तीस जनवरी को श्रीनगर के ‘शेर ए कश्मीर क्रिकेट स्टेडियम’ में मूसलाधार बारिश की तरह हो रही थी बर्फपात। वक्त था राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के समापन कार्यक्रम का। नेशनल कांफ्रेस के नेता उमर अब्दुला के भाषण के बीच स्थानीय अखबार ‘तालीम ए इरशाद’ के संपादक जान मोहम्मद ने मुझसे कहा कि आज की तारीख में कश्मीर में जनता के बीच राहुल गांधी की जो लोकप्रियता है वह देश के राष्ट्रीय नेताओं में कभी नेहरू जी को ही मिली थी। घाटी में ऐसी लोकप्रयिता इंदिरा गांधी, राजीव गांधी ,वीपी सिंह जैसे लोगों को भी नहीं मिली थी।
हड्डियों तक को कपकपा देने वाली ठंड में बर्फ से जमें खुले क्रिकेट स्टेडियम के इस मैदान में बामुश्किल दो तीन हजार लोग थे। तकरीबन सभी छाता लिए थे। मंच के सामने बिछाई गई सैकड़ों कुर्सियां खाली पड़ी थी। उन पर कोई बैठ भी नहीं सकता था। दर्शक दीर्घा में भी बहुत कम लोग थे। लेकिन मल्लिकार्जुन ख़डगे, प्रियंका गांधी सहित कांग्रेस के दूसरे वरिष्ठ नेता और विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने अंत्यंत खराब मौसम और इस मामूली भीड़ के चलते दो तीन मिनटों में अपनी बात पूरी की। राहुल गांधी ने मौसम और भीड़ की बिना परवाह किए तकरीबन चालीस मिनट तक अपना भाषण जारी रखा। शायद उन्हें जम्मू कश्मीर में हुई चार दिन की अपनी पैदल यात्रा में अपने प्रति यहां के लोगों के प्रेम और अपनत्व का अहसास हो चुका था।
मौसम इतना खराब था कि दिल्ली से इस कार्यक्रम को कवर करने गए कई पत्रकार होटल में अपने कमरे से निकलने की हिम्मत नहीं कर के। जो गए थे, उनके वाहन को स्टेडियम के दो तीन किलोमीटर पहले रोक कर स्टेडियम तक बर्फ और पानी में गीले जूते और गीले हो रहे कपड़ों के साथ चलने के लिए मजबूर किया गया। जान मोहम्मद ने बताया खराब मौसम और सुरक्षा वजहों से यहां लोग नहीं पहुंच पाए है। अनंतनाग और आसपास के इलाकों से भी कई लोग आ रहे थे, पर उन्हें रोक दिया गया। दो दिन आफिस बंद रखा गया, दूकाने बंद रखी गई ताकि पैदल यात्रा में लोग शामिल ना हो सके। इस कार्यक्रम में उन्ही को आने की इजाजत दी गई जिन्होंने पहले परिमिशन ली थी, जिन्हें टैग मिला था। दूसरे राज्यों की आई कुछ महिला कार्यकर्ताओं को मैंने सुरक्षाकर्मियों के आगे गिड़गिड़ाते देखा। वे बता रही थी कि उड़ीसा से वे आई हैं , केवल इसी के लिए, पर उन्हें गेट के बाहर रोक दिया गया।
वैसे उन कार्यकर्ताओं और समर्थकों की तारीफ करनी पड़ेगी जो इस मौसम में मीलों तक चल कर वहां पहुंचे थे। इनमें छाता लिये कई महिलाएं भी थी। दर्शकों के लिए बनी स्टेडियम की गैलरी में ऊपर लगे एस्बेस्टस के छत की वजह से बर्फपात से कुछ राहत मिल रही थी, इनमें चंद पत्रकारों के अलावा कुछ दर्शक भी शामिल थे। पर वे निराश थे क्योंकि बर्फपात की वजह से मंच पर बैठे नेताओँ को वो वहां से ठीक से ना तो देख पा रहे थे और ना ही पूरी तरह सुन पा रहे थे।
बहरहाल सात सितबंर से कन्याकुमारी से शुरू हो 29 दिसबंर को श्रीनगर में खत्म हुई पांच महीने की इस पैदल यात्रा की वजह से राहुल गांधी की छवि और लोकप्रियता को कितना लाभ पहुंचा, मोदी के मुकाबले उनके राजनीतिक कद में कितना इजाफा हुआ, कांग्रेस को इस भारत जोड़ो यात्रा से कितना राजनीतिक फाएदा मिलेगा, ये एक अलग विषय है। मेरी समझ से भारत जोड़ो यात्रा के जरिए राहुल गांधी ने एक सबसे महत्वपूर्ण काम वह किया है जिसे ले कर देश के तमाम राजनीतिक विश्लेषक लंबे समय से यह कहते आ रहे है कि मोदी और भाजपा जिस तरह एक नया राजनीतक नैरेटिव खड़ा कर राजनीति और जनता के बीच सफल हुए है, उसके मुकाबले जब तक कांग्रेस या विपक्ष एक ठोस राष्ट्रीय राजनीतिक नैरटिव नहीं खड़ा करती तब तक चुनावी राजनीति में भाजपा का मुकाबला नहीं किया जा सकता। यात्रा से वह नैरेटिव खड़ा करने में राहुल गांधी सफल रहे हैं। उस नैरेटिव को राजनीतिक पार्टियां और आम जनता समझने भी लगी है।
समापन कार्यक्रम में केवल दो मिनट के अपने भाषण में पीडीपी नेता और जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने जो कहा वह इसी बात की तरफ संकेत देती है। उन्होंने कहा कि,“इस यात्रा से उम्मीद बंधी है कि देश में गांधी जी की विचारधारा को गोडसे की जिस विचारधारा से छीना गया है वह वापस आएगी।“ साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, गैरकांग्रेसवाद जैसे पुराने नारों और हिंदुत्व को दरकिनार कर संघ और भाजपा के रणनीतिकारों ने राष्ट्रवाद की एक नई अवधारणा खड़ी की, देश के अच्छे खासे हिस्से को प्रभावित करने में सफल हुई, यहां तक कि सत्ता में आने के बाद इस नव-राष्ट्रवाद के कारपेट के नीचे अपनी तमाम असफलताओं को, मंहगाई, बेरोजगारी, नोटबंदी और जीएसटी जैसी नीतियों से उत्पन्न समस्याओं को दबाने में सफल रही है।
हांलाकि मोदी या संघ रणनीतिकारों द्वारा खड़ा किया यह नव राष्ट्रवाद आजादी के आंदोलन में नरमपंथी नेताओं के उठाए गए राष्ट्रवाद से अलग है। भाजपा और संघ का यह राष्ट्रवाद हिंदुत्व से ही जुड़ा है। राष्ट्रवाद की इस आड़ में वह चुनावी सफलता के साथ अपने हिंदुत्व के पुराने एंजेडे को भी पूरा भी कर रही है। धारा 370 हो, राम मदिर का मुद्दा हो, या फिर पाठ्य पुस्तकों को बदलना हो। राष्ट्रवाद के नाम पर हिंदू राजाओँ को राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बना कर खड़ा किया जा रहा है। इस नए राष्ट्रवाद के प्रचार प्रसार में मीडिया ने भी बड़ी भूमिका निभाई। इसका यह असर हुआ कि इतिहास में बगैर प्रमाणों को रह रह कर सामने लाए जा रहे नए शोधो की काल्पनिक दलीलों को राष्ट्रवाद के नाम पर पढ़े लिखे लोग ना केवल मान रहे है, बल्कि उन्होंने जाने माने इतिहासकारों की पूरी मेहनत, पूरे काम को कूड़ेदान में डालकर उन्हें वामपंथी, कांग्रेसी और अंग्रेजों का दरबारी बना दिया है। आरसी मजूमदार, आर एस चौधरी जैसे विद्वानों को भी नहीं छोड़ा गया।
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इसमें संदेह नहीं कि इस नए नैरेटिव की वजह से मनमानी नीतियों को लादने के बावजूद प्रधानमंत्री और भाजपा सरकार जनता के एक बड़े हिस्से को प्रभावित किए हुए हैं। धर्मनिरेपक्षता, सांप्रदायिकता जैसे नारे अपना सहीं अर्थ खो कर एक परपंरागत नारे की तरह काम करने लगे हैं। इसमें भारत के जिस प्राचीन गौरव की बात की गई और इस गौरव को वापस लाने की ज़िम्मेदारी मोदी को सौंप दी गई है। यह नया राष्ट्रवाद देश की सीमा सुरक्षा के मामले में भी देश का केवल इस्लामी देश पाकिस्तान तक ही सीमित है। चीन सीमा में घुसा है या नहीं यह इनके राट्रवाद में नहीं है।
राहुल गांधी ने अपनी पूरी यात्रा में धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता को परिभाषित करने की कोई कोशिश नहीं की। उन्होंने लगातार यहीं कहा कि इस राष्ट्र में देश के प्रति दो तरह की सोच है, दो विचारधारा है, दो तरह की राष्ट्रीय भावना है। एक जो बांटने का काम करती है, धर्म के आधार पर, जाति के आधार पर, क्षेत्रीयता के आधार पर, सांस्कृतिक विभिन्नता के आधार पर और दूसरी विचारधारा वह है जो जोड़ने पर विश्वास रखती है, देश की विभिन्नता में एकता के प्राचीन अवधारणा पर विश्वास करती है, जो नफरत की जगह परस्पर प्रेम और भाईचारे को कायम कर जनहित, देशहित और राष्ट्र को समग्र विकास की दिशा में ले जाने पर विश्वास करती है। कुछ जनसभाओं में तो उन्होंने विचारधारा की जगह यह भी कहा कि दो तरह का भारत बन गया है। एक नफरत पैदा कर, लोगों को विभाजित कर सत्ता की राजनीति पर विश्वास करता है, दूसरा अलग है। यह आप को तय करना है आप किस विचारधारा के साथ खड़े हैं।
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राहुल ने धर्मनिरपेक्षता की नहीं बल्कि उसकी जगह धर्म के आधार पर जनता को बांटने की भाजपाई रणनीति की बात बताई। यह बात लोगों को समझ में आने लगी है। अब कांग्रेस या दूसरी विपक्षी पार्टियों को इस नैरेटिव के आधार पर राममंदिर या ज्ञानव्यापी के मुद्दे की तरह रामचरित मानस पर बांटने की नई कोशिश में तुलसीदास या मानस के पक्ष या विपक्ष में तर्क देने की कोशिश नहीं करनी पड़ेगी। केवल यह समझाना पड़ेगा कि यह उन्ही का शगूफा है जो देश के लोगों को बांट कर, नफरत फैला सत्ता हासिल करना चाहते हैं।
इतना ही नहीं राहुल गांधी ने प्यार और भाईचारे के आधार पर खड़े किये गए राष्ट्रवाद के इस नए नैरेटिव में सामाजिक न्याय, आर्थिक विषमता, फेडरल स्ट्रक्चर, समाजवाद और गांधीवाद के आधार पर लघु उद्योगों, कुटीर उद्योगों की जरूरतों, उनसे जुड़े रोजगार के अवसर जैसी नीतियों पर जोर दिया है। उन्होंने यात्रा के दौरान एकाध प्रेस कांफ्रेस में यह भी साफ किया है कि वे निजी पूंजी के खिलाफ नहीं है, एकाधिकार पूंजी के खिलाफ है। यह ऐसा नैरेटिव है जिसमें समाजवाद, क्षेत्रीयता, फेडरल नीतियों को लेकर लड़ने वाली राज्यस्तर पर खड़ी की गई पार्टियां, सभी के लिए जगह है।
यह भी सच है कि राहुल गांधी अपनी 3600 किलोमीटर की पैदल यात्रा की वजह से ही देश में यह नैरिटव खड़ा करने की कोशिश में काफी हद तक सफल हुए है। अगर वह यहां प्रेस कांफ्रेस, एकाध जगह पर आयोजित की गई रैलियों के जरिए यह सब बताने की कोशिश की गई होती तो मौजूदा राष्ट्रीय मीडिया इसे कब का खा चुका होता। दक्षिण भारत तक तो यह पहुंचता ही नहीं। उनके इस प्रयास का असर हुआ है। आम जनता ही नहीं, निराश हो चुके राजनीतिक पार्टियों में आशा बंधने लगी है।
अगर ऐसा नहीं होता तो श्रीनगर में महबूबा मुफ्ती यह उम्मीद नहीं जताती कि “गोडसे की जिस विचारधारा ने देश से गांधी की विचारधारा को छीना है इस यात्रा से उम्मीद बंधी है कि वह वापस आएगी।“ महबूबा मुफ्ती ने यह बात 30 जनवरी को कही थी, जिस दिन गांधी जी पुण्यतिथि थी। इसी तरह उमर अब्दुला उसी मंच से यह ऐलान नहीं करते कि राहुल गांधी ने इस तरह की यात्रा फिर निकालेंगे तो वे उसमें शामिल होंगे।