मुंबई के भारी ट्रैफिक के बीच पाठकवाड़ी में लगी वह आदमकद मूर्ति आसानी से नज़रअंदाज़ हो जाती है जो काफ़ी ऊँचे पैडस्टल पर खड़ी है। घूमते, टहलते या पैदल चलते अगर उसके पास पहुँच जाएँ तो पैडस्टल पर लगे सफेद संगमरमर की इबारत से पता पड़ता है कि यह मूर्ति डाॅक्टर एकेसियो गैब्रिएल वेगस की है जो बांबे म्यूनिस्पिल कार्पोरेशन के अध्यक्ष थे। थोड़ा और नीचे पढ़ें तो प्लेग से उनके संबंध के बारे में लिखा गया है। वैसे उनके नाम पर मुंबई में एक सड़क भी है। इस महानगर में उस शख्स की अब बस ये ही दो निशानियाँ बची हैं जिसने कभी इसे प्लेग जैसी महामारी से बचाने के लिए दिन रात एक कर दी थी।
मूल रूप से गोवा के निवासी वेगस ने अपनी डाॅक्टरी की पढ़ाई मुंबई के ग्रांट काॅलेज से की थी। पढ़ाई के बाद उन्होंने वहीं मांडवी में अपना क्लीनिक खोल लिया। यह बंदरगाह के पास मज़दूरों और दूसरे ग़रीब लोगों का इलाक़ा था और जल्द ही वेगस इन लोगों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हो गए। कुछ ही समय में उनकी समझ में आ गया कि इन लोगों की ज़रूरत सिर्फ़ इलाज ही नहीं है बल्कि सरकार की नीतियों पर सरकारी स्तर पर कई तरह के काम होने ज़्यादा ज़रूरी हैं। इसके बाद उन्होंने म्यूनिस्पिल कार्पोरेशन का चुनाव लड़ा, उस चुनाव में तो वह जीते ही, साथ ही आगे भी लगातार जीतते गए।
वह 1896 के सितंबर की 18 तारीख़ थी जब एक ग़रीब मज़दूर ने उन्हें अपनी बीमार पत्नी लुक्मीबाई को देखने के लिए कहा। जब वह उसकी झोपड़ी में पहुँचे तो लुक्मीबाई को बुखार बहुत ज़्यादा नहीं था लेकिन वह हिलने-डुलने की हालत में नहीं थीं। पूरी जाँच में सिर्फ़ एक चीज ने डाॅक्टर को परेशान किया, वह थी, उसकी जांघों के पास छोटी छोटी गांठें। अगले दिन उन्हें पता पड़ा कि लुक्मीबाई नहीं रहीं। उसी दिन वह एक और मरीज़ को देखने गए तो ऐसी ही गाँठें उन्हें वहाँ भी दिखाई दीं। ज़्यादा पड़ताल करने पर पता चला कि पूरे इलाक़े में पिछले कुछ दिनों में 50 से ज़्यादा मौत हो चुकी हैं।
वेगस ने जब और ज़्यादा जानने की कोशिश की तो मालूम पड़ा कि बंदरगाह के पास क्लाइव रोड के गोदामों में कई चूहे मरे हुए पाए गए हैं। जल्द ही वेगस समझ गए कि हो न हो यह प्लेग ही है।
उन्होंने प्लेग के बारे में काफ़ी पढ़ रखा था और उसके हांगकांग में फैलने की ख़बरें भी अख़बारों में छप रही थीं। प्लेग कैसे आया जल्द ही यह बात भी साफ़ हो गई। कुछ दिन पहले ही हांगकांग से आए एक जहाज़ ने बंदरगाह पर लंगर डाले थे। ज़ाहिर है बाक़ी सामान के साथ ही उसमें प्लेग भी लदकर आया था।
लेकिन डाॅक्टर वेगस किसी भी नतीजे पर पहुँचने से पहले आश्वस्त होना चाहते थे। उन्होंने एक पारसी पैथोलाॅजिस्ट को साथ लिया, गाँठों व रक्त के नमूने एकत्र किए। नमूनों की माइक्रोस्कोप से जाँच के बाद दोनों ही इस नतीजे पर पहुँचे कि यह ब्यूबोनिक प्लेग ही है। उन्होंने इसका लांसेट पत्रिका में छपी प्लेग जीवाणु की तस्वीरों से मिलान भी किया।
डाॅक्टर वेगस के लिए इस नतीजे पर पहुँचना जितना कठिन था, उससे कहीं ज़्यादा कठिन था अधिकारियों को यह समझाना कि प्लेग शहर में पहुँच चुका है। एक तो नौकरशाही के ख़तरों को देखने के अपने तरीक़े होते हैं और दूसरे अंग्रेज़ अफ़सर यह स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि एक भारतीय डाॅक्टर की बात को कैसे सच मान लिया जाए, जबकि मुंबई के अंग्रेज़ डाॅक्टर ऐसा नहीं कह रहे थे। प्लेग से यूरोप का परिचय कई सदी पुराना था जबकि भारत का इस महामारी से यह पहला टकराव था। वेगस अपनी तरह से जुटे रहे जबकि इसी बीच पैथोलाॅजिस्ट ने यह ख़बर एक अख़बार को दे दी। इसके बाद इस ख़बर को दबाना या छुपाना आसान नहीं था।
पुणे से सर्जन जनरल को जाँच के लिए बुलाया गया तो वह भी इसी नतीजे पर पहुँचे। माना जाता है कि अगर इस सब में थोड़ी भी देरी हो जाती तो मुंबई में बड़े पैमाने पर तबाही हो सकती थी।
हालाँकि अंग्रेज़ सरकार ने मुंबई में प्लेग को दबाने के लिए जो किया उसने समस्या को देश भर में फैला दिया। लेकिन वह एक अलग कहानी है। यह मुंबई के उन ग़रीबों पर हुए अत्याचार की कहानी भी है जिनका डाॅक्टर वेगस घर-घर जाकर इलाज कर रहे थे।