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समाज में विभाजन राजनीतिक हुनर नहीं, श्राप है!

समाज में विभाजन राजनीतिक हुनर नहीं, श्राप है!

यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ ने कांवड़ यात्रा मार्ग पर खाने-पीने का सामान बेचने वाले होटलों, ढाबों, रेहड़ी-पटरी वालों को अपने मालिकों के नाम प्रदर्शित करने का आदेश क्यों दिया? इसका सीधा-सीधा मतलब क्या है?

29 नवंबर 1948 को संविधान सभा में अनुच्छेद-17 (ड्राफ्ट अनुच्छेद-11) पर बहस शुरू हुई। इसमें अस्पृश्यता को खत्म करने पर बात की गई थी। पूरी संविधान सभा ने एक स्वर में इस अनुच्छेद का समर्थन किया। संविधान सभा ने और बाद में 1950 में लागू हुए पूर्ण संविधान में अनुच्छेद-17 के हवाले से घोषणा की गई कि- "अस्पृश्यता" को समाप्त कर दिया गया है और किसी भी रूप में इसका अभ्यास निषिद्ध है। "अस्पृश्यता" से उत्पन्न किसी भी किस्म की अपात्रता को लागू करना कानून के अनुसार दंडनीय अपराध होगा। लेकिन संविधान सभा में कुछ सदस्य ऐसे भी थे जो इस अनुच्छेद में संशोधन करना चाहते थे। इनमें से एक थे, पश्चिम बंगाल से संविधान सभा के सदस्य, नजीरउद्दीन अहमद। उन्होंने सभा के सामने इस अनुच्छेद में संशोधन करके कुछ इस रूप में पेश किया- किसी को भी उसके धर्म या जाति के आधार पर 'अछूत' नहीं माना जाएगा; और किसी भी रूप में इसका पालन कानून द्वारा दंडनीय बनाया जा सकता है।'' 

स्पष्ट है कि नजीरउद्दीन अहमद के संशोधन में अस्पृश्यता के संबंध में जाति के साथ साथ धार्मिक आधार को भी शामिल किया गया था। क्योंकि उन्हें शक था कि भविष्य में धार्मिक आधार पर अस्पृश्यता सामने आ सकती है। लेकिन ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष बी.आर. अंबेडकर ने न सिर्फ इस संशोधन को मानने से इंकार कर दिया बल्कि साथी सदस्य नजीरउद्दीन अहमद को इस संबंध में कोई जवाब देने से भी मना कर दिया। हो सकता है अंबेडकर को लगा हो कि जातीय आधार पर हजारों सालों से चली आ रही अस्पृश्यता के उन्मूलन को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, न कि धार्मिक अस्पृश्यता को। लेकिन नजीरउद्दीन अहमद की सोच निश्चित रूप से भविष्य की चिंता से संबंधित थी। उनका भय भी जायज था। संभवतया वो यह जानते रहे हों कि भविष्य में यदि कुछ ऐसा हुआ तो राष्ट्रीय एकता और अल्पसंख्यक दोनों सुरक्षित रह सकेंगे। मुझे लगता है कि वक्त आ गया है कि अनुच्छेद-17 को विस्तारित करके इसमें धार्मिक अस्पृश्यता को भी शामिल कर लिया जाए।

हाल में घटी एक घटना अनुच्छेद-17 के विस्तार की वकालत करती है। मुजफ्फरनगर (UP) के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक(SSP) ने प्रेस कॉंफ्रेंस करके कहा कि- "कांवड़ यात्रा की तैयारी शुरू हो गई है। हमारे अधिकार क्षेत्र में, जो लगभग 240 किमी है, सभी भोजनालयों, होटलों, ढाबों और ठेलों (सड़क किनारे ठेले) को अपने मालिकों या दुकान चलाने वालों के नाम प्रदर्शित करने का निर्देश दिया गया है…”। SSP साहब क्या कहना चाहते हैं यह डिकोड करना कोई रॉकेट साइंस नहीं है। दुकानदारों द्वारा अपना नाम सामने रखना निश्चित रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित मसला तो नहीं है। यह स्पष्ट है कि उपर्युक्त आदेश स्पष्ट धार्मिक पहचान को सामने लाने से जुड़ा है। लेकिन मुद्दा यह है कि धार्मिक पहचान क्यों जरूरी है? आखिर क्यों जरूरी है यह जानना कि रास्ते में पड़ने वाली दुकान किस धार्मिक समुदाय से संबंधित है? क्या यह इसलिए है कि धार्मिक आधार पर किसी समुदाय विशेष का ‘बहिष्कार’ किया जा सके? या धार्मिक आधार पर किसी समुदाय को ‘अस्पृश्य’ घोषित किया जा सके? शिव और पार्वती की आराधना से संबंधित इस काँवड़ यात्रा को धार्मिक वैमनस्य का मैदान बनाने की कोशिश क्यों की जा रही है? 

सत्ता का चरित्र तो समझ में आ रहा है लेकिन जिन लोगों ने संविधान की शपथ ली है, जो संघ लोकसेवा आयोग जैसी प्रतिष्ठित संस्था द्वारा चुनकर आए हैं, जिनका एक दायित्व राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना भी है, क्या उन्हें ऐसे आदेश देने चाहिए थे? यह कैसा धार्मिक उत्सव मनाने की कोशिश की जा रही है जिसका प्रशासनिक संचालन नाजी जर्मनी के प्रशासन से मेल खाता दिख रहा है। वो नाजी जर्मनी जिसने यहूदी दुकानों, घरों और अन्य इमारतों पर खास किस्म के चिन्ह बना दिए थे ताकि उन्हे आसानी से टारगेट किया जा सके। UPSC की परीक्षा पास करके आए SSP साहब को समझ आना चाहिए था कि यह खेल बहुत ख़तरनाक है। उन्होंने निश्चित रूप से पढ़ा होगा कि इस किस्म के बहिष्कार की अंतिम परिणति भी वही हो सकती है जो नाजी जर्मनी में यहूदियों की हुई थी। 

धार्मिक आधार पर दुकानों की पहचान यह एक कोई अलग-थलग घटना नहीं है बल्कि एक बड़े वृत्त की अलग-अलग जीवाएं (Chords) हैं। किसी की लंबाई (प्रभाव) कम है किसी की ज्यादा। यह वृत्त आरएसएस और बीजेपी की रेखागणित का हिस्सा है। छोटी जीवाएं जैसे- शुभेंदु अधिकारी और हिमन्त बिस्वा सरमा। पश्चिम बंगाल बीजेपी की राज्य कार्यकारिणी बैठक में बीजेपी विधायक और विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने कहा कि अब हमें ‘सबका साथ सबका विकास’ स्लोगन छोड़ देना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि पार्टी में अल्पसंख्यक मोर्चा भी रखने की जरूरत नहीं है। शुभेंदु का यह निम्नस्तरीय संभाषण तब आया है जबकि उनकी पार्टी के सर्वोच्च नेता नरेंद्र मोदी पिछले दस सालों से ‘सबका साथ, सबका विकास.....’ स्लोगन को रटने में लगे हुए हैं, यह अलग बात है कि वह स्वयं इसका पालन करते हुए नजर नहीं आते हैं। 

शुभेंदु की तकलीफ यह है कि पश्चिम बंगाल में उनकी असफलता अब उनके राजनैतिक करिअर को खा जाने के लिए तैयार है और इसके लिए अपनी अक्षमता को दोष देने के बजाय वो मुस्लिमों को दोष देना ज्यादा सुविधाजनक समझ रहे हैं। क्योंकि आज के भारत में मुस्लिमों को टारगेट करना ‘राजनैतिक प्रगति’ का साधन बन गया है।

इसी प्रगति के साधन का इस्तेमाल असम के मुख्यमंत्री हिमन्त बिस्वा सरमा भी करने में लगे हुए हैं। सरमा, वोट पाने के लिए ‘लव जिहाद’ और ‘लैंड जिहाद’ जैसे नफरती विचारों को आगे बढ़ा रहे हैं। संवैधानिक पद (अनुच्छेद-164) पर बैठे होने के बावजूद मुसलमानों को लेकर झूठे तथ्य प्रसारित कर रहे हैं जोकि संविधान का उल्लंघन है; ‘इस्लामोफोबिया’ पैदा कर रहे हैं जोकि राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा है। सरमा, जो अपने बाढ़ग्रस्त राज्य असम, को छोड़कर झारखंड के चुनाव प्रभारी बने घूम रहे हैं, उन्होंने कहा कि 1951 में असम में मुसलमानों की जनसंख्या 14% थी जोकि अब 40% हो गई है। जबकि सच यह है कि 1951 में असम में मुसलमानों की जनसंख्या 24% थी जोकि नवीनतम आंकड़ों में 34% है। राज्य के मुख्यमंत्री के मुख से यह झूठ शोभा नहीं देता। संविधान ने उन्हें इतनी शक्ति इसलिए नहीं दी कि वो इसका प्रयोग एक समुदाय के खिलाफ घृणा फैलाने में करें। लेकिन अफसोस कि वो ऐसा कर रहे हैं। 

शुभेंदु हों या सरमा और ऐसे ही कई अन्य ये सब छोटी जीवाएं हैं। ये सभी सबसे बड़ी जीवा अर्थात व्यास से अपनी शक्ति लेती हैं। यह सबसे बड़ी जीवा हैं पीएम नरेंद्र मोदी। मेरे विचार से वो पूरी तरह बायोलाजिकल हैं और अल्पसंख्यकों के खिलाफ अपनी विचारधारा और कुछ धनपतियों के बलबूते सत्ता तक पहुँचे हैं, पहले गुजरात में और पिछले दस सालों से केंद्र में। हिंदुओं के मन में मुसलमानों का भय, यह बीजेपी की मूल विचारधारा है जिसका संबंध सत्ता प्राप्ति से है। इसीलिए जब चुनाव आता है और सत्ता खिसकने का भय सताता है तब पीएम पद पर बैठे होने के बावजूद मोदी अपनी भाषा शैली को मुसलमानों के खिलाफ जाने से रोक नहीं पाते हैं। बीते 21 अप्रैल को चुनाव रैली के दौरान, राजस्थान में नरेंद्र मोदी ने कहा कि "जब वे पिछली बार सत्ता में थे, तो कांग्रेस ने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है। इसका क्या मतलब है? अगर वे सत्ता में आए, तो इसका मतलब है कि वे सारी संपत्ति हड़प लेंगे। और वे इसे किसे देंगे? उन लोगों को जिनके ज़्यादा बच्चे हैं। घुसपैठियों को।" इससे साफ है कि नरेंद्र मोदी के लिए मुसलमान, घुसपैठिया और ज्यादा बच्चे पैदा करके संपत्ति हड़प लेने वाला, एक जैसे शब्द ही हैं। ज्यादा बच्चे पैदा करने संबंधी उनकी टिप्पणी यह पहली बार नहीं आई है।

उनके मन की यह बात पहले भी लोगों के सामने आ चुकी है। 2002 के गुजरात दंगों के बाद जब हजारों की संख्या में मुसलमान शरणार्थी शिविरों में रह रहे थे और मोदी (तत्कालीन मुख्यमंत्री) पर इन शिविरों की अनदेखी का आरोप लग रहा था तब बजाय इसका समाधान करने के मोदी चुनावी रैलियों में इन शिविरों को ‘बेबी प्रोड्यूसिंग फैक्ट्रीज़’ कह रहे थे। दो दिन बाद ही 23 अप्रैल को मोदी ने एक भाषण में कहा कि कांग्रेस हिंदुओं के मंगलसूत्र छीन लेगी और इसे अपने वोट बैंक को दे देगी। यह समझना कठिन नहीं है कि पीएम मोदी किस ‘वोट बैंक’ की बात कर रहे थे। मोदी कहना चाहते हैं कि काँग्रेस मुसलमानों को देश की संपत्ति बाँट देगी, संसाधन उनके नाम कर देगी, इसलिए अगर इससे बचना है तो मुझे वोट दो। वोट बटोरने के लिए देश की अखंडता से समझौता समझदारी भरी राजनीति नहीं है। मोदी जी ने यह कहकर भी डराया कि अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ा वर्ग का आरक्षण काँग्रेस मुसलमानों को दे देगी। मोदी जी की बातों को सुनकर लगेगा कि पूरा देश मुसलमानों को दे दिया गया है या दे दिया जाएगा। जबकि तथ्य इसके उलट हैं। 

भारत 1947 में आजाद हुआ और आज स्थिति यह है कि उच्च शिक्षा में मुस्लिम छात्रों का नामांकन मात्र 4.5% है। भारतीय पुलिस सेवा में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व 3% से भी कम है। लगभग यही हाल IAS जैसे पदों पर है, जहां मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व 3-4% के मध्य ही है।

यदि कुल सरकारी नौकरियां में देखें तो यह प्रतिशत 5% से अधिक नहीं जाता। आँकड़े स्पष्ट कर रहे हैं कि 95% से अधिक स्पेस अभी भी हिंदुओं के लिए छूटा हुआ है इसके बावजूद मुसलमानों के खिलाफ भ्रम और भय फैलाने में बीजेपी के छोटे से कार्यकर्ता से लेकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक शामिल हैं। 

इसी भ्रम और भय को बोकर सत्ता की फसल काटने की तैयारी थी जोकि असफल रही। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य ने यह दिखा दिया कि भारत को हिन्दू और मुस्लिमों में बांटने की रणनीति को सफल नहीं होने दिया जाएगा। राज्य ने यह संदेश दिया कि समाज को बाँटने की क्षमता रखना कोई हुनर नहीं बल्कि श्राप है और इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है। लेकिन शायद बीजेपी अभी भी सबक नहीं सीख रही है, इसीलिए प्रशासन की आड़ में मुसलमानों को टारगेट करने और धार्मिक खाई को बढ़ाने की योजना बना रही है ताकि आने वाले यूपी विधानसभा उपचुनावों में जीत हासिल कर सके। मुझे व्यक्तिगत रूप से यह लगता है कि बीजेपी की यह योजना प्रदेश का पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक कामयाब नहीं होने देगा। मुजफ्फरनगर में जारी किया गया ‘अनिवार्य’ सरकारी फरमान यद्यपि मायावती, अखिलेश यादव और तमाम अन्य विपक्षी नेताओं के प्रतिरोध के बाद ‘स्वैच्छिक’ कर दिया गया है लेकिन, जैसा कि कुछ अतिवादी हिन्दू संगठनों की इच्छा थी, अल्पसंख्यकों में भय का प्रवाह हो चुका है, धार्मिक अस्पृश्यता को बढ़ावा मिल चुका है। जोकि निश्चित रूप से एक स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान नहीं है।       

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