दूसरी ‘बहुजन क्रांति’ लाने की तैयारी में हैं राहुल गांधी?

06:03 pm Feb 02, 2025 | पंकज श्रीवास्तव

ऐसा लगता है कि राहुल गाँधी भारत में दूसरी ‘बहुजन क्रांति’ को लेकर गंभीर तैयारी कर रहे हैं। यह क्रांति प्रतिनिधित्व या भागीदारी के सवाल को सत्ता-सूत्रों पर ‘नियंत्रण’ से जोड़ रही है। दिल्ली में बहुजन बुद्धिजीवियों के बीच सामाजिक न्याय के मोर्चे पर कांग्रेस की असफलता को खुले रूप में स्वीकारना और क्यूबा के महान क्रांतिकारी फ़िदेल कास्त्रो की कहानी सुनाना बताता है कि राहुल गाँधी फ़ौरी नाकामियों की परवाह किये बिना कांग्रेस को ‘दूसरी बहुजन क्रांति’ की वाहक शक्ति बनाना चाहते हैं।

15 अगस्त 1947 को मिली स्वतंत्रता महज़ सत्ता हस्तांतरण नहीं था। इसने एक ऐसे भारत को जन्म दिया जो अतीत में कभी उपस्थित नहीं था। भारत की बहुसंख्यक आबादी का निर्माण करने वाले श्रमिकों, किसानों, शिल्पकारों को पहली बार यह अधिकार मिला था कि वे अपने फ़ैसले ख़ुद करें। एक ज़मींदार और उसका खेत जोतने वाला ‘एक वोट’ देने की समान शक्ति के साथ एक ही लाइन में खड़ा कर दिया गया। स्त्रियों को पहली बार पुरुष की अधीनता से क़ानूनी रूप से मुक्ति मिली। कुल मिलाकर यह ‘स्वतंत्रता’ सामाजिक दृष्टि से दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, अति पिछड़ों और स्त्रियों के लिए ‘अभूतपूर्व’ थी। संविधान ने अल्सपसंख्यकों के अधिकारों को सुरक्षित रखने का वादा करके समता के सिद्धांत को गहरा किया था। यह भारत की ‘पहली बहुजन क्रांति’ थी जो संविधान द्वारा सुरक्षित की गयी थी। संविधान एक ऐसी किताब है जिसने इस उपमहाद्वीप में पहली बार वैधानिक रूप से सभी को समान नागरिक माना।

ज़मींदारी उन्मूलन, हिंदू कोड बिल, सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण, आज़ादी के साथ ही दलितों और आदिवासियों का आरक्षण, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, हरित क्रांति, आदि न जाने कितने क्रांतिकारी क़दम उठाये गये जिसने भारत की बहुजन आबादी को पहली बार पंख दिये, लेकिन अब उनके उड़ने के लिए ऐसी योजनाओं का आकाश छोटा पड़ गया है। यही नहीं, इस क्रांति का वाहक रही कांग्रेस पार्टी भी समय के साथ अपनी प्रतिबद्धताओं से विचलित हो गयी जिसे राहुल गाँधी चिन्हित कर रहे हैं।

दिल्ली के ऐवाने ग़ालिब सभागार में 30 जनवरी को ‘वंचित समाज: दशा और दिशा’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में राहुल ने स्पष्ट कहा,  'मैं कह सकता हूँ कि कांग्रेस ने पिछले 10-15 सालों में वह नहीं किया जो उसे करना चाहिए था। अगर मैं यह नहीं कहता… तो मैं आपसे झूठ बोल रहा होता। और मुझे झूठ बोलना पसंद नहीं है। यही हकीकत है। अगर कांग्रेस पार्टी ने दलितों, पिछड़ों और अति पिछड़ों का विश्वास बनाए रखा होता तो आरएसएस कभी सत्ता में नहीं आता।’

ज़ाहिर है, आरएसएस को देश के लिए ख़तरनाक घोषित कर चुके राहुल गाँधी ने उसकी सफलता का विश्लेषण करने के क्रम में कांग्रेस पार्टी की ऐतिहासिक चूक को समझा है। ऐसे कठोर सत्य को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करना उन्हें दुर्लभ होती जा रही नेताओं की पाँत में खड़ा करती है जो नुक़सान की आशंका के बावजूद सत्य बोलने और उसे स्वीकार करने से परहेज़ नहीं करते। 

निश्चित ही राहुल गाँधी को यह बात साल रही है कि जिस कांग्रेस ने दलितों और आदिवासियों के लिए समय रहते ज़रूरी क़दम उठाये, वह पिछड़ों और अति पिछड़ों को भागीदारी देने के मामले में ज़रूरी उत्साह नहीं दिखा पायी। क्या इसके लिए कांग्रेस के आंतरिक ढाँचे में प्रभावी सामाजिक ढाँचा ज़िम्मेदार है?

राहुल गाँधी के नेतृत्व ने कांग्रेस-जनों के लिए दो कसौटियाँ तय कर दी हैं। एक ‘आरएसएस के सांप्रदायिक-फ़ासीवादी विचार’ से समझौताहीन संघर्ष और दूसरा ‘सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता।’ इसके लिए वे कांग्रेस के आंतरिक ढाँचे में व्यापक बदलाव के लिए तैयार दिखते हैं। उन्होंने इस सम्मेलन में 1959 की शुरुआत के साथ सफल हुई क्यूबा की क्रांति के नायक फ़िदेल कास्त्रो की कहानी सुनाई। कास्त्रो ने न्यूयॉर्क टाइम्स के पत्रकार को बताया था कि क्रांतिकारियों को मैनेजमेंट तो तानाशाह बतिस्ता सिखा रहा है। तमाम लोग या तो मारे जा जा रहे हैं या उससे डरकर क्रांति का रास्ता छोड़ देते हैं। जो बचते हैं, वह असल क्रांतिकारी हैं। राहुल के मुताबिक़ मोदी की दमनकारी नीतियाँ कांग्रेस को मज़बूत कर रही हैं। 'महलों में रहने वाले' लोग मोदी से डर कर कांग्रेस छोड़ गये जिन्हें ऐसे निकालना मुश्किल था। कांग्रेस राज में सत्ताशीर्ष पर रहने वाले तमाम राजनेता और उनके परिवार एजेंसियों के डर और सत्तासुख की चाहत में आज मोदी की जय-जयकार कर रहे हैं। राहुल गाँधी इसमें कमज़ोरी नहीं, कांग्रेस के लिए नयी संभावना देख रहे हैं। 

ऐसा लगता है कि राहुल गाँधी कांग्रेस के आंतरिक ढाँचे के मौजूदा सामाजिक समीकरणों से संतुष्ट नहीं है और बड़े बदलाव की चाहत रखते हैं। वे यह भी जानते हैं कि कांग्रेस की परंपरा और चरित्र को देखते हुए बड़े पैमाने पर लोगों को निकाल देना संभव नहीं है, लेकिन लड़ाई तेज़ होगी तो डरपोक और स्वार्थी लोगों का कांग्रेस में रहना मुश्किल हो जाएगा। साथ ही, बहुजन क्रांति को समर्पित सामाजिक शक्तियाँ कांग्रेस को अपना बना लेंगी। 

राहुल गाँधी यह भी देख रहे हैं कि मौजूद ‘स्ट्रक्चर' में बहुजनों को न्याय देने की क्षमता नहीं है। उदारीकरण का दौर शुरू करने के बावजूद कांग्रेस इसमें निहित ख़तरे को समझती थी, इसीलिए सार्वजनिक क्षेत्र को बनाये रखने का पूरा प्रयास किया गया और भोजन, सूचना, रोज़गार आदि तमाम अहम गारंटियों को संवैधानिक दर्जा दिया गया। 

लेकिन मोदी राज में न सिर्फ़ नागरिक अधिकारों को कमज़ोर किया गया है बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र को लगभग बेमानी बना दिया गया है जहाँ मिलने वाले आरक्षण के कारण बहुजन समाज में एक बड़ा मध्यवर्ग जन्म ले सका है।

राहुल गाँधी भागीदारी के सवाल को व्यवस्था के ‘कंट्रोल’ से जोड़कर बहुजन क्रांति को ‘नये चरण’ में ले जाना चाहते हैं। जिस 'मनुवादी व्यवस्था’ को क़ायम करने के लिए आरएसएस को प्रयासरत बताते हैं, वह वैधानिक कारणों से बहुजनों को राजनीति में प्रतिनिधित्व देने को मजबूर हैं, लेकिन जहाँ पर भी स्वायत्त या नियंत्रणकारी निकाय हैं वहाँ उन्हें लगभग अनुपस्थित कर दिया गया है। विश्वविद्यालयों के कुलपतियों से लेकर तमाम प्राधिकरणों, परिषदों आदि में नियुक्तियाँ इसकी गवाह हैं।

दुनिया के तमाम देशों की तरह भारत में ‘बंदूक़ की नली से निकलने वाली’ क्रांति नहीं हुई। भारत ने लोकतंत्र का मार्ग चुना जिसने संक्रांतियों की मुसलसल प्रक्रिया को जन्म दिया जो ज़्यादा टिकाऊ साबित हुई है। राहुल गाँधी की क्रांतिकारी भंगिमा इसी संक्रांति का नया चरण है। चुनावी राजनीति से अलग यह भविष्य के भारत के लिए अनिवार्य कसौटियाँ रच रही है।

राहुल की कसौटियाँ अन्य पार्टियों के साथ-साथ कांग्रेस के लिए भी चुनौती हैं। सवाल है कि कांग्रेस-जन राहुल गाँधी की बात को कितनी जल्दी समझते हैं? दूसरी ‘बहुजन क्रांति’ का वाहक बनने के लिए कांग्रेस को अपने सामाजिक चरित्र में व्यापक बदलाव लाने की ज़रूरत है। कांग्रेस के रायपुर अधिवेशन में इस दिशा में तमाम संकल्प पारित किये गये थे जिनका ज़मीन पर उतरना अभी बाक़ी है। कांग्रेस नयी ज़मीन तभी तोड़ सकती है जब वह उन संकल्पों पर गंभीरता से ध्यान देते हुए अपने ढाँचे को नयी गति और आकार दे, जिनकी ओर राहुल गाँधी बार-बार ध्यान दिला रहे हैं।