सीजेआई चंद्रचूड़ आख़िर निशाने पर क्यों हैं?
अपने कार्यकाल के अंतिम दिन शुक्रवार को भारत के निवर्तमान चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड ने वकीलों की संस्थाओं द्वारा दिए गए विदाई समारोह में ठीक ही कहा कि संभवतः वह देश की सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा “ट्रोल” किये जाने वाले सीजेआई होंगे। लेकिन यह स्थिति किसके कारण हुई है? अगर आप मीडिया-प्रेमी होंगे, अगर पद के अनुरूप कुछ पारम्परिक और निषेधात्मक मान्यताओं को तोड़ते हुए अपने को “पब्लिक जज” (जैसा कि उन्होंने इसी समारोह में अपने बारे में बताया) करार देंगे तो स्वतंत्र मीडिया आपके फैसलों का, व्यक्तित्व का और कोर्ट-इतर आचरण का बेबाक विश्लेषण तो करेगा ही।
अगर रिटायर होने के पूर्व के दो हफ़्तों में आप सार्वजानिक उद्बोधनों में बतायेंगे कि इस स्वतंत्र भारत के सबसे विवादास्पद और अहम् अयोध्या राम मंदिर-बाबरी मस्जिद केस पर आप ने फैसला देने के पहले “भगवान” से कैसे प्रेरणा ली तो आपके जुडिशल विजडम (न्यायिक बुद्धिमत्ता) की गुणवत्ता पर सवाल तो उठेंगे ही। इसी तरह अगर आप सार्वजानिक रूप से यह कहेंगे कि आप को इस बात की चिंता रहेगी कि इतिहास आपको कैसे देखेगा, तो आपके फैसलों में किस हद तक “बैलेंसिंग एक्ट” है यह बात कोई भी विवेकशील विश्लेषक कैसे नज़रअंदाज करेगा? क्या 75 वर्षों में किसी अन्य पूर्व चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया ने यह सब कहा था?
क्या ये सब उद्गार इस पद की गरिमा के लिए उपयुक्त थे? क्या कोई जज फ़ैसले यह सोच कर देता है कि इतिहास उसे कैसे देखेगा? क्या फ़ैसले देते समय इतिहास का डर उसे “बैलेंसिंग एक्ट” (संतुलन की कोशिश) करने को मजबूर करता है? एक जज को तो अपने न्यायिक आचरण के पैरामीटर में रहते हुए दुनिया की सकारात्मक या नकारात्मक आलोचना से ऊपर उठ कर फैसले देने होते हैं, फिर यह चिंता क्यों?
इसी तरह फ़ैसले देने के पहले संभव है उहापोह की मानसिक स्थिति बने लेकिन उसके लिए दिशा निर्देशक तो एकमात्र संविधान ही होता है। कार्य-निष्पादन के दौरान तो एक जज का भगवान तो संविधान होता है न कि उसका कोई धर्म-आधारित अदृश्य भगवान। और वह हो भी तो यह बात सार्वजानिक रूप से कहने का मतलब हुआ कि जजों के फैसले तर्क, वैज्ञानिक सोच या संवैधानिक पैरामीटर्स के भीतर न हो कर व्यक्तिगत आस्था के हिसाब से होते हैं। क्या भारत के संविधान ने यह सुविधा और विकल्प जजों को दिया है? सीजेआई के इस उद्गार से यह भी अर्थ निकलता है कि अगर कोई जज अनीश्वरवादी है तो वह जटिल मामलों में फ़ैसला कर ही नहीं सकता। भगवान को मानना या न मानना शुद्ध रूप से व्यक्तिगत चुनाव है। इसे सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करना और यह बताना कि देश के समसामयिक इतिहास के सबसे अहम केस में फ़ैसला किसी अदृश्य शक्ति की “प्रेरणा” से लिया था, पूरी न्यायपालिका की बौद्धिक क्षमता और तज्जनित फैसलों की गुणवत्ता पर सवाल खड़ा करता है। ठीक रिटायरमेंट के पूर्व स्वयं सीजेआई ने अपने लिए विवादास्पद स्थिति पैदा कर ली है।
जस्टिस चंद्रचूड़ का आलोचनात्मक विश्लेषण इस बात पर भी होगा कि पांच जजों की बेंच द्वारा सर्वसम्मति से दिए गए लेकिन बगैर हस्ताक्षर के अयोध्या फ़ैसले के प्रारम्भ में यह कहा गया कि धार्मिक आस्था संपत्ति विवाद पर फ़ैसले का (जो इस केस का मुद्दा था) आधार नहीं हो सकता और यह भी कि ऐतिहासिक ग़लतियों को हथियार बना कर वर्तमान या भविष्य को प्रताड़ित नहीं किया जा सकता, लेकिन फ़ैसला हिन्दुओं के पक्ष में दिया गया।
फिर क्या यह मुद्दा भी कोर्ट के विचाराधीन था कि मंदिर कैसे बनेगा, कौन बनाएगा और मस्जिद कहाँ बनेगी? आखिर फैसले में यह बताने की क्या ज़रूरत थी कि केंद्र सरकार (न कि राज्य सरकार या कोई गैर सरकारी धार्मिक संस्था) एक समिति बनाकर मंदिर बनाएगा?
दो जजों के मना करने पर जब बेंच का दुबारा गठन हुआ तो चार हिन्दू और एक मुसलमान जज क्यों रखे गए। क्या जस्टिस नरीमन (पारसी) और जस्टिस जोसेफ (इसाई) उपलब्ध नहीं थे?
चलते-चलते गणेश पूजा में तमाम कैमरों के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का उनके घर आना और उनके और उनके परिवार के साथ गणेश वन्दना करना (जयदेव जयदेव) न्यायिक आचरण के अनुरूप नहीं था। पीएम विजिट की सिक्यूरिटी क्लीयरेंस दो घंटे पूर्व की जाती है लिहाज़ा सीजेआई उन्हें मना कर सकते थे, कुछ घंटों की मोहलत ले सकते थे और इस बीच “ब्रदर जजों” को निमंत्रित कर सकते थे या प्रकारांतर से लीडर ऑफ़ अपोजिशन को भी बुला सकते थे। तब यह “सोशल गेदरिंग” कहा जा सकता था। एक अंग्रेजी अखबार को दिए गए साक्षात्कार में जस्टिस चंद्रचूड़ ने पारस्परिक विरोधात्मक बयान दिए। उनका कहना था जजेज तो पीएम-सीएम से मिलते रहते हैं तमाम औपचारिक अवसरों पर। उनका यह दावा कुतर्क की श्रेणी में आता है क्योंकि ऐसे औपचारिक अवसरों में पूरा सरकारी अमला साथ रहता है। शादी-ब्याह या मरने-जीने पर जाना भी इसी श्रेणी में आता है। घर पर हुई मुलाकात में क्या बात हुई यह कोई तीसरा नहीं जानता। सीजेआई ने उदाहरण औपचारिक-सामाजिक अवसरों का दिया जबकि उसी साक्षात्कार में इस मुलाकात को “प्राइवेट” बताया।
संसदीय कानून द्वारा लगे प्रतिबन्ध के बावजूद ज्ञानवापी के मुद्दे को फिर से खड़ा करने में उनकी भूमिका आलोचना का सबब होगी ही। क्या यह सच नहीं कि मुसलमान पक्ष ने जब कहा कि कानून किसी भी धार्मिक स्थल को लेकर पुरातात्विक जांच से रोकता है तो उनसे कहा गया “यह दूसरे पक्ष की आस्था का मामला है”।
विदाई समारोह में यह कह कर कि सनलाइट इज द ग्रेटेस्ट डिसइन्फेक्टेंट (प्रकाश सबसे बड़ा विषाणु-रोधक होता है) जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने मीडिया प्रेम को तो उचित ठहरा लिया होगा लेकिन आलोचकों को और भावी इतिहास को दीर्घकालिक खुराक भी दे दिया है।
(एनके सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के पूर्व महासचिव हैं।)