में आक्रामकता के साथ उभरती हुई नजर नहीं आ रही है? क्या इससे बहु धर्मी -बहु भाषी लोकतंत्र व संविधान के लिए ख़तरा पैदा नहीं हो गया है? यही विचारधारा फिर से गांधी के बहुरंगी भारत की कल्पना की जघन्य हत्या कर सकती है! तब एक गोडसे निमित्त बना था, परन्तु इस दौर में निमित्त मात्र बनने के लिए हजारों नक़ाबधारी गोडसे तैयार हो गए हैं। क्या इन्हें भी अहिंसा की रक्षा के लिए ’कभी कभी हिंसा’ चाहिए? क्या गांधी की हत्या बार-बार होती रहेगी?