पश्चिम यूपी का किसान मोदी को क्यों शुक्रिया कह रहा है?

10:04 am Dec 09, 2020 | अनिल शुक्ल - सत्य हिन्दी

दिल्ली से सटे ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर धरने पर बैठे मेरठ के 70 वर्षीय किसान ने एनडीटीवी के संवाददाता से कहा - ‘हम मोदी जी के बड़े शुक्रगुज़ार हैं कि उन्होंने हिन्दू मुसलमान में बँट गए हम लोगों को इस आंदोलन के बहाने दोबारा जोड़ कर एक कर दिया।’

यह बयान अपने आप में पूरी कहानी कह गया। यह इस बात का सबूत दे गया कि किसान आंदोलन के चलते पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उन किसानों में एक नई राजनीतिक चेतना स्फुटित हुई है जो 2013 से अपने साझा 'किसान हितों' को भूलकर सांप्रदायिकता के बवंडर में घिर गए थे। इन 7 वर्षों (2013-2020) के बीच सम्प्रदायिकता के उन्माद ने 'प्रदेश' के इस पश्चिमी अंचल के समाज को हिंसा और घृणा में जिस तरह नष्ट किया, वह तो अपनी जगह है, उस किसान आंदोलन का कचूमर निकाल दिया था जो अपनी साझा संस्कृति और साझा विरासत के लिए पूरे उत्तर भारत में अपनी पहचान बना चुका था। 7 साल के सामाजिक एका का सन्नाटा अब आकर टूटा है। कृषि पर अध्यादेशों के बाद जब  पंजाब में किसानों ने आंदोलन की राह पकड़ी तब पश्चिमी यूपी में उससे जनित सामाजिक दबाव था जिसने नेतृत्व पर सांप्रदायिक सौहार्द खड़ा करने को मजबूर किया।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सामाजिक संरचना कुछ ऐसी है कि इसकी तुलना देश के अन्य हिस्सों से  (मेवात को छोड़कर) नहीं हो सकती। यहाँ मौजूद 4 प्रमुख कृषक जातियों (जाट, राजपूत, त्यागी और गुर्जर) के भीतर लम्बे समय से धार्मिक बँटवारा है। इन जातियों की 'खाप पंचायतें' भी दोनों धर्मावलम्बियों की संयुक्त 'पंचायतें' होती रही हैं। उदाहरण के तौर पर प्रख्यात किसान नेता महेंद्रसिंह टिकैत बालियान गोत्र के थे। अब इन बलियानों में हिन्दू बालियान (2/3) और मुसलिम बालियान (1/3) हैं। महेंद्रसिंह या उनके पूर्वज दोनों ही धर्मावलम्बियों के पंचायत 'बाप' (प्रमुख) होते आए हैं। राजपूतों में 'रांघड राजपूत' मुसलिम धर्मावलम्बी हैं और त्यागियों में महेश्वरे त्यागी मुसलिम धर्म के मानने वाले हैं। इस क्षेत्र में सांप्रदायिक उन्माद की अलख जगाकर बीजेपी सिर्फ़ अपना वोट बैंक ही नहीं खड़ा करना चाहती थी बल्कि वह सुनियोजित तरीक़े से किसान आंदोलन की कमर भी तोड़ डालना चाहती थी। ऐसा कर पाने में वह कामयाब रही भी।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश सूबे में किसान आंदोलनों का नेतृत्व करता रहा है। एक समय था जब बड़ी कृषि जोतों के मालिक ये किसान अपने हितों और राजनीतिक चेतना में उत्तर भारत में सबसे आगे रहे हैं। स्व० महेंद्रसिंह टिकैत के नेतृत्व में 1988 में कई दिनों तक 'बोट क्लब' मैदान पर चले 5 लाख से ज़्यादा किसानों के धरने ने राजीव गाँधी शासन की चूलें हिला दी थीं। सांप्रदायिक साझापन कैसे इस धरने और उनके संगठन की राजनीतिक अस्मिता को  प्रदर्शित करता था इसका अंदाज़ 'बोट क्लब' में उठने वाले उन 2 नारों से लगाया जा सकता है जिन्होंने राजधानी के बुद्धिजीवियों को भी हैरान कर रखा था। ये नारे थे- (1) हर-हर महादेव और (2) नारा-ए-तक़बीर -अल्लाहो अकबर! स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 'बोट क्लब' मैदान पर होने वाला इस क़िस्म का यह पहला ऐतिहासिक 'किसान प्रदर्शन' था। इसी प्रदर्शन के बाद से 'बोट क्लब' मैदान को प्रदर्शनों और धरनों के लिए हमेशा को बंद करके 'जंतर-मंतर' को चुना गया था।

आज़ादी के बाद से इस अवधारणा ने अपनी जगह बना ली थी कि देश में होने वाले सांप्रदायिक दंगों के केंद्र शहर होते हैं लेकिन 2013 से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुए दंगों ने इस मिथ को झुठला दिया। मुज़फ्फरनगर के ग्रामीण इलाक़ों में सितम्बर 2013 में हुए दंगों में बड़ी संख्या में लोगों की ह्त्या की गई थी।

मरने वालों में ज़्यादातर मुसलमान कृषि श्रमिक और छोटे किसान थे और कथित दोषी भारी भरकम हिन्दू जाट परिवारों के लोग थे। विभिन्न अध्ययनों में यह बात निकल कर आई थी कि इस सांप्रदायिक उन्माद को बढ़ने और फैलाने में 'खाप पंचायतों' ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इन्हीं खाप पंचायतों के हस्तक्षेप का नतीजा था कि किसानों के आर्थिक और सांस्कृतिक एका के लिए लम्बे समय से संघर्ष करती आई 'भारतीय किसान यूनियन' का नेतृत्व भी मुज़फ्फरनगर सांप्रदायिक दंगों के उभार में खुल कर आगे आया था। इन घटनाओं में 'भाकियू' के नेतागण राकेश टिकैत और नरेश टिकैत जैसों के विरूद्ध भी एफ़आईआर हुई थी जो महेंद्र सिंह टिकैत के पुत्र थे।

फ़ोटो साभार: ट्विटर/शशांक वशिष्ठ

बीते सितंबर में खाप पंचायतों ने मुज़फ्फरनगर में सांप्रदायिक सौहार्द के लिए एक बड़ा सम्मेलन किया। इस सम्मलेन में पुरानी विषाक्त राजनीति से मुक्त होकर एक सौहार्दपूर्ण परिवेश को जन्म देने का संकल्प किया गया था। माना जाता है कि इसके पीछे 'भारतीय  किसान यूनियन' का नेतृत्व काम कर रहा था। यह सम्मलेन काफ़ी हद तक सफ़ल भी रहा था।

इस सम्मलेन के नतीजे मौजूदा आंदोलन में साफ़ नज़र आ रहे हैं। ख़ुशी की बात यह है कि बीते सालों में सांप्रदायिक विष में डूब कर जिस 'किसान चेतना' का पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोप हो गया था, वह नए सिरे से जागी है। दिल्ली के गाज़ीपुर बॉर्डर पर इकठ्ठा हुए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों में सभी धर्म और जातियों के किसान शामिल हैं। उत्तर प्रदेश की 'भारतीय किसान यूनियन' समूचे किसान आंदोलन का एक हिस्सा भी है और अपनी अलग अस्मिता भी बनाए हुए है।

वीडियो चर्चा में देखिए, प्रधानमंत्री मोदी की इज्जत दाँव पर?

'भकियू' ने केंद्र सरकार को चेतावनी दी है कि यदि किसान आंदोलन की माँगों को नहीं माना गया तो वे अपने ट्रैक्टरों की फ़ौज के साथ 26 जनवरी की परेड में हिस्सेदारी को पहुँच जाएँगे और वहाँ उन्हें रोका गया तो जो अराजकता फैलेगी, उसका ज़िम्मा केंद्र सरकार का होगा।

किसान आंदोलन का असर पूरे प्रदेश में दिख रहा है। तक़रीबन सभी ज़िलों में धरने और प्रदर्शनों का ज़ोर है। अनेक स्थानों से किसानों की टोलियाँ दिल्ली कूच भी कर रही हैं। 

उत्तर प्रदेश किसान आन्दोलनों की पूर्ववर्ती सरज़मीं रही है। किसान आंदोलनों के क्षेत्र में पंजाब-हरियाणा बाद में शामिल हुए हैं। आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद, बड़े-बड़े किसानी सवालों पर उत्तर प्रदेश के किसानों ने ज़बरदस्त हल्ला बोला है और हुक्मरानों को हिलाया है।

यूपी से ही चौधरी चरण सिंह का जन्म हुआ जिन्होंने आगे चलकर किसान राजनीति को देश की मुख्यधारा की राजनीति से जोड़ा और समूची हिंदी पट्टी की राजनीति को किसानों के हल से 'जोत' डाला। उन्होंने शहरी सियासत में सराबोर भारतीय राजनीति में अपने ग्रामीण हस्तक्षेप को देश की राजनीति का स्थाई भाव बना दिया था। 'दिल्ली की गद्दी पर किसान' के उनके नारे का प्रभाव था कि एक बार वह स्वयं और फिर क्रमशः ग्रामीण पृष्ठभूमि के 3 और राजनेता (वीपी सिंह, चंद्रशेखर और एच डी देवेगौड़ा) देश की प्रधानमंत्री की कुर्सी पर सवार हो सके। 

किसान आंदोलन' से जुड़े पश्चिमी यूपी के किसानों की एकता इस बात को भी दर्शाती है कि जब-जब जनतांत्रिक अधिकारों की बड़ी लड़ाई ज़ोर पकड़ेगी, समाज में व्याप्त सांप्रदायिक और जातिवादी उन्माद विलुप्त हो जायेंगे। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि पंजाब के किसानों से अलग राकेश टिकैत की सरकार के बातचीत क्या रंग लाती है!