दिल्ली: केजरीवाल के काम के आगे हारी नफ़रत और सांप्रदायिकता की राजनीति

11:38 am Feb 12, 2020 | विजय त्रिवेदी - सत्य हिन्दी

दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखें तो एकबार के लिये ऐसा लगेगा कि कुछ भी तो नहीं बदला है। फिर से वही आम आदमी पार्टी की सरकार, अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री, बीजेपी की करारी हार और राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस एक बार फिर शून्य पर यानी अपना खाता तक नहीं खोल पाई। लेकिन थोड़ा ध्यान से देखेंगे, थोड़ा रुककर देखेंगे तो समझ आता है कि इससे बड़े बदलाव का चुनाव तो कभी हुआ ही नहीं। सब कुछ तो बदल गया। चुनाव का नैरेटिव ही बदल गया। सरकार में रहने वाली पार्टी अपने काम के नाम पर चुनाव जीत गई और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें हार गईं, नफ़रत की राजनीति हार गई। 

नहीं दिखी एंटी इनकमबेंसी 

आम आदमी पार्टी ने पचास फ़ीसद से ज़्यादा वोट हासिल किये हैं। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल समेत उनके सभी मंत्री चुनाव जीत गए हैं। पांच साल दिल्ली जैसे राज्य में सरकार चलाना और काम के नाम पर चुनाव जीत जाना मुश्किल काम है, बहुत मुश्किल काम। केजरीवाल सरकार के सभी मंत्रियों का चुनाव जीतना यह बताता है कि कोई एंटी इनकमबेंसी नहीं है। किसी मंत्री के ख़िलाफ़ भी नहीं। किसी मंत्री के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोप नहीं। कोई नाराजग़ी दिखाई नहीं दी। 

मुख्यमंत्री केजरीवाल ने ख़ुद 22 हज़ार से ज़्यादा वोटों से जाीत हासिल की है। उनके मंत्री राजेंद्र पाल गौतम 55 हज़ार, इमरान हुसैन 36 हज़ार और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया सबसे कम 3 हज़ार वोटों से चुनाव चीते। सिसोदिया की पटपड़गंज विधानसभा सीट पर पहाड़ी वोटरों की बड़ी आबादी है जिसने उन्हें वोट नहीं दिया। लेकिन सिसोदिया की मुश्किलें बढ़ीं उनके शाहीन बाग़ से जुड़े बयान को लेकर। सिसोदिया ने कहा था कि वह शाहीन बाग़ के प्रदर्शन के साथ हैं। इस बयान से बीजेपी को उनके ख़िलाफ़ वोटों का ध्रुवीकरण करने में मदद मिली। 

भड़काऊ बयानों से हुआ नुक़सान

दिल्ली विधानसभा चुनाव में दूसरी सबसे बड़ी जीत आम आदमी पार्टी के अमानतुल्ला ख़ान को ओखला सीट से मिली। ओखला सीट के इलाक़े में ही शाहीन बाग़ का इलाक़ा आता है। अमानतुल्ला खां 72 हज़ार वोटों से चुनाव जीते। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में अपनी एक चुनावी रैली में कहा था कि शाहीन बाग़ का प्रदर्शन संयोग नहीं प्रयोग है। उनका संकेत सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होने को लेकर था। इसके अलावा दिल्ली से ही बीजेपी के सांसद परवेश वर्मा ने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि शाहीन बाग़ में बैठे लोग घरों में घुसकर बलात्कार करेंगे। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने नारे लगवाए कि देश के गद्दारों को...। लगता है बीजेपी को इन बयानों का नुक़सान भी उठाना पड़ा। 

ऊपरी तौर पर भले ही लगता हो कि बीजेपी ध्रुवीकरण करने में कामयाब नहीं हुई लेकिन ऐसा नहीं है। बीजेपी का वोट प्रतिशत 32 से बढ़कर 38 हो गया और सीटें भी 3 से बढ़कर 8 हो गईं। यदि कांग्रेस थोड़ा बेहतर प्रदर्शन करती यानी उसे 4-5 प्रतिशत के बजाय 8-10 प्रतिशत वोट मिलते तो बीजेपी 15-20 सीटें जीत सकती थी।

हिंदू वोटों में लगी सेंध 

चुनाव में बीजेपी ने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत केंद्र सरकार के मंत्री, सांसद, बीजेपी के मुख्यमंत्री और दूसरे नेता चुनाव प्रचार में लगे रहे लेकिन उन्हें उम्मीद के हिसाब से नतीजे नहीं मिले। चुनाव के नतीजों के बाद बीजेपी के लिये चिंता का विषय यह भी हो सकता है कि केजरीवाल ने उसके हिंदू वोटों के परिवार में सेंध लगा दी है। कर्नाटक और गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने यह कोशिश अनमने मन से की थी। लेकिन केजरीवाल ने यह दम ठोक कर की। 

बीजेपी जब राम मंदिर की राजनीति कर रही थी और दिल्ली में वोटिंग से एक दिन पहले अयोध्या के रामजन्म भूमि तीर्थ ट्रस्ट के गठन का एलान कर दिया गया तो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हनुमान को लेकर आ गए।

केजरीवाल ने एक चैनल के कार्यक्रम में ना केवल हनुमान चालीसा का पाठ किया बल्कि उनकी बेटी ने भी कहा कि उनके घर में भगवद्गीता का पाठ किया जाता है और केजरीवाल पर जब बीजेपी ने हनुमान चालीसा को लेकर निशाना साधा तो वह एक क़दम आगे बढ़कर हनुमान के दर्शन के लिये मंदिर पहुंच गए और मुसलिम समर्थक छवि का लबादा उतार दिया। 

एक जमाने तक मुसलिम वोटों और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति होती थी। अब केजरीवाल ने हिंदू वोटर की राजनीति को बदलने की कोशिश की है जो लगता नहीं कि अब यहां रुकेगी। बीजेपी के लिये यह मुश्किल बिहार विधानसभा चुनाव में भी हो सकती है लेकिन क्या मुसलिम विरोधी राजनीति का फायदा उसे मिल पायेगा और उससे भी बड़ा सवाल कि क्या नीतीश कुमार इसके लिये तैयार होंगे। 

दिल्ली के चुनाव नतीजों पर अभी बहुत तरह से समीक्षा होनी है और अलग-अलग अंदाज भी लगाये जाएंगे। लेकिन इसका एक संदेश साफ है कि वोटर को अपनी जेब में समझना किसी भी राजनीतिक दल के लिये नुक़सान का सौदा होगा और यही लोकतंत्र की सबसे बड़ी जीत है।