किसानों के अलावा मजदूर विरोधी विधेयक भी लाई है मोदी सरकार

09:24 am Sep 21, 2020 | प्रीति सिंह - सत्य हिन्दी

वैश्विक महामारी कोविड-19 के खौफ के साये में रह रहे भारत के किसानों व मजदूरों पर बीजेपी सरकार कहर बनकर टूटी है। केंद्र सरकार ने 5 विधेयकों के माध्यम से न सिर्फ ग़रीबों व मजदूरों के हक छीने हैं, बल्कि देश व दुनिया की कंपनियों को अद्वितीय तोहफे भी दिए हैं। सरकार ने तीन दशकों से वैश्विक उद्योगपतियों की ओर से चल रही मांग को कोरोना की आड़ में एक झटके में पूरा कर दिया है।

मोदी सरकार ने अल्पकालीन मॉनसून सत्र के दौरान 5 अहम विधेयक पारित कराए हैं। इसमें 3 किसानों, 1 मजदूरों व 1 कंपनियों से सीधे तौर पर जुड़े हैं। इन पांचों विधेयकों में एक साझा बात यह है कि ये उद्योग जगत को लाभ पहुंचाने वाले हैं।

किसानों से जुड़े विधेयक पर इस समय चर्चा होनी जरूर शुरू हुई है, लेकिन श्रमिकों के अधिकार छीनने व कंपनियों को सहूलियतें देने वाले विधेयकों पर चर्चा कम है। ये सभी विधेयक हैं- 1. कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक, 2020, 2. किसानों (सशक्तिकरण और संरक्षण) का मूल्य आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवा विधेयक, 2020 3. आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 4. पेशेवर सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कामकाज की स्थिति (ओएचएस) संहिता विधेयक, 2020 और 5. कंपनी (संशोधन) विधेयक, 2020

ओएचएस संहिता विधेयक, 2020

आइए, सबसे पहले बात करते हैं मजदूरों पर लाए गए विधेयक “पेशेवर सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कामकाज की स्थिति (ओएचएस) संहिता विधेयक, 2020” की, जिस पर चर्चा कम हो रही है। इस विधेयक के माध्यम से सरकार ने ठेका श्रमिक प्रणाली को उदार बना दिया है। अगर श्रमिकों की संख्या 50 तक है तो उन पर ठेका श्रम कानून लागू नहीं होगा और कारोबारी अपनी मर्जी और सहूलियत के मुताबिक़ कर्मचारियों को रख सकेंगे। 

अनुबंध पर रखे श्रमिकों के माध्यम से विभिन्न परियोजनाएं चलाने वाले प्रतिष्ठानों को इसके लिए सिर्फ एक लाइसेंस लेने की ज़रूरत होगी। इस कानून में प्रावधान है कि उद्योग अपनी ज़रूरत के हिसाब से नियत अवधि के लिए ठेके पर श्रमिकों की नियुक्ति कर सकते हैं। 

किसी भी क्षेत्र या उद्योग को लेकर कोई पाबंदी नहीं है और न ही इसमें ठेकेदार को शामिल करने की जरूरत है। इसमें नियुक्ति की कोई अवधि तय नहीं की गई है। ओएचएस संहिता में कहा गया है कि “किसी भी प्रतिष्ठान में मुख्य गतिविधियों के लिए ठेके पर श्रमिकों की नियुक्ति प्रतिबंधित है।” 

मुख्य गतिविधि उसे कहा गया है, जिसके लिए प्रतिष्ठान स्थापित किया गया है, उस प्रतिष्ठान में साफ-सफाई, सुरक्षा, कैंटीन, बागवानी आदि का काम सहायक गतिविधि है। लेकिन फर्मों को ठेके पर श्रमिकों की नियुक्ति करने की स्वतंत्रता भी दी गई है और मुख्य गतिविधि में अचानक काम बढ़ने पर ठेके पर श्रमिक रखने की सहूलियत दी गई है।

ऐसे समझिए विधेयक को

यानी कुल मिलाकर देखें तो इसका आशय यह निकलता है कि अगर कोई कंपनी टीशर्ट बनाती है तो उसके प्रोडक्शन मैनेजर से लेकर मार्केटिंग की टीम, क्वालिटी कंट्रोलर और शीर्ष प्रबंधन के लोग तो स्थायी सेवा में होंगे, लेकिन जो उसकी सिलाई, कढ़ाई करते हैं, बटन लगाने का काम करते हैं, उन्हें ठेके पर रखा जाएगा, जिनकी नौकरी हमेशा अधर में लटकी रहेगी। 

मौजूदा अनुबंध श्रमिक कानून को “अनुबंध श्रमिक (नियमन और उन्मूलन) अधिनियम, 1970” के नाम से जाना जाता है, जिसमें स्थाई कर्मचारियों को प्रोत्साहित किया गया है और ठेके पर श्रमिक रखने की व्यवस्था खत्म करने पर जोर दिया गया है। शनिवार 19 सितंबर, 2020 को पारित विधेयक इस कानून की जगह लेगा, जिसमें कंपनियों को ठेके पर श्रमिक रखने की छूट दी गई है।

किसान विधेयकों पर तर्क

अब किसानों पर लाए गए 3 विधेयकों पर बात। सरकार का कहना है कि इससे किसानों को इच्छित जगहों पर अपना अनाज बेचने का अधिकार मिलेगा और मंडी में अनाज बेचने की मजबूरी खत्म होगी। दरअसल, स्वतंत्रता के बाद किसानों को शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए सरकारी मंडियां व सहकारी समितियां बनाई गई थीं। 

अगर हम मौजूदा स्थिति देखें तो उत्तर भारत के ढाई राज्यों, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा पर ही इसका सीधा असर पड़ने जा रहा है। इन्हीं ढाई राज्यों से सरकारी खरीद होती है, जिसे पिछले ढाई-तीन दशक से सरकार की कई समितियां खत्म करने या कम करने की सिफारिशें कर रही हैं।

इसकी वजह यह है कि तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार को गेहूं, धान जैसे चिह्नित अनाज की खरीद करनी होती है, जिसमें मोटी रकम लगती है। यह खरीद अमूमन उत्तर भारत के ढाई राज्यों से होती है, जिसका असर पूरे देश पर इसलिए पड़ता है कि वही मानक दर बन जाती है। अन्य अनाजों, फलों के लिए यहां सशक्त मंडियां हैं, जहां किसानों की फसल की आवक के मुताबिक़ उत्पाद की दरें तय होती हैं।

सरकारी खरीद का पता भी नहीं

पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार सहित देश के अन्य राज्यों के किसान तो जानते भी नहीं हैं कि सरकारी खरीद किस चिड़िया का नाम है। कहीं कोई सरकारी खरीद होती ही नहीं है। लेकिन गेहूं, धान के मानक दाम तय हो जाते हैं, इसलिए उन्हें खुले बाजार में अपने उत्पाद बेचने पर भी कोई दिक्कत नहीं आती है और उससे थोड़ा कम दाम उन्हें मिल जाता है। ऐसे में किसी किसान से बात करेंगे कि उसे अपना अनाज खुले बाजार में बेचने का “हक” मिल गया है तो वह सिर्फ हंस या रो सकता है। इसकी वजह यह है कि उसे अपने उत्पाद खुले बाजार में ही बेचने पड़ते हैं। हां, जिन इलाकों में मंडी व्यवस्था बेहतर है, वहां ज़रूर उन्हें कुछ बेहतर दाम मिल जाते हैं।

ठेके की खेती पर विवाद

झगड़े की दूसरी वजह ठेके की खेती है। इसमें किसान उद्योगपतियों से समझौते कर उनकी ज़रूरत के मुताबिक़ फसल उगाएंगे। कहने के लिए तो यह किसानों की सुविधा के लिए होगा, उनका कच्चा माल बर्बाद नहीं होगा, लेकिन इससे उनके खेत कंपनियों के अधिकार में आने की पूरी संभावना है। 

कृषि विधेयक के पहलुओं को समझिए, इस बहस के जरिए- 

मजदूर बनने को मजबूर होगा किसान

खासकर अमेरिका का उदाहरण लें, वहां 5,000 एकड़ की जोत वाले किसान हैं। दरअसल, वे कोई किसान नहीं, बल्कि उद्योगपति हैं जो वैल्यू एडेड प्रोडक्ट, जैसे कैचप, चिप्स, सॉस आदि बनाते हैं और स्थानीय लोगों को मजदूर रखकर कॉर्पोरेट खेती कराते हैं। विभिन्न समझौतों के माध्यम से भारत में भी कंपनियां कुछ ऐसा ही कर सकती हैं, जिसमें किसान का खेतों से अधिकार छिन जाएगा और धीरे-धीरे वह उद्योगपतियों का भुगतान प्राप्त मजदूर बन जाएगा। 

यह समझना बहुत कठिन नहीं है कि किस तरह से कंपनियां किसानों को ऑफर देकर समझौते करेंगी और उनके खेत अपने अधिकार में लेकर उन्हें खेत मजदूर बनने को मजबूर कर देंगी।

बेरोक-टोक भंडारण की बात

तीसरा विधेयक कहता है कि कारोबारी जितनी मर्जी हो, कृषि उत्पादों का भंडारण कर सकते हैं। अब तक कृषि उत्पादों के भंडारण की सीमा तय है। कृषि उत्पाद सीजनल होते हैं। अक्सर देखने में आता है कि किसी न किसी कृषि उत्पाद की कमी हो जाती है और बाजार में उसके दाम बढ़ जाते हैं। पहले यह चीनी के मामले में अक्सर होता था, अब प्याज, आलू जैसे जिंसों का भंडारण होता है। 

कालाबाजारी करने वाले अक्सर माल रोककर कृत्रिम रूप से दाम बढ़ाते हैं। ऐसा तब किया जाता है, जब ये जिंस किसानों के हाथ में नहीं रह जाते और इनका भंडारण करने वालों का कीमतों पर कब्जा हो जाता है। वे इच्छित मूल्य तय कर 6 महीने भंडारण के एवज में दोगुने से दस गुने दाम पर माल बेच देते हैं। अब कृषि उत्पादों पर भंडारण की सीमा खत्म कर दी गई है और बेरोक-टोक भंडारण किया जा सकता है।

सीएसआर मामले में कंपनियों को छूट

कंपनी (संशोधन) विधेयक, 2020 में संशोधन कर इसके 35 प्रावधानों को पूरी तरह से आपराधिक श्रेणी से बाहर कर दिया गया है। 11 प्रावधानों में जेल की सजा खत्म की गई है, जुर्माना बरकरार रखा गया है। वहीं, 6 प्रावधानों में जुर्माने की राशि कम कर दी गई है। इसमें 17 अन्य संशोधन किए गए हैं, जिसका लाभ देसी और विदेशी कंपनियों को मिलेगा। कंपनियों के सामाजिक दायित्व (सीएसआर) मामले में उन्हें छूट मिल गई है, जो अब तक न करने पर दंडात्मक अपराध था।  

इस तरह इन तीन कृषि कानूनों के माध्यम से खेती बाड़ी व किसानों को पूरी तरह बाजार के हवाले कर दिया गया है। सरकार जून महीने में तीन कृषि अध्यादेश लाई थी, जब देश का आम नागरिक कोरोना के खौफ और भीषण उमस से जूझ रहा था। अब उसे कानून बना दिया गया।

इसी कोरोना काल में कंपनियों को सहूलियत देने के लिए मार्च में अध्यादेश लाई थी, जिसे कंपनी संशोधन (विधेयक) 2020 के माध्यम से कानून का रूप दे दिया गया। 

कृषि में सुधार के नाम पर बना कानून नया नहीं है। विश्व व्यापार संगठन इसकी मांग 1995 से ही कर रहा है। कांग्रेस सरकार के 10 साल के कार्यकाल में भी नेताओं व मंत्रियों का एक धड़ा इसे किसानों के हित में बताकर इसके लिए लॉबीइंग करता रहा। श्रम कानून में संशोधन के विरोध में भी तमाम हड़तालें हुईं, विरोध प्रदर्शन हुए, जिसके कारण किसी सरकार ने इसे कानूनी जामा पहनाने की हिम्मत नहीं दिखाई। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के पहले कार्यकाल में भी ये मुद्दे छाए रहे, लेकिन कभी कानून नहीं बन पाए। कोरोना की आड़ में सरकार ने उद्योगपतियों को वह तोहफा दे दिया है, जो जनता द्वारा चुनी गई सरकारें पिछले 3 दशक से नहीं दे पा रही थीं। अब छोटे किसान खेत से निकलेंगे तो फ़ैक्ट्रियों में अधिकार विहीन बंधुआ, मौसमी मजदूर बनने को विवश होंगे।