देश के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) पर लगे यौन शोषण के मामले में क्या सुप्रीम कोर्ट की जाँच कमेटी ने ग़लती की है। क्या मुख्य न्यायाधीश को बिना शिकायतकर्ता की बात को पूरी तरह सुने क्लीन चिट दे दी गई है? क्या सुप्रीम कोर्ट की जाँच कमेटी ने ऐसा करके सुप्रीम कोर्ट की मर्यादा भंग की है और क्या इस फ़ैसले से सुप्रीम कोर्ट की साख गिरी है? और यह शक बना रह गया है कि यौन शोषण मामले में कहीं न कहीं कुछ तो गड़बड़ है।
जाने-माने पत्रकार और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की जाँच कमेटी की धज्जियाँ उड़ा दी हैं। अरुण शौरी जो हमेशा से अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए मशहूर रहे हैं, का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट जजों का एक क्लब बनकर रह गया है और आनन-फानन में फ़ैसला करके शिकायतकर्ता के साथ नाइंसाफ़ी की गई है।
शौरी ने यह भी कहा है कि तीन सदस्यीय कमेटी के फ़ैसले से सुप्रीम कोर्ट और मुख्य न्यायाधीश, दोनों की साख को गहरा धक्का लगा है और दोनों के साथ नाइंसाफ़ी हुई है।
अरुण शौरी मशहूर न्यायविद और अर्थशास्त्री नानी पालकीवाला के शताब्दी समारोह में बोल रहे थे। अरुण शौरी वहाँ पर मुख्य अतिथि के तौर पर थे। मैं मंच पर उनके साथ बैठा हुआ था। एक वक़्ता के तौर पर मैंने भी वहाँ अपनी बात रखी थी लेकिन शौरी ने जिस तरीक़े से सुप्रीम कोर्ट की जाँच कमेटी पर तीख़े हमले किए उससे सभी लोग लाजवाब थे। शौरी की बातों में काफ़ी दम था। कुछ इसी तरीक़े की बात सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जज डी. वाई. चंद्रचूड़ ने भी कमेटी के चेयरमैन एस.ए. बोबडे को कही थी। शौरी का कहना था कि जाँच का जो तरीक़ा अपनाया गया, वह ठीक नहीं था।
शौरी ने इस बात पर हैरानी जताई कि 1997 में ख़ुद सुप्रीम कोर्ट ने भंवरी देवी बनाम राजस्थान सरकार के मामले में कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा के लिए विशाखा गाइडलाइंस बनाई थी। और ख़ुद सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा गाइडलाइंस को नहीं माना।
शौरी का कहना था कि विशाखा गाइडलाइंस के हिसाब से इस कमेटी की अध्यक्षता किसी महिला जज को करनी थी और इसमें किसी बाहर की अति प्रतिष्ठित महिला को सदस्य के तौर पर होना था। सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी बनाते समय इन दोनों ही बातों का ख़्याल नहीं रखा तो क्या यह कहा जाए कि सुप्रीम कोर्ट ख़ुद ही क़ानून बनाता है और ख़ुद ही उसका पालन नहीं करता।शौरी के मुताबिक़, सुप्रीम कोर्ट में भी कामकाज़ी महिलाओं की शिकायतों को सुनने के लिए एक कमेटी होनी चाहिए, जैसा कि दूसरी संस्थाओं से उम्मीद की जाती है।
शौरी का कहना था कि यह मामला उतना आसान नहीं था। एक तरफ़ देश के मुख्य न्यायाधीश थे तो दूसरी तरफ़ 35 साल की एक कनिष्ठ अधिकारी। जाँच करने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज थे, ऐसे में यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि महिला ने इतने सीनियर जजों की मौजूदगी में अपना पक्ष मज़बूती के साथ रखा होगा। क्योंकि सवाल-जवाब करने वाले मुख्य न्यायाधीश के साथ के लोग थे। शौरी ने यह भी कहा कि महिला को अपना पक्ष रखने के लिए वकील क्यों नहीं मुहैया कराया गया और उसकी माँग क्यों नहीं मानी गई। उनके मुताबिक़, ऐसा लगता है कि एस.ए. बोबडे के नेतृत्व वाली कमेटी अपने आप को एक क्लब मानकर चल रही थी।
शौरी ने कहा कि जाँच कमेटी ने यह मान लिया था कि एक संस्थान के तौर पर सुप्रीम कोर्ट का सम्मान बचाना ज़्यादा ज़रूरी है। पर क्या कोर्ट का सम्मान बचा? क्या मुख्य न्यायाधीश के आचरण को लेकर संदेह के बादल छंटे और क्या उस महिला के साथ न्याय हुआ?
शौरी का कहना था कि इस फ़ैसले से सुप्रीम कोर्ट, जस्टिस गोगोई और महिला तीनों के साथ नाइंसाफ़ी हुई है क्योंकि शक पूरी तरीक़े से ख़त्म नहीं हुआ है। ऐसे में न तो जस्टिस गोगोई का सम्मान बढ़ा और न ही महिला की इज्जत में इजाफ़ा हुआ।
शौरी ने यह भी कहा कि यह बात उनकी समझ के परे है कि महिला को कमेटी की रिपोर्ट क्यों नहीं दी गई? उसे इस बात को जानने का पूरा हक है कि किस आधार पर और कैसे उसकी दलील को खारिज कर दिया और जस्टिस गोगोई को क्लीन चिट दे दी गई।शौरी अकेले शख़्स नहीं हैं जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट की जाँच कमेटी के रवैये पर सवाल खड़े किए हैं। दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और बेहद सम्मानित जज एपी शाह का कहना है कि जाँच कमेटी के फ़ैसले से वह बहुत परेशान हैं और इसे किसी भी तरीक़े से जाँच नहीं कहा जा सकता और इससे किसी का भला नहीं हुआ। वह महिला सिर्फ़ एक वकील की माँग कर रही थी और इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसकी पूर्ति नहीं की जा सकती थी।
इसके साथ ही उन्होंने इस बात पर भी सवाल खड़े किए कि महिला का अपना बयान भी और कमेटी की रिपोर्ट भी उसे यह कहकर नहीं दी गई कि यह गोपनीय है। उनके मुताबिक़, सुप्रीम कोर्ट का देश में बहुत सम्मान है और ऐसा कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए जिससे उनकी साख पर बट्टा लगे, वरना ऐसे फ़ैसलों से सदियों तक संस्थाओं को नुक़सान पहुँचता है। हालाँकि उन्होंने कहा कि मैं किसी के चरित्र पर कोई सवाल नहीं खड़े कर रहा हूँ और न नही मैं किसी के चरित्र पर कोई फ़ैसला सुना रहा हूँ लेकिन जिस तरीक़े से जाँच हुई है वह ठीक नहीं है।
ज़ाहिर है कि जाँच कमेटी की रिपोर्ट ने सवालों के जवाब देने की जगह कई नए सवाल खड़े कर दिए हैं। ये सवाल कटु हैं और तकलीफ़देह भी। इससे न केवल सुप्रीम कोर्ट की गरिमा को धक्का पहुँचा है बल्कि यह ध्वनि भी निकली है कि सुप्रीम कोर्ट ख़ुद को क़ानून के ऊपर समझता है। यह बात इसलिए भी ज़्यादा ख़तरनाक है क्योंकि संविधान की रक्षा करना और देश, क़ानून के हिसाब से चले, यह सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट की है, ऐसे में अगर उसके अपने मामले में सवाल खड़े हुए तो बात आसानी से नहीं रुकेगी।