क्यों आज फिर जलने लगी है बाबा साहेब आंबेडकर की मशाल?

07:10 am Oct 28, 2022 | रविकान्त

14 अक्टूबर 1956 को नागपुर की दीक्षाभूमि अपने 3 लाख 80 हजार अनुयायियों के साथ बाबा साहब डॉ. आंबेडकर ने हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म अपनाया था। 66 साल के बाद आज धम्मदीक्षा पुनः सुर्खियों में है। दरअसल, हिंदुत्व के उभार और आक्रमण के कारण बहुजन समाज बाबा साहब के दिखाए रास्ते की ओर चल पड़ा है। दिल्ली, जयपुर, लखनऊ सहित अनेक स्थानों पर बौद्ध सम्मेलन हो रहे हैं। इनमें बाबा साहब द्वारा दिलाई गई 22 प्रतिज्ञाओं को दोहराया जा रहा है। बौद्ध संगठनों का दावा है कि हजारों की संख्या में हिंदू बौद्ध धर्म की ओर लौट रहे हैं। इससे हिंदुत्ववादी ख़ेमे में बौखलाहट है। दिल्ली में 22 प्रतिज्ञाओं के कारण आम आदमी पार्टी के पूर्व मंत्री राजेंद्र पाल गौतम को थाने बुलाकर उनसे करीब 8 घंटे पूछताछ की गई। इससे पहले, हिंदुत्व के नए झंडाबरदार अरविंद केजरीवाल के दबाव में राजेंद्र पाल गौतम ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था।

अछूत होने के दंश को सहते हुए बाबा साहब अपनी तीक्ष्ण मेधा के कारण इंग्लैंड और अमेरिका उच्च शिक्षा के लिए गए। भारत लौटने के बाद डॉ. आंबेडकर अछूतों के दंश को मिटाने के लिए सक्रिय हो गए। कांग्रेस के स्वाधीनता आंदोलन के साथ में दलितों-वंचितों के सामाजिक-आर्थिक आजादी के सवाल को उन्होंने मुखर किया। 

'जाति का विनाश' के प्रकाशन से लेकर तमाम आंदोलनों और सभा-सम्मेलनों में बाबा साहब इस विचार को बार-बार दुहराते हैं कि हिंदू धर्म में रहते हुए दलित मुक्त नहीं हो सकते। हिन्दू धर्म असमानता, अन्याय, अपमान और शोषण पर आधारित सामाजिक व्यवस्था है। जाति और वर्ण के रहते हुए दलितों की आजादी संभव नहीं है। अक्टूबर 1935 में येवला में डिप्रेस्ड क्लासेज के प्रतिनिधियों के एक सम्मेलन में डॉ. आंबेडकर ने ऐलान किया कि वे 'हिंदू होकर पैदा ज़रूर हुए हैं लेकिन हिंदू होकर मरेंगे नहीं।' दो दशक बाद उन्होंने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धम्म अपनाया। इसे उन्होंने दलितों की घर वापसी माना।

दरअसल, बाबा साहब ने अपनी किताब 'क्रांति और प्रति क्रांति' में लिखा है कि पुष्यमित्र शुंग और अन्य हिंदू शासकों ने वर्ण व्यवस्था को कठोरता से लागू किया। बौद्ध भिक्षुओं का क़त्लेआम करके बौद्ध धर्मावलंबियों को अछूत बनाया। यही अछूत आज का दलित है। बाबा साहब के इस मत के अनुसार हिंदू धर्म छोड़कर दलित अपने मूल बौद्ध धर्म की ओर लौट रहे हैं। 

लेकिन यहाँ एक दूसरा प्रश्न उठाया जा रहा है। संविधान लागू होने के बाद, क्या वास्तव में आंबेडकर को धर्मांतरण की आवश्यकता थी? 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा के अपने आखिरी भाषण में आंबेडकर ने कहा था कि वह अनुसूचित जातियों-जन जातियों के हितों के संरक्षण के लिए संविधान सभा में आना चाहते थे। लेकिन जब उन्हें प्रारूप समिति का सदस्य बनाया गया तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। इससे भी ज्यादा आश्चर्य तब हुआ जब सर अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर जैसे वरिष्ठ सदस्य के बावजूद उन्हें इसका अध्यक्ष चुना गया। बहरहाल, अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता का अंत कर दिया गया। 

अवसर की समानता के मूल अधिकार में आरक्षण का प्रावधान करके दलितों-आदिवासियों के अधिकारों को संरक्षित कर दिया गया। इसके बाद भी बाबा साहब धर्मांतरण करते हैं। क्या उन्हें अपने ही बनाए संविधान पर भरोसा नहीं था? अथवा कोई और कारण था, जिसे वह भाँप रहे थे।

विदित है कि भारत को आजादी विभाजन के साए में मिली। विभाजन के समय सीमा-सरहद के इलाकों में भयानक मारकाट हुई। लाखों मौतें हुईं और मानवीय इतिहास का सबसे बड़ा पलायन भारत को सहना पड़ा। इस माहौल में नफरत, हिंसा और विभाजन की दीवारें खड़ी कर दी गईं। पाकिस्तान से आने वाले सिखों और हिंदुओं को भारत में रह रहे मुसलमानों के खिलाफ भड़काया गया।

हिंदू महासभा, आरएसएस तथा अन्य हिंदू संगठन देश की आज़ादी को पचा नहीं पा रहे थे। उनकी मंशा भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की थी। हिंदू राष्ट्र का मतलब वर्ण व्यवस्था तले सवर्णों का शासन और वर्चस्व होता। लेकिन लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक व्यवस्था में साधारण जनों के हाथ में शासन सत्ता की बागडोर आती देखकर सवर्ण हिंदुत्ववादी शक्तियों का बेचैन होना स्वाभाविक था। इसलिए ये शक्तियां संविधान सभा से लेकर संसद के बाहर और शहरों में अवरोध पैदा कर रही थीं।

स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी चुनौती विभाजनकारी सांप्रदायिक और वर्णवादी शक्तियों को रोकना था। इस बीच 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने गांधी जी की हत्या कर दी। समाजशास्त्री आशीष नंदी का कहना है कि गांधी की हत्या उनका आत्म उत्सर्ग है। हिंदुत्ववादी शक्तियों के साथ गोडसे के रिश्ते बेपर्दा हो गए। हिंदू महासभा की छवि धूल में मिल गई। आरएसएस को बैन कर दिया गया। गांधी की हत्या ने इन सांप्रदायिक ताक़तों को पृष्ठभूमि में जाने के लिए मजबूर कर दिया। इसके बाद दूसरा मुक़ाबला जवाहरलाल नेहरू ने किया। चुनावी जमीन पर मात देने के लिए नेहरू ने मोर्चा संभाला। 1952 का पहला आम चुनाव हिंदुत्व बनाम राष्ट्रवाद का कुरुक्षेत्र बन गया। नेहरू ने चुनावी प्रचार की शुरुआत पंजाब से की। लुधियाना की 5 लाख की जनसभा में नेहरू ने चेतावनी देते हुए कहा, "ये शैतानी सांप्रदायिक तत्व अगर सत्ता में आ गए तो देश में बर्बादी और मौत का तांडव लेकर आएंगे।" बंगाल की एक चुनावी सभा में नेहरू ने जनसंघ को आरएसएस और हिंदू महासभा की 'नाजायज औलाद' तक कह दिया। नेहरू अपनी हर सभा में जनता से पूछते थे कि उन्हें कैसा भारत चाहिए, पाकिस्तान जैसा धार्मिक राष्ट्र या  बहुसांस्कृतिक धर्मनिरपेक्ष भारत? पहली बार मतदान करने वाले भारतीय नागरिकों ने बहु सांस्कृतिक धर्मनिरपेक्ष भारत को चुना। कांग्रेस को बड़ी सफलता मिली। चुनाव के ज़रिए नेहरू ने हिंदुत्व को बौना साबित कर दिया।

गांधी और नेहरू से भी ज्यादा हिंदुत्व का ख़तरा आंबेडकर और उनके समाज के लिए था, जिसकी खातिर बाबा साहब जीवन भर जूझते रहे। इसका सबसे विध्वंसकारी प्रभाव दलित-वंचित और स्त्री समाज पर होना था। बाबासाहब बहुत पहले से इसका मुकाबला कर रहे थे।

1940 में बीबीसी को दिए इंटरव्यू में और अपनी किताब 'पाकिस्तान और द पार्टीशन ऑफ इंडिया' में आंबेडकर ने बड़ी मुखरता से कहा था कि 'हिंदूराष्ट्र देश के बहु जनों के लिए आपदा साबित होगा। इसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।' डॉ. आंबेडकर ने इस आपदा का मुकाबला करने के लिए 1956 में दीक्षाभूमि में क्रांति का बीजारोपण किया। बाबासाहब के धर्मांतरण को लंबे समय तक महज एक घटना के रूप में देखा गया। आज इसके मायने समझ में आ रहे हैं। बाबा साहब ने अपनी दूरदृष्टि से हिंदुत्व के खतरे को भाँप लिया था। इसीलिए उन्होंने इसके अभियान का मुकाबला करने के लिए एक वैचारिक रास्ता दिखाया। 22 प्रतिज्ञाएं क्रांति की मशाल की तरह प्रज्वलित हो रही हैं।

बाबा साहब का धर्मांतरण महज एक घटना नहीं बल्कि बहुजन क्रांति का बीजारोपण था। इसके प्रभाव का अंदाजा हिंदू महासभाई सावरकर की प्रतिक्रिया से लगाया जा सकता है। विदित है कि बाबा साहब ने जब हिंदू धर्म त्यागने का ऐलान किया था, तब हिंदू महासभा और दूसरे हिंदुत्ववादी संगठनों ने डॉ. आंबेडकर के विचार से सहमत होते हुए उन्हें सिख धर्म अपनाने की सलाह दी थी। लेकिन जब बाबा साहब ने बौद्ध धर्म अपनाया तो हिंदुत्ववादियों की छाती पर सांप लोटने लगे। 30 अक्टूबर 1956 को 'केसरी' में सावरकर ने लिखा, "डॉ. आंबेडकर ने अपने कुछ लाख अनुयायियों के साथ जो संप्रदाय बदल किया था या उसे वे चाहें तो धर्मांतरण कहें, बौद्ध धर्म के लिए उनके मन में कोई प्रगाढ़ भक्ति उत्पन्न हुई, इसलिए नहीं किया। उनके मन के अंधियारे कूप में एक हिंदू राष्ट्रघाती महत्वाकांक्षा छिपी बैठी है।" इतना ही नहीं। 'बौद्ध धर्म स्वीकार कर तुम असहाय हो जाओगे' लेख में सावरकर ने बेहद अपमानजनक और घृणास्पद भाषा में लिखा, "डॉ. आंबेडकर नामक व्यक्ति भिक्षु आंबेडकर हो जाए तो भी किसी हिंदू को किसी तरह का सूतक नहीं लगने वाला है। न हर्ष न विमर्श, जहाँ स्वयं बुद्ध हार गए वहाँ आंबेडकर किस झाड़ की पत्ती हैं।"

आज हिंदुत्ववादी सत्ता में हैं। बाबा साहब के चित्र पर माला चढ़ाकर वे उनकी जयंती मनाते हैं। पंचतीर्थ बनाकर वे दलितों को भ्रमित करके उनका इस्तेमाल कर रहे हैं। बाबा साहब और उनके विचारों के प्रति उनके मन में कोई श्रद्धा नहीं है। असली भावना सावरकर के शब्दों में छुपी हुई है। यही विद्वेष आज के हिंदुत्ववादियों के मन में हैं। लेकिन आज बाबा साहब के विचार और धर्मांतरण सीधे हिंदुत्व को चुनौती दे रहे हैं। 22 प्रतिज्ञाएँ तो जलती मशाल हैं।