बुर्क़ा और घूंघट, दोनों ही जाएँ

10:40 am May 04, 2019 | डॉ. वेद प्रताप वैदिक - सत्य हिन्दी

केरल की मुसलिम एजुकेशन सोसायटी ने श्रीलंका सरकार की ही तरह अपने यहाँ छात्राओं के बुर्क़ा पहनने पर रोक लगा दी है। उसने बुर्क़ा शब्द का प्रयोग नहीं किया है लेकिन कहा है कि छात्राएँ ऐसा कपड़ा न पहनें, जिससे उनका चेहरा छिप जाता हो। जाहिर है कि बुर्के़ में जो नक़ाब लगा होता है, वह चेहरे को बिल्कुल छिपा देता है। उसके होने पर यह जानना आसान नहीं रहता कि बुर्के़ के अंदर कौन है वह आदमी है या औरत है आतंकवादी इसी भ्रमजाल का फायदा उठाकर हमला कर देते हैं। 

इस मुसलिम एजुकेशन सोसायटी के लगभग डेढ़ सौ स्कूल चलते हैं। ये भारत के साथ-साथ कई अरब देशों में भी हैं। इस संस्था ने अपने सभी स्कूलों के लिए यह नियम बनाया है। यह नियम बनाते समय इस संस्था ने केरल उच्च न्यायालय के पिछले साल के एक निर्णय को उद्धृत किया है, जिसमें कहा गया है कि ‘धर्म या आधुनिकता के नाम पर ऐसी वेश-भूषा को मान्यता नहीं दी जा सकती, जो समाज में स्वीकार्य नहीं है।’ यानी बिकिनी या बुर्क़ा, दोनों ही केरल के मलयाली स्कूलों में नहीं चल सकते। 

केरल के कई मुसलमान नेताओं ने माना है कि इस तरह की वेश-भूषा मलयाली सभ्यता के विरुद्ध है। मलयाली मुसलमान अरबों के नकलची क्यों बनें इस बारे में मुझे यह कहना है कि एक अच्छा मुसलमान बनने के लिए यह जरूरी नहीं है कि हर बात में अरबों की नकल की जाए। भारतीय मुसलमानों को इस मामले मे इंडोनेशिया के मुसलमानों को अपना आदर्श बनाना चाहिए। उनके नाम कैसे होते हैं सुकर्ण, सुहृत, मेघावती आदि! वे रामायण और महाभारत की कथा करते हैं और उनके कथानकों पर मनोहारी नाटकों का आयोजन करते हैं। क्या वे हमारे या पाकिस्तानी मुसलमानों के मुक़ाबले घटिया मुसलमान हैं 

इंडोनेशिया में भी बुर्क़े पर प्रतिबंध है। वास्तव में अरबों का बुर्क़ा और भारतीय महिलाओं का घूंघट या पर्दा, दोनों ही नारी अपमान के प्रतीक हैं।

हिंदुओं की इस पर्दा-प्रथा का महर्षि दयानंद और आर्य समाज ने कड़ा विरोध किया था। मुसलमानों में ही कोई ऐसी समाज-सुधारक जमात पैदा क्यों नहीं होती दाढ़ी, टोपी, बुर्क़ा, पाजामा, कुर्बानी, मांसाहार- ये ही इस्लाम नहीं हैं। असली इस्लाम तो एक अल्लाह में विश्वास है। बाकी सब बाहरी प्रपंच हैं, जैसे कि हिंदुओं में चोटी, जनेऊ, तिलक, छाप वग़ैरह हैं।