किसानों और सरकार के बीच एक साल से अधिक समय तक गतिरोध के बाद, प्रधानमंत्री ने गुरु पर्व के दिन एलान किया कि उनकी सरकार तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने जा रही है। ये क़ानून किसानों और सरकार के बीच विवाद की जड़ थे।
बिल लाने की जल्दी क्या थी?
मोदी सरकार ने जून, 2020 में जब कोरोना वायरस की पहली लहर चरम पर थी, तब तीन कृषि बिलों को लागू करने के लिए एक अध्यादेश जारी किया था। इसके तुरंत बाद किसानों ने बिल के ख़िलाफ़ अपना विरोध शुरू कर दिया था। अब सवाल ये है कि इसे लेकर अध्यादेश लाने की जल्दी क्या थी?
जाहिर है, कॉरपोरेट दिग्गजों की मदद करना सरकार के एजेंडे का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। क्योंकि उस वक्त विरोध प्रदर्शन की अनुमति नहीं थी तो सरकार को लगा कि ये कानून जबरदस्ती थोपे जा सकते हैं। अगले संसद सत्र में अध्यादेशों को विधेयकों में बदलना ज़रूरी था। पर बिना उचित बहस के विधेयकों को पारित किया गया। यहां सवाल वही है कि बिलों को इतनी जल्दी आगे बढ़ाना ज़रूरी क्यों था?
जबकि विरोध पहले ही भड़क चुका था? पहले किसान अपने-अपने राज्यों में विरोध कर रहे थे लेकिन उसके बाद किसानों ने विरोध और तेज कर दिया और नवंबर 2020 में दिल्ली की सीमा पर आ गए।
किसानों ने महसूस किया कि राज्यों में विरोध प्रदर्शन का उतना असर नहीं होता, जितना कि दिल्ली में विरोध का होता है। वे रामलीला मैदान में विरोध करना चाहते थे, लेकिन उन्हें दिल्ली की सीमाओं पर रोक दिया गया और यहीं वे लगभग एक साल से प्रदर्शन कर रहे हैं।
क़ानूनों को निरस्त करने की वर्तमान घोषणा किसानों की जीत है। यह और भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि वर्तमान केंद्र सरकार गलतियों को स्वीकार नहीं करती है और अपने एजेंडे के साथ आगे बढ़ती है, भले ही विपक्ष और लोकतांत्रिक आवाजें कुछ भी कहें।
उदाहरण के लिए, डिमोनेटाइजेशन का निर्णय और जीएसटी कार्यान्वयन दोनों ही गलत फैसले थे, लेकिन सरकार ने बिना अपनी गलती को स्वीकार किये इन्हें आगे बढ़ाया।
लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था को लगी चोट के कारण यह स्पष्ट था कि मांग कम थी और गरीबों को अपने हाथों में पैसे की सख्त जरूरत थी, लेकिन सरकार ने अपने व्यापार-समर्थक एजेंडे को जारी रखा।
चुनाव के कारण लिया फ़ैसला
तो क्या किसानों को जश्न मनाना चाहिए और अपना आंदोलन वापस ले लेना चाहिए? किसान नेताओं को भी पता है कि यह कदम उत्तर भारत में और महत्वपूर्ण रूप से यूपी में आगामी चुनावों के कारण उठाया गया है। यहां तक कि आरएसएस ने भी अपनी हालिया बैठक में बीजेपी को सलाह दी थी कि उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण है और किसानों के विरोध का समाधान निकालने की जरूरत है ताकि इससे होने वाले नुकसान को कम से कम किया जा सके।
बीजेपी को यह भी एहसास है कि अगर यूपी का चुनाव हार गये तो 2024 के आम चुनाव में भी नुकसान होगा।
स्पष्ट रूप से सरकार का हृदय परिवर्तन चुनावी है और ऐसा नहीं है कि वह किसानों के इन तर्कों से आश्वस्त है कि ये क़ानून किसानों की स्थिति को सुधारने के बजाय और ख़राब करेंगे। ये क़ानून कृषि के बाज़ारीकरण और निगमीकरण को बढ़ावा देने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं जो केवल अधिकांश किसानों की स्थिति में गिरावट का कारण बन सकते हैं।
छोटे और सीमांत किसानों को अपनी जमीन खोने और अपने ही खेतों में मजदूर बनने का खतरा महसूस हो रहा है। चूंकि बढ़ते मशीनीकरण के कारण देश में गैर-कृषि रोजगार सृजन बहुत कम है, इसलिए श्रमिकों के रूप में उनकी स्थिति और ख़राब हो जाएगी।
ऐसा नहीं है कि किसान अपनी बदहाल स्थिति में बदलाव नहीं चाहते हैं। लेकिन उनका तर्क है कि इन तीन क़ानूनों से उनकी पहले से ही खराब स्थिति और बिगड़ जायेगी। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि वे लंबे समय से जोरदार विरोध कर रहे हैं।
पहले भी किया विरोध
किसानों का विरोध कोई नया नहीं है। 2019 के आम चुनावों से पहले, महाराष्ट्र में, मप्र में, दिल्ली के आसपास और अन्य जगहों पर बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन हुए। उनकी मांग लाभकारी मूल्य, गारंटीकृत एमएसपी और एपीएमसी मंडियों को जारी रखने की रही है - इनमें से किसी की भी गारंटी ये कृषि क़ानून नहीं दे रहे थे।
बाजारीकरण और निगमीकरण
व्यापार समर्थक होने के कारण सरकार ने केवल बाजार आधारित समाधान पर जोर दिया है। लेकिन इससे उन लोगों को मदद मिलती है जिनके पास पूंजी है और जो बाजार में मजबूत हैं यानि कॉरपोरेट। सरकार ने किसानों की मांगों को बाजार विरोध के रूप में देखा है और इसलिए उन्हें स्वीकार नहीं किया।
आज अधिकांश अर्थशास्त्री और ज़्यादातर राजनीतिक दल भी बाजार समर्थक हैं और वे 1991 से बाज़ार आधारित सुधारों पर जोर दे रहे हैं।
केंद्र सरकार सही है जब वह यह कहती है कि अधिकांश अर्थशास्त्री और राजनीतिक दल तीन क़ानूनों के द्वारा सुझाये गए सुधारों के पक्ष में हैं। सरकार का यह कहना भी सही है कि इन सुधारों को लेकर चर्चा लंबे समय से चल रही है और ऐसा नहीं है कि इसे लेकर आम सहमति नहीं है।
आम सहमति का सवाल
मुद्दा ये है कि सुझाये गए सुधारों पर किसके बीच आम सहमति है? निश्चित रूप से किसानों के साथ तो नहीं है। इसके अलावा, कृषि में 'मुक्त' बाजार संभव नहीं है, क्योंकि बाजार आपस में जुड़े हुए हैं। किसान जो ऋण लेते हैं, उसके कारण उन्हें अपनी फसल अपने लेनदारों को बेचनी पड़ती है और वह भी कटाई के तुरंत बाद। इसलिए, उनके पास जहां चाहें, वहां बेचने के लिए बहुत कम 'विकल्प' होते हैं।
जब संकट की बात आई, तो अमीर किसानों को भी एहसास हुआ कि तीन क़ानूनों में जो प्रस्ताव हैं, उससे वे बुरी तरह आहत होंगे। 85% छोटे और सीमांत किसान जो 2 हेक्टेयर से कम भूमि पर खेती करते हैं, वे तो बुरी तरह प्रभावित होंगे ही और नीति निर्माण में उनकी कोई आवाज भी नहीं होती है।
आमतौर पर, अमीर और सीमांत किसानों के हितों में टकराव होता है, लेकिन वर्तमान स्थिति में वे एक मंच पर आ गए और इसीलिए पिछले एक साल में किसान आंदोलन में अमीर किसान और व्यापारी सीमांत और छोटे किसानों के हितों का भी प्रतिनिधित्व करते रहे।
आमतौर पर ऐसा होता है कि किसी भी आंदोलन में संपन्न वर्ग ही आगे बढ़कर नेतृत्व करता है क्योंकि गरीब विरोध का जोखिम नहीं उठा सकते हैं। लंबे समय से देश में गरीबों के शोषण के बावजूद हमने भारत में उन्हें कब विरोध करते देखा है?
खेत मज़दूरों की दशा
एकमात्र वर्ग जो वर्तमान आंदोलन में हाशिए पर रहा है, वह है खेत मज़दूर। उन्हें बेहतर मज़दूरी की आवश्यकता है, लेकिन उन्होंने यह मुद्दा शायद ही कभी उठाया हो। असल में, उनकी किस्मत किसानों के साथ जुड़ी हुई है। ज़ाहिर है खेती में कोई भी संकट उन पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा और इस मायने में उनके हितों का भी प्रतिनिधित्व आंशिक रूप से किसानों के विरोध से जुड़ा हुआ है।
सुधार के लिए ब्लू प्रिंट ज़रूरी
क्या कृषि कानूनों का रद्द होना सत्तारूढ़ व्यवस्था के दिल में बदलाव का संकेत देता है? प्रधानमंत्री के भाषण के निष्पक्ष विश्लेषण से समझ में आता है कि ऐसा नहीं है। उन्होंने कहा है कि ये क़ानून छोटे किसानों की भलाई के लिए हैं। उन्होंने कहा कि केवल कुछ ही किसान इन क़ानूनों के विरोध में थे और वे सरकार के तर्क से सहमत नहीं थे। दूसरे शब्दों में प्रधानमंत्री ने कहा कि क़ानून सही थे लेकिन कुछ लोगों की समझ कमज़ोर है।
इसलिए ये तो साफ है कि संसद द्वारा इन क़ानूनों को निरस्त करने से किसानों की मांगों का कार्यान्वयन नहीं होगा। वे बिलों के पारित होने से पहले, वहीं वापस आ जाएंगे जहां वे थे।
अगर प्रधानमंत्री किसी भी समिति का गठन करेंगे, जैसा उन्होंने कहा है, तो उसमें ज्यादातर बाज़ार समर्थक सुधारक होंगे। कुछ किसान नेता जिन्हें समिति में शामिल किया जा सकता है, समिति के सामने हाशिये पर ही होंगे।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त कमेटी भी एकतरफा थी। यह संभव है कि समिति की रिपोर्ट को सरकार स्वीकार ना करे या ठंडे बस्ते में डाल दे, या केवल आंशिक रूप से लागू करे। आखिरकार स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट को भी तो आंशिक रूप से ही लागू किया गया है।
प्रयास जारी रखें किसान
किसानों के पास अपनी मांगों को सरकार से लागू कराने के लिए यूपी के चुनाव तक का समय है। लेकिन उनकी समस्या का समाधान सिर्फ कृषि में नहीं है। नीतियों का एक समग्र पैकेज होना चाहिए। इसमें श्रमिकों और सीमांत किसानों सहित समाज के सभी वर्गों के हितों को शामिल किया जाना चाहिए। किसानों को अपनी वर्तमान जीत से उत्साहित होकर आगे के प्रयास को तेज़ कर देना चाहिये।
संभावना है कि गतिरोध आगे भी जारी रह सकता है। किसानों को सरकारी हस्तक्षेप की जरूरत है जबकि सरकार पीछे हटना चाहती है। सरकार द्वारा गारंटीकृत एमएसपी स्वीकार किए जाने की संभावना नहीं है क्योंकि वह उसको व्यावहारिक नहीं मानती है।
सैद्धांतिक रूप से सभी फसलों के लिए न्यूनतम कीमतों की घोषणा की जा सकती है। समस्या कार्यान्वयन में होगी। प्रशासनिक कठिनाइयों और भ्रष्टाचार को सुलझाना होगा और यह वर्तमान में भारतीय परिवेश में चुनौतीपूर्ण है।
लेकिन मौजूदा व्यवस्था क्या ठीक है? इसने सैकड़ों कठिनाइयों को जन्म दिया है और क्या यह करोड़ों किसानों और उनके परिवारों की जरूरतों को पूरा करती है? दरअसल, जहां चाह हो वहां मुश्किलों से पार पाने का रास्ता निकाला जा सकता है।
‘द वायर’ में छपे लेख ‘Why the Farmers Stand Off Is Likely to Continue and What's at Stake’ का हिंदी अनुवाद।