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दिल्ली की हवा लाहौर और मुल्तान जैसी ख़तरनाक न हो जाए!

दिल्ली की हवा लाहौर और मुल्तान जैसी ख़तरनाक न हो जाए!

जहां दिल्ली में वायु गुणवत्ता 400 के आस-पास के ख़तरनाक स्तर पर है, वहीं पाकिस्तान के लाहौर में यह 1900 और मुल्तान में 2000 पार कर गया। क्या सिर्फ़ जुर्माना बढ़ाकर प्रदूषण फैलने से रोका जा सकता है?

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की लगातार दमघोटूं होती हवा के बीच केंद्र सरकार ने प्रदूषण रोकने के लिए एक पुराना दांव चला है। पिछले सप्ताह उसने पराली जलाने पर लगाया जाने वाला जुर्माना दुगना कर दिया है। पहले यह जुर्माना ढाई से 15 हजार रुपये तक था जिसे बढ़ाकर अब पराली जलाने वाले किसानों पर पांच से 30 हजार रुपये तक कर दिया गया है। वैसे यह कदम भी तब उठाया गया जब सुप्रीम कोर्ट दिल्ली की खराब होती हवा को लेकर सरकार के प्रति सख्ती दिखाई।

वैसे इस कदम का स्वागत किया जा सकता था अगर इसका जमीन पर वाकई कोई असर हो। तीन सप्ताह पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की इस बात के लिए खिंचाई की थी कि जो क़ानून है उसे ठीक से लागू नहीं किया जा रहा है। हालांकि तब अतिरिक्त साॅलिसिटर जनरल ने अदालत को बताया था कि पंजाब में पराली जलाए जाने को लेकर 1000 से ज्यादा मामले दर्ज किए गए हैं। इसे लेकर भी राजनीति ही चल रही है। 

यह भी माना जाता है कि कानून बनाना और जुर्माना बढ़ाना जितना आसान है सिर्फ कानून के जरिये पराली को जलने से रोकना उतना ही कठिन है। कई मामलों में यह भी देखा गया है कि अगर कहीं कोई एक किसान पराली जला रहा होता है और प्रशासन की टीम वहां जुर्माने के लिए पहुँच जाती है तो उस टीम का विरोध करने के लिए पूरा गांव खड़ा हो जाता है। 

पराली जलाए जाने से रोकने के अभी तक बहुत से काूनन बन चुके हैं। पराली के प्रबंधन के लिए केंद्र सरकार बकायदा एक राष्ट्रीय नीति बना चुकी है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में पराली जलाए जाने पर पहले ही पाबंदी लगा चुका है। भारतीय न्याय संहिता के तहत भी यह एक अपराध है और वायु व प्रदूषण नियंत्रण कानून भी इसे अपराध की श्रेणी में ही रखता है। साल दर साल इसके लिए चालान होने की ख़बरें भी आती रहती हैं लेकिन फिर भी धान की फ़सल कट जाने के बाद खेतों में बचे डंठलों और जड़ों में वहीं पर आग लगाने का सिलसिला थम नहीं रहा। 

एक अनुमान है कि देश में हर साल 50 करोड़ टन पराली पैदा होती है जिसमें 34 फीसदी धान की पराली होती है, 22 फीसदी गेहूं की और बाकी अन्य फसलों की। हर बार हमें यह बताया जाता है कि इस पराली का अच्छा उपयोग हो सकता है मसलन इसे ईंधन में बदला जा सकता है। लेकिन न तो इसकी कोई बड़ी परियोजना अभी तक बनी है और न ही किसानों से इसे खरीदने का कोई उपक्रम ही विकसित हुआ है। बस बातें ही होती रही हैं।

पराली को लेकर पूरे उत्तर भारत में चल रही हायतौबा के बीच सेंटर फाॅर साइंस एंड एनवायरनमेंट ने जो आंकड़े दिए हैं वे कुछ और ही कहानी कहते हैं। उसके अनुसार दिल्ली के प्रदूषण में पराली का योगदान महज आठ फीसदी ही है। बाकी इसके पीछे दूसरे कारक हैं जिनमें से ज्यादातर स्थानीय हैं।

लेकिन पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में जलने वाली पराली नेताओं और नौकरशाहों को यह सुविधा दे देती है कि वे मूल समस्या से लोगों का ध्यान हटा कर आरोपों को कहीं और मोड़ दें और यही हो रहा है।

इस समय जहां दिल्ली में वायु गुणवत्ता 400 के आस-पास के ख़तरनाक स्तर पर है, वहीं यह ख़बर सिहरन पैदा कर देती है कि कुछ दिन पहले पाकिस्तान के लाहौर में यह आंकड़ा 1900 के अकल्पनीय स्तर पर पहुँच गया था। लेकिन तब भी लाहौर प्रदूषण के मामले में अव्वल नहीं था। प्रदूषण के मामले में बाजी पाकिस्तान के ही एक दूसरे शहर मुल्तान के हाथ लगी जहां प्रदूषण का यह सूचकांक 2000 पार कर गया। 

इतने प्रदूषण के बाद स्कूल बंद करने और लाॅक डाउन लगाने के अलावा पाकिस्तान ने क्या किया? वही किया जो भारत करता है। उसने भी पराली जलाने वाले किसानों पर ही आरोप लगाया। इस मामले में पाकिस्तान के पास एक सुविधा और है, वह अपने किसानों के अलावा भारत के किसानों पर भी आरोप लगा सकता है। लेकिन इसके आगे बढ़कर कुछ लोगों ने तो सीधे भारत पर ही आरोप मढ़ डाले।

सीमाएं अलग-अलग भले ही हो गई हैं लेकिन भारत और पाकिस्तान एक ही पर्यावरण के हिस्से हैं। इस लिहाज से उनका प्रदूषण कोई दूर की चीज नहीं है। जो हाल आज लाहौर और मुल्तान का है वह कल हमारा भी हो सकता है। खासकर तब जब हम जुर्माना बढ़ाने और किसानों के सर सारा दोष मढ़ने के अलावा समस्या से लड़ने के लिए कोई ठोस काम नहीं कर रहे। 

अभी जो हमारे पास व्यवस्था है उससे यह उम्मीद तो नहीं बनती कि किसानों के प्रति उसमें हमदर्दी का कोई भाव दिखाई देगा। लेकिन जब नीतियाँ बनाने वाले खुद ही जहरीली हवा से घिरे हों तो उनसे समस्या को लेकर गंभीर होने की उम्मीद तो की ही जा सकती है।

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