मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में एक विधायक ने सरकारी अफ़सर को क्रिकेट के बल्ले से पीटा। जिस अफ़सर की पिटाई हुई, वह अपनी ड्यूटी कर रहा था। विधायक भारतीय जनता पार्टी का सदस्य है और पार्टी के एक बहुत बड़े नेता और पदाधिकारी का बेटा है। विधायक को गिरफ़्तार करके उसे जेल भेज दिया गया है। एकाध दिन में उसको जमानत मिल जायेगी और वह फिर से अपने काम पर लग जाएगा। इस तरह के विधायक हर जिले में और हर पार्टी में मौजूद हैं।
दिल्ली में ओम प्रकाश चौटाला की पार्टी का राज्य सभा का इकलौता सदस्य बीजेपी में शामिल हो गया है। इसके पहले तेलुगु देशम पार्टी के चार सांसद बीजेपी में शामिल हो चुके हैं। बंगाल में लगभग रोज़ ही कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के लोग केंद्र के सत्ताधारी दल में शामिल होते हैं। उत्तर प्रदेश से भी ख़बर आ रही है कि कुछ ग़ैर कांग्रेसी राज्य सभा सांसद सरकारी पक्ष में शामिल होने की तैयारी कर रहे हैं।
राजनीतिक व्यवहार का आलम यह है कि कभी भी कोई भी पार्टी टूट की कगार पर खड़ी नज़र आ जाती है। राजनीतिक नेताओं में अपनी विचारधारा के प्रति कहीं कोई प्रतिबद्धता नहीं है। बीजेपी में शामिल होने की कोशिश कर रहे एक पूर्व कांग्रेसी मंत्री से जब कांग्रेस की विचारधारा की बात की गयी तो उसने पलट कर सवाल पूछा कि क्या विचारधारा है कांग्रेस की? उसके मुताबिक़, इंदिरा गाँधी के परिवार के बच्चों को अपना बॉस मानने के अलावा कोई विचारधारा नहीं है। उसने साफ़ कहा कि जब दिल्ली में बैठे पार्टी के बड़े नेता धंधे-पानी में लगे रहते हैं तो आम कार्यकर्ता क्यों न ऐसा करे।
देश की राजनीतिक बिरादरी में विचारधारा के प्रति इस तिरस्कार की भावना के कारणों की छानबीन करनी ज़रूरी है। जिस देश को आज़ादी ही राजनीतिक विचारधारा के कारण मिली हो, वहाँ राजनीतिक विचारधारा को दरकिनार करके केवल आर्थिक लाभ के लिए राजनीति की बात समझ में नहीं आती। इसको समझने के लिए समकालीन इतिहास के कुछ पन्नों को पलटना ज़रूरी है। आज़ादी की लड़ाई में जब बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारियाँ शुरू हुईं तो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफ़ल लोग राजनीति में शामिल हुए थे। बाद के समय में भी राजनीति में वे लोग सक्रिय थे जो आज़ादी की लड़ाई में शामिल रह चुके थे और देश के हित में कुर्बानियाँ देकर आये थे।
नेहरू की मृत्यु के बाद नेताओं का नैतिक अधिकार कमज़ोर पड़ा तो राजनीति में ऐसे लोग आने लगे जिनको चापलूस कहा जा सकता है। इसी दौर में राजनीति में ‘इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा’ का जयकारा लगाने वाले भी राजनीति के शिखर पर पहुँचे।
जब कांग्रेसी राजनीति चापलूसी इस बुलंदी पर थी तो वे राजनीतिक जमातें भी राजनीति में सम्मान की उम्मीद करने लगीं जिनके राजनीतिक पूर्वज या तो अंग्रेजों के साथ थे और या आज़ादी की लड़ाई में तमाशबीन की तरह शामिल हुए थे। उनको मान्यता मिली भी क्योंकि 1947 के पहले राजनीतिक संघर्ष का जीवन जीने वाले नेता धीरे-धीरे समाप्त हो रहे थे। आज बीजेपी की यही स्थिति है। शीर्ष पर बैठे नेता का जयकारा लगाने वालों की बड़ी संख्या सत्ताधारी पार्टी में बड़े पदों पर पदासीन है। आज की तारीख़ में दिल्ली में अगर नज़र दौडाई जाए तो साफ़ नज़र आ जाएगा कि राजनीति में ऐसे लोगों का बोलबाला है जो राजनीति को एक पेशे के रूप में अपनाकर सत्ता के गलियारों में धमाचौकड़ी मचा रहे हैं।
जब मनमोहन सिंह ने पीवी नरसिम्हा राव के वित्त मंत्री के रूप में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश शुरू की तो उन्होंने पूँजीवादी अर्थशास्त्र की सबसे ख़तरनाक राजनीति की शुरुआत की जिसमें कल्याणकारी राज्य की भूमिका को केवल व्यापार को बढ़ावा देने वाली एजेंसी के रूप में पेश किया गया।
देश की अर्थव्यवस्था को उन्होंने उदारीकरण और भूमंडलीकरण के हवाले कर दिया। डॉ मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण को उपचार के रूप में पेश किया और भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व बाज़ार के साथ जोड़ दिया। डॉ. मनमोहन सिंह ने आयात और निर्यात को भी सरल बनाया और भारत को दुनिया के विकसित देशों का बाज़ार बना दिया। निजी पूंजी को उत्साहित करके सार्वजनिक उपक्रमों को हाशिए पर ला दिया।
आज की हालत यह है कि मज़बूत सरकारी कंपनियों को बेचकर देश की अर्थव्यवस्था को चलाने के सपने देखे जा रहे हैं।
आर्थिक लाभ के लिए आए राजनीति में
एक और सच्चाई पर भी विचार करना पड़ेगा। डॉ. मनमोहन सिंह के 1992 के विख्यात बजट भाषण के बाद इस देश में जो घोटाले हुए हैं वे हज़ारों करोड़ के घोटाले हैं। इसके पहले घोटाले कम क़ीमत के हुआ करते थे। अपने समय में बोफ़ोर्स घोटाला बहुत बड़ा घोटाला माना जाता था लेकिन पिछले 25 वर्षों के घोटालों पर एक नज़र डाली जाए तो समझ में आ जाएगा कि 65 करोड़ का बोफ़ोर्स घोटाला आधुनिक भ्रष्टाचारियों के सामने बहुत मामूली हैसियत रखता है। इसका कारण यह है कि बहुत बड़ी संख्या में राजनीति में आर्थिक लाभ से प्रेरित लोग शामिल हो गए हैं। ये लोग राजनीति को व्यापार समझते हैं और उसमें लाभ-हानि के लिए किसी से भी समझौता कर लेते हैं।
एक और बात समझ लेने की है कि दोनों ही बड़ी पार्टियों की अर्थनीति वही है। डॉ. मनमोहन सिंह को बीजेपी वाले कोसते हैं लेकिन जब भी बीजेपी की सरकार बनती है तो डॉ. मनमोहन सिंह की ही आर्थिक नीतियाँ चलती हैं।
अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी की सरकारें डॉ. मनमोहन सिंह की आर्थिक सोच को लागू करने में कांग्रेस से ज्यादा उत्साह दिखाती हैं। नरेंद्र मोदी की सरकार में भी डॉ. मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियाँ चल रही हैं। पूंजीवादी अर्थशास्त्र में सम्पन्नता ऊपरी वर्ग के लोगों के लिए सुनिश्चित की जाती है और ग़रीब लोगों को औद्योगिक विकास में श्रम देकर भागीदार होना पड़ता है। इसलिए देखा गया है कि सभी पार्टियों के नेता उद्योगपति बनने के चक्कर में ज्यादा रहते हैं और विचारधारा से शून्य राजनीति की गिरफ़्त में रहते हैं। नतीजा यह होता है कि वे आदर्शों से दूर हटकर कहीं राह चलते लोगों को मारते-पीटते हैं, बलात्कार आदि करते हैं और सत्ताधारी पार्टी के साथ रहने की उतावली में रहते हैं और दल-बदल करते रहते हैं।
विचारधारा से पैदल और बाहुबली टाइप लोगों का राजनीति में शामिल होना बड़े पैमाने पर सत्तर के दशक में शुरू हुआ जो राजनीति को व्यापार समझते थे। इस तरह के लोगों की भर्ती स्व. इंदिरा गाँधी के छोटे पुत्र संजय गाँधी ने मुख्य रूप से की थी।
संजय गाँधी ने दिल्ली की सीमा पर गुड़गाँव में मारुति लिमिटेड नाम की एक फ़ैक्ट्री लगाकर कारोबार शुरू किया था लेकिन बुरी तरह से असफल रहे। अटल बिहारी वाजपेयी, मधु लिमये, ज्योतिर्मय बसु, पीलू मोदी, जार्ज फर्नांडीज़, इन्द्रजीत गुप्त और हरि विष्णु कामथ के लोकसभा में दिए गए भाषणों से हमें मालूम होता है कि संजय गाँधी को उद्योगपति बनाने के लिए बहुत से दलालों, चापलूसों और मुख्यमंत्रियों ने कोशिश की लेकिन संजय फेल रहे।
उद्योग में फेल होकर संजय गाँधी ने राजनीति में शामिल होने की योजना बनाई तो बड़े-बड़े मुख्यमंत्री उनके दास बन गए। नारायण दत्त तिवारी, बंसी लाल आदि ऐसे मुख्यमंत्री थे जिनकी ख्याति संजय गाँधी के चपरासी से भी बदतर थी। न्यायपालिका संजय गाँधी की मनमानी में आड़े आने लगी तो इमरजेंसी लग गयी। इमरजेंसी के दौरान सत्ता की राजनीति का घोर पतन हुआ।
कांग्रेस को 1977 में हार का मुंह देखना पड़ा लेकिन तब संजय गाँधी ने ऐसे लोगों को कांग्रेस का सदस्य बनाया जिनको राजनीति के उन आदर्शों से कोई लेना-देना नहीं था जो आज़ादी की लड़ाई की मूल भावना के रूप में जाने जाते थे। यही वर्ग 1980 में सत्ता में आ गया।
उस समय की विपक्षी पार्टियों में भी इसी तरह के लुम्पन भर्ती हो गए। जब मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था को विश्व बाजार के सामने पेश किया तो इस वर्ग के बहुत सारे नेता भाग्यविधाता बन चुके थे। उन्हीं भाग्यविधाताओं ने आज देश का यह हाल किया है और अपनी तरह के लोगों को ही राजनीति में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया है। पिछले 25 वर्षों की भारत की राजनीति ने यह साफ़ कर दिया है कि जब तक देशप्रेमी और आर्थिक भ्रष्टाचार के धुर विरोधी राजनीतिक पदों पर नहीं पहुँचते, देश का कोई भला नहीं होने वाला है। इसी शून्य को भरने की कोशिश आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने की और जनता ने उनको सिर आँखों पर बिठाया लेकिन उनका भी वही हाल हो गया है। आज ऐसा माहौल है कि सभी नेता चाकर पूँजी के लिए काम करने के लिए तैयार बैठे हैं। केवल महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू की राजनीतिक प्रमुखता के दौर में देश के आम आदमी के हित की राजनीति हुई है बाक़ी तो चाकर पूँजी की सेवा ही चल रही है।