क्या सवा सौ साल पुराना क़ानून कोरोना से निपटने में कारगर होगा?

06:56 am Mar 22, 2020 | लालबाबू ललित - सत्य हिन्दी

कोरोना ने समूचे विश्व को हिलाकर रख दिया है। दुनिया के इतिहास ने कई महामारियों को देखा है। कई बार मानव प्रजाति महामारी के सामने मजबूर हुई है। हर बार मानव जाति ने धैर्य और साहस के साथ इस पर विजय पायी है। 1918 में फैले स्पेनिश फ्लू को मानव इतिहास में अब तक की सबसे बड़ी महामारी कहा जाता है जिसने क़रीब 5 करोड़ लोगों की जान ले ली।

आधुनिक भारत के संदर्भ में यदि देखा जाए तो 1897 में बॉम्बे प्रान्त में फैले प्लेग ने तत्कालीन ब्रिटिश शासन को हिला कर रख दिया था। भयावहता ऐसी थी कि हर सप्ताह बॉम्बे प्रान्त में मरने वालों की तादाद 1,900 तक पहुँच गयी थी।  चारों तरफ अफरातफरी मची हुई थी।

 बॉम्बे के मांडवी से शुरू हुआ पहला केस इतनी तेजी से फैलने लगा कि प्लेग से मरने वालों की दर प्रति हजार 22 थी। 

बॉम्बे प्रान्त में हाहाकार  

सितम्बर 1896 में बॉम्बे प्रान्त के मांडवी में गेब्रियल वेगास ने प्लेग महामारी के पहले केस का पता लगाया। गोवा में 1856 में जन्मे गेब्रियल मेडिकल प्रैक्टिसनर थे। साथ ही वह बॉम्बे म्युनिसिपल कारपोरेशन के अध्यक्ष भी थे। यह काफी तेजी से बॉम्बे प्रांत के दूसरे हिस्सों में फ़ैल गया। बॉम्बे प्रान्त से लोगों का भारी संख्या में पलायन शुरू हुआ।  

डॉ. गेब्रियल वेगास की खोज की पुष्टि के लिए विशेषज्ञों की चार स्वतंत्र टीमें बुलाई गई। महामारी फैलने के पहले ही साल में जे. जे. हॉस्पिटल में एक रिसर्च लेबोरेटरी स्थापित की गयी।

जब प्लेग की पुष्टि हो गयी तब बॉम्बे के गवर्नर ने इस आपदा से निजात पाने के लिए रूस के बैक्टेरिओलॉजिस्ट सर वाल्डेमर वोल्फ हफ्फ्किन को आमंत्रित किया, जो कॉलरा जैसी महामारी का वैक्सीन ईजाद कर चुके थे।

एपिडेमिक एक्ट 1897 

प्लेग की इस आपदा से जैसे-तैसे लड़ा जा रहा था। इससे लड़ने की कोई ठोस रूपरेखा पहले से तय नहीं थी। अधिकांश अधिकारी एक दूसरे का मुँह देख रहे थे। संपन्न लोग  बॉम्बे छोड़कर भाग रहे थे। जमशेद जी टाटा ने उत्तर भारतीय गरीब और मिल मजदूरों को बाहर निकालने में और अन्य तरह की ख़ूब मदद की।

पुलिस सर्च, आइसोलेशन, सड़क पर निकलने वालों को डिटेंशन कैंप में डाल देना, जैसे एंटी प्लेग क़दम प्रशासन द्वारा किये जा रहे थे। अधिकारियों की जोर जबरदस्ती के कारण आम नागरिकों में खूब ग़ुस्सा पनपा, जिसकी परिणति स्पेशल प्लेग कमिटी चेयरमैन डब्ल्यू. सी. रैंड की हत्या के रूप में हुई।

यही वह समय था जब तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमतों ने ऐसी विपदा और महामारी से निपटने के लिए एक व्यवस्थित क़ानून की ज़रूरत महसूस की और यह एपिडेमिक डिजीज एक्ट 1897 वजूद में आया।

सबसे छोटे कानूनों में से एक 

एपिडेमिक डिजीज़ एक्ट हिंदुस्तान के सबसे छोटे कानूनों में से एक है जिसमें मात्र 4 धारायें हैं।  पहला सेक्शन इसके टाइटल और इसके विस्तार की बात करता है। दूसरा सेक्शन सरकार को मिले विशेष अधिकार की बात करता है। 

तीसरा सेक्शन इस क़ानून के उल्लंघन करने पर सज़ा के प्रावधान की बात करता है जो इंडियन पीनल कोड की धारा 188 से संचालित होता है। चौथा सेक्शन इसे लागू करवाने वाले ऑफिसर्स को मिली क़ानूनी सुरक्षा की बात करता है।

क़ानून साफ़ कहता है कि अगर सरकार इस बात से संतुष्ट है कि वह राज्य या उसके किसी विशेष हिस्से में महामारी के फैलने का खतरा उत्पन्न हुआ है या होने की आशंका है और मौजूदा क़ानून और प्रावधान इस आपात स्थिति से निबटने में अपर्याप्त है, तब ऐसी स्थिति में राज्य इस कानून का इस्तेमाल कर सकता है। 

अधिकारियों को अतिरिक्त अधिकार मिले हैं, वे रेल, बस या अन्य सार्वजानिक यातायात से सफर कर रहे आम नागरिकों की जाँच, आइसोलेट कर सकते हैं, अस्पतालों में दाखिल करवा सकते हैं।

सेक्शन 2 A केंद्र सरकार को असीम अधिकार देते हुए कहता है कि राज्य के किसी भी बंदरगाह पर आने वाले या वहाँ से किसी दूसरी जगह को जाने वाले जहाज़ और उसमें यात्रा कर रहे या यात्रा का इरादा रखने वाले व्यक्ति की जाँच और उसको हिरासत में लेने का अधिकार सरकार को है।

एपिडेमिक एक्ट की ख़ामियाँ 

118 साल पहले बने इस कानून की कई सीमाएं हैं। क़ानून समुद्री यात्रा पर किये जाने वाले उपायों की बात तो करता है, जबकि हवाई यात्रा पर चुप है।  इसका कारण यह है कि जिस समय यह क़ानून वजूद में आया, हवाई यात्रा नगण्य थी।

इस क़ानून में दूसरी ख़ामी, यह है कि यह महामारी की  स्थिति में आइसोलेशन और क्वरेंटाइन मात्र पर जोर देता है जबकि महामारी को फैलने से रोकने, उसके नियंत्रण के वैज्ञानिक तौर तरीकों पर पूरी तरह चुप है। 

आज जब केंद्र राज्य संबंधों में व्यापक बदलाव आये हैं, 118 साल पहले बना यह क़ानून महामारियों के फैलाव को रोकने और उससे बचाव में पूरी तरह सक्षम नहीं है। अगर कोरोना का फैलाव इटली और चीन जैसा हुआ तो सरकार के पास अपने हाथ खड़े कर देने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं होगा।

इसलिए ज़रूरी है कि इस पुराने क़ानून में बदलाव लाकर, वैज्ञानिक शोधों पर जोर दिया जाए और अन्य ज़रूरी प्रावधानों को जोड़ा जाय और उन्हें प्राथमिकता से लागू किया जाए।