दो राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे बता रहे हैं कि बाज़ी बराबर पर छूटी है। एक राज्य बीजेपी के खाते में गया और एक राज्य इंडिया गठबंधन के खाते में। लेकिन गोदी मीडिया के लिए जम्मू-कश्मीर में बीजेपी को मिली हार का कोई मतलब ही नहीं है। वह हरियाणा में मिली जीत का ढोल बजाकर जम्मू-कश्मीर में बीजेपी की विफलता को नेपथ्य में डालना चाहता है। जबकि यह हार सिर्फ़ बीजेपी की नहीं, आरएसएस की पूरी विचारधारा की है। अनुच्छेद 370 हटाने से लेकर राज्य का दर्जा छीनने तक, मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर के साथ जो-जो किया, उसे इंडिया गठबंधन को जिताकर जनता ने पूरी तरह नकार दिया है।
हरियाणा में कांग्रेस और बीजेपी के बीच एक फ़ीसदी से भी कम वोटों का अंतर रहा है और वहाँ बीजेपी की जीत चुनावी मैदान में दिख रही जन-भावना के बिलकुल उलट है। किसान, जवान, पहलवान के प्रति बीजेपी सरकार का ग़ुस्सा किसी कल्पना की उपज नहीं था। सारे चुनावी सर्वेक्षण एक ही दिशा में इंगित करते हुए बता रहे थे कि लोगों में बीजेपी सरकार को लेकर भारी नाराज़गी है। स्वतंत्र पत्रकार और पर्यवेक्षक भी यही बता रहे थे लेकिन बीजेपी फिर भी जीत गयी। कांग्रेस ने धाँधली के जो आरोप लगाये हैं, वे काफ़ी गंभीर हैं जिनकी जाँच होना लोकतंत्र पर जनता का भरोसा बनाये रखने के लिए ज़रूरी है।
बहरहाल, थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाये कि हरियाणा के नतीजे बिना किसी धाँधली के आये हैं तो भी यह कोई ऐसी जीत नहीं है जिससे लोकसभा चुनाव में बहुमत न जुटा पाने वाले पीएम मोदी को फिर से महाबली ठहराया जा सके। हरियाणा में न उनकी रैलियों में लोग जुटे और न उन्हें बड़ी तादाद में लोग सुनने को ही तैयार थे। अंत समय में तो पोस्टरों से भी मोदी जी का चेहरा हटा लिया गया था। ज़ाहिर है, हरियाणा में मिली जीत अप्रत्याशित है लेकिन इसके सहारे जम्मू-कश्मीर में मिली पराजय को छिपाने की कोशिश की जा रही है जो बीजेपी ही नहीं आरएसएस के बड़े सैद्धांतिक प्रयोग की हार भी है।
मोदी सरकार का दावा है कि उसने दस साल में जम्मू-कश्मीर की तस्वीर पूरी तरह बदल दी है। तमाम आतंकी हमलों और घटनाओं को दरकिनार करते हुए घाटी में शांति लाने का वह ज़ोरदार दावा करती है। अनुच्छेद 370 हटाना तो बीजेपी के पूर्व अवतार जनसंघ के समय ही मुद्दा रहा है जो उसके मुताबिक़ कश्मीर को स्वर्ग बनाने के लिए ज़रूरी था। इसके लिए उसने संविधान-सभा बुलाना तो दूर विधानसभा से भी प्रस्ताव पास कराना ज़रूरी नहीं समझा और राज्यपाल में ही विधानसभा की शक्ति को समाहित मान लिया था। यही नहीं, इतिहास में पहली बार किसी से पूर्ण राज्य का दर्जा छीनकर केंद्र शासित बनाया और राज्य का विभाजन भी कर दिया। यह सब जनता की ख़ुशहाली के नाम पर किया गया था लेकिन दस साल बाद हुए चुनाव में मतदान के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए इंडिया गठबंधन को पूर्ण बहुमत देकर जनता ने बीजेपी को दाँव-पेच पर अपना गु़स्सा निकाला है। यह ग़ुस्सा प्रेस की आज़ादी और अन्य नागरिक अधिकारों के दमन के ख़िलाफ़ भी निकला है।
जम्मू-कश्मीर में जीत हासिल करने के लिए केंद्र की मोदी सरकार ने वह सब किया जो वह कर सकती थी। पहला खेल तो परिसीमन के नाम पर किया गया। जिस जम्मू में बीजेपी मज़बूत मानी जाती है वहाँ की सीटें बढ़ा दी गयीं। जम्मू क्षेत्र में छह नयी विधानसभा सीटें जोड़ी गयीं जबकि कश्मीर में सिर्फ़ एक। इन छह नयी सीटों में बीजेपी ने पाँच पर जीत हासिल की है। जम्मू में पहले 37 और कश्मीर में 46 सीटें थीं जो इस बार बढ़कर जम्मू में 43 और कश्मीर में 47 हो गयी थीं। यानी कुल 90 सीटों पर चुनाव हुए। जब लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर दिया गया तब राज्य विधानसभा में सिर्फ़ 107 सीटें रह गयी थीं। पुनर्गठन अधिनियम में इन सीटों को बढ़ाकर 114 कर दिया गया। इनमें 90 सीटें जम्मू-कश्मीर के लिए और 24 पाक अधिकृत कश्मीर के लिए हैं।
तमाम दावों के बावजूद लोकसभा चुनाव में बीजेपी कश्मीर घाटी में चुनाव लड़ने का साहस नहीं जुटा सकी थी। 2024 में उसने जम्मू की दो सीटों पर तो उम्मीदवार उतारे थे लेकिन कश्मीर घाटी की तीनों सीटों पर कोई उम्मीदवार नहीं उतारा।
केंद्र में सरकार चला रही किसी पार्टी के लिए यह शर्मनाक है कि उसे देश के किसी हिस्से में इस तरह पराया महसूस किया जाये। या वह ख़ुद ऐसा करे।
विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही हुआ। घाटी की 47 सीटों में बीजेपी ने महज़ 19 पर प्रत्याशी उतारे थे। पार्टी ने दावा किया था कि जनता बीजेपी की ओर आशा भरी निगाह से देख रही है, लेकिन यहाँ उसका खाता भी नहीं खुला। बीजेपी ने जो 29 सीटें जीतीं, वे सभी जम्मू क्षेत्र की हैं। बीजेपी की पूरी कोशिश इंडिया गठबंधन के मतदाताओं में बिखराव का फ़ायदा उठाने की थी। इसके लिए कई उग्रपंथियों को जेल से निकलकर चुनाव लड़ने की सुविधा दी गयी। यहाँ तक कि प्रतिबंधित जमाते-इस्लामी के सदस्यों को निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया गया। रणनीतिक रूप से ऐसे तमाम उम्मीदवार खड़े किये गये जिससे इंडिया गठबंधन को नुकसान पहुँचे। आतंकी फ़ंडिंग के आरोप में जेल में बंद इंजीनियर रशीद ने लोकसभा चुनाव में उमर अब्दुल्ला को हराकर सनसनी मचा दी थी। उन्हें भी 11 सितंबर को जेल से रिहा कर दिया गया।
हद तो ये है कि अपनी विभाजनकारी राजनीति के तहत नेशनल कॉन्फ़्रेंस को पाकिस्तान-परस्त साबित करने की कोशिश की गयी जिसने अनुच्छेद 370 की पुनर्बहाली के लिए क़ानूनी रास्ता अख़्तियार करने का वादा किया था। इस मुद्दे पर कांग्रेस को भी कठघरे में खड़ा किया गया। यह भी कहा गया कि पूर्ण राज्य की बहाली सिर्फ़ बीजेपी कर सकती है, बिना इस बात का जवाब दिये कि आख़िर केंद्र शासित प्रदेश बनाकर जनता के अधिकार को छीनने का ‘पाप’ भी उसी ने किया था।
बीजेपी की पूरी रणनीति जम्मू-कश्मीर में ‘त्रिशुंक’ विधानसभा लाने की थी। ताकि वह कुछ निर्दलीयों और अपने प्रॉक्सी दलों के साथ मिलकर सरकार बनाने में क़ामयाब हो जाये। पाँच एग्ज़िट पोल में ‘हंग असेंबली’ की भविष्यवाणी भी की गयी थी। इसी योजना के तहत मतदान के बाद उपराज्यपाल की ओर से पाँच सदस्यों के मनोनयन का प्रस्ताव भी आ गया ताकि ज़रूरत पड़ने पर बहुमत का इंतज़ाम हो सके। लेकिन जम्मू-कश्मीर की जनता किसी भ्रम में नहीं पड़ी। उसने बीजेपी की सारी साज़िश की हवा निकाल दी। यहाँ तक कि जिस पीडीपी ने पिछली बार सबसे ज़्यादा (28) सीट जीतकर बीजेपी के साथ सरकार बनायी थी उसे भी बड़ा सबक़ सिखाते हुए तीन सीटों पर समेट दिया। इंजीनियर रशीद की अगुवाई वाली अवामी इत्तेहाद पार्टी के 44 उम्मीदवारों में एक भी नहीं जीत पाये। किसी किंतु-परंतु की गुंजाइश को नकारते हुए जनता ने अकेले नेशनल कान्फ्रेंस को 42 सीटों पर विजय दिला दी। साथ में कांग्रेस को छह और सीपीएम को भी एक सीट मिली। यानी इंडिया गठबंधन के पास 49 सीटें आ गयीं।
अब अगर उपराज्यपाल महोदय पाँच सीटों पर मनोनयन करते हैं तो भी सरकार पर आँच नहीं आयेगी क्योंकि तब कुल सीटें बढ़कर 95 हो जायेंगी। यानी बहुमत के लिए 48 सीटों की ही ज़रूरत होगी। बदली परिस्थिति में कई निर्दलीय भी इंडिया गठबंधन को समर्थन दें तो आश्चर्य नहीं।
इसके बावजूद गोदी मीडिया जम्मू-कश्मीर चुनाव में बीजेपी और आरएसएस के बड़े वैचारिक प्रयोग की क़रारी हार पर चर्चा नहीं कर रहा है। उल्टा ये बता रहा कि बीजेपी हार कर भी जीत गयी क्योंकि कश्मीर में शांतिपूर्ण चुनाव हुए और बड़ी तादाद में लोगों ने बेख़ौफ़ होकर वोट दिया। हक़ीक़त ये है कि जम्मू-कश्मीर में 2014 की तुलना में 1.12% कम मतदान हुआ। तब 65% वोट पड़े थे जबकि 2024 में मतदान का आँकड़ा 63.88% ही रहा।
हरियाणा की जीत पर दिखाये जा रहे अति उत्साह का कारण यही है। हरियाणा की जीत को पर्दा बनाकर जम्मू-कश्मीर में आरएसएस-बीजेपी की क़रारी वैचारिक पराजय को ढँकने की कोशिश हो रही है। ग़ौर से देखिए तो लोकसभा चुनाव के बाद हुए एनडीए और इंडिया गठबंधन के बीच मुक़ाबला अनिर्णीत रहा है। देश का मूड समझने के लिए महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव का इंतज़ार करना होगा जहाँ हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के साथ चुनाव करवाने की हिम्मत मोदी सरकार दिखा ही नहीं पायी।