सस्पेंस ख़त्म हो गया है। आख़िरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बैंकॉक में एलान कर दिया कि भारत आरसीईपी के समझौते पर दस्तख़त नहीं करेगा। यानी दुनिया के सबसे बड़े आर्थिक सहयोग समूह में भारत शामिल नहीं होगा। कांग्रेस पार्टी भी अब तक खम ठोक रही थी कि सरकार इस समझौते पर दस्तख़त न करे। तमाम किसान, व्यापारी और मज़दूर संगठन भी इस समझौते का विरोध कर रहे थे। आरएसएस का स्वदेशी जागरण मंच भी एकदम यही बात कह रहा था।
तो अब भारत ने हिम्मत दिखा दी है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि इन शर्तों के साथ इस समझौते में शामिल होना उनकी अंतरात्मा को गवारा नहीं हुआ। इससे पहले भारत की राजनीति में अंतरात्मा की आवाज़ पिछली बार कांग्रेस प्रमुख सोनिया गाँधी ने सुनी थी। तब भी विरोधी यही कहते थे और आज भी कहेंगे कि ये अंतरात्मा जगाने का श्रेय दरअसल विरोधियों को ही जाता है। कांग्रेस पार्टी ने कहना शुरू भी कर दिया कि उनके ज़बर्दस्त विरोध के कारण ही सरकार यह फ़ैसला करने को मजबूर हुई है। और संघ के लोग भी यह कहेंगे ही।
उधर बाक़ी पंद्रह देशों ने भारत के बिना ही साझेदारी को आगे बढ़ाने का फ़ैसला किया है और अब वे क्षेत्रीय़ समग्र आर्थिक साझेदारी या रीजनल कंप्रिहेन्सिव इकॉनमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) के गठन का काम आगे बढ़ाएँगे। हालाँकि अभी दरवाज़े खुले हुए हैं। समझौते पर दस्तख़त के लिए 2020 तक का वक़्त बाक़ी है। और बैंकॉक में जारी साझा बयान में कहा गया है कि जिन मुद्दों पर एक राय नहीं बन पाई उनपर बातचीत जारी रहेगी और उम्मीद है कि सहमति बन गई तो भारत भी इस साझेदारी में शामिल हो जाएगा।
अगर भारत इस साझेदारी में शामिल होता तो जिन सोलह देशों का समूह बनता वे दुनिया की आधी से ज़्यादा आबादी वाले देश हैं। इनमें चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और दक्षिण कोरिया जैसे देश भी शामिल हैं और आसियान में शामिल दस देश भी।
मोटे तौर पर माना जा रहा है कि सरकार ने अच्छा फ़ैसला किया है। ख़बर देर शाम आई इसलिए अब सुबह के अख़बारों में और शाम होते-होते शायद टेलिविज़न चैनलों पर भी सरकार की बहादुरी के चर्चे गर्म हो जाएँगे। जो तर्क सामने रखे गए हैं, जो चिंताएँ हैं उनमें बहुत कुछ जायज़ भी है। यह कहना सही है कि घरेलू किसानों, मज़दूरों और उद्योग व्यापार की क़ीमत पर अंतरराष्ट्रीय समझौते नहीं हो सकते।
हालाँकि चीन की तरफ़ से यह माहौल बनाने की ज़ोरदार कोशिश की गई कि वह भारत को इस साझेदारी में जोड़ने के लिए बहुत कोशिश कर रहा है। भारत में भी इस समझौते का विरोध कर रहे ज़्यादातर लोग सबसे ज़्यादा चिंता चीन का नाम लेकर ही जता रहे हैं। उनका कहना है कि पहले ही भारत चीन के साथ जो व्यापार करता है उसमें हमें 60 अरब डॉलर का सालाना घाटा होने लगा है। और आरसीईपी के सारे देश जोड़ लें तो यह घाटा 105 अरब डॉलर तक पहुँच जाता है। यह भारत के कुल व्यापार घाटे का पैंसठ पर्सेंट हिस्सा होता है। आरसीईपी समझौते से उन्हें डर यही है कि व्यापार खुल जाएगा, चीन के सामान की भारत में बाढ़ आ जाएगी। यह घाटा बेतहाशा बढ़ जाएगा और भारतीय क़ारोबारी गहरे संकट में फँस जाएँगे। इसी तरह का एक गंभीर डर न्यूज़ीलैंड को लेकर भी है। कहा जा रहा है कि वहाँ से डेरी प्रोडक्ट और फल यहाँ बाज़ारों में डंप होंगे। पचास लाख से कम आबादी और क़रीब 50 हज़ार करोड़ डॉलर की आबादी है उस देश की। उसकी जीडीपी यानी देश भर में होनेवाले कुल क़ारोबार का 5 पर्सेंट खेती से आता है। अब यह ख़तरा कितना बड़ा है, यह गंभीरता से सोचना चाहिए।
और सच बात यही है कि अभी सोचने का वक़्त है। आरसीईपी में जुड़ने के पक्ष और विपक्ष में खड़े लोग एक बात पर साथ हैं। उनका कहना है कि यह भारत के लिए इस तरह की साझेदारी में शामिल होने का सही वक़्त नहीं है।
विरोध करनेवाले कहते हैं कि भारत को इस समझौते से दूर ही रहना चाहिए। लेकिन जो लोग समझौते में शामिल होने की वकालत कर रहे हैं उनका भी यही कहना है कि अभी, इन शर्तों के साथ और इन परिस्थितियों में भारत इस साझेदारी में शामिल होने की हालत में नहीं है।
भारत को बातचीत से ख़ुद को अलग नहीं करना चाहिए और लगातार दबाव बनाते रहना चाहिए, यह मानते हैं पूर्व राजनयिक अशोक सज्जनहार जिन्होंने डब्ल्यूटीओ की शर्तों पर बातचीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनका यह भी कहना है कि ऐसे मौक़े पर सरकार को कड़ाई से पेश आना पड़ता है। अगर देश के भीतर आम सहमति बनाने की कोशिश होती दिखती है तो उससे बातचीत में देश की स्थिति कमज़ोर पड़ती है। उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सहमति बनाने की कोशिश का अर्थ ही यह होता है कि पूरा देश सरकार के पीछे नहीं खड़ा है और ऐसे में जो वाद-विवाद होता है वह भी आम तौर पर छन-छनकर बाहर आता रहता है।
‘शर्तों को मनाने की कोशिश जारी रहे’
सज्जनहार का मानना है कि बातचीत जारी रहनी चाहिए थी। अपनी शर्तों को मनाने की कोशिश रुकनी नहीं चाहिए। अभी इसकी गुँज़ाइश भी खुली है। और साथ-साथ हमें ख़ुद को इतना मज़बूत करने का काम करते रहना चाहिए कि हमारे किसान, उद्योग और कामगार खुले मुक़ाबले में उतरने के लायक बनें। जल्दी से जल्दी।
अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के लिहाज़ से भी यह एक बहुत बड़ा जोखिम है कि हमारे पड़ोस में एक इतना बड़ा ट्रेड ब्लॉक बन रहा हो और हम उससे पूरी तरह अलग रहें।
प्रधानमंत्री मोदी ने यह एलान थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में किया। वहीं थाईलैंड में भारत के आदित्य बिड़ला समूह का कितना बड़ा क़ारोबार है यह देखने और सीखने लायक चीज़ है। 1990 में जब भारत के बड़े उद्योगपति बाम्बे क्लब के झंडे तले उदारीकरण का विरोध कर रहे थे और लेवल प्लेइंग फ़ील्ड की माँग कर रहे थे, उसी समय आदित्य विक्रम बिड़ला देश के बाहर खुलकर निवेश कर रहे थे, क़ारोबार बढ़ा रहे थे और ख़ुद को खुले मैदान में चैंपियन साबित कर रहे थे।
आज क़रीब तीन दशक के बाद इस देश में ऐसा शायद ही कोई मिले जो आर्थिक सुधारों के फ़ायदे को नकारता हो, कोई कम माने या ज़्यादा यह अलग बात है।
आज अगर यह कहा जा रहा है कि देश के मौजूदा हालात ऐसे नहीं हैं कि भारत इस साझेदारी में शामिल हो सके तो सवाल उठता है कि हालात में क्या गड़बड़ है और उसे सुधारने के लिए क्या होना है। यही वह जगह है जहाँ देश के भीतर डिबेट है। और यही वह दोराहा भी है जहाँ से समर्थकों और विरोधियों की राह अलग होती है।
वह दोराहा है यहाँ से आगे का रास्ता। क्या अब देश के भीतर वह सब किया जाएगा जो ज़रूरी है। खेती को फ़ायदेमंद बनाने के लिए। किसान को न सिर्फ़ आत्मनिर्भर बल्कि दुनिया के बाज़ार में मुक़ाबले के लायक बनाने के लिए। किसान और बाज़ार के बीच में खड़ी तमाम बाधाएँ तोड़ी जाएँगी और इसी तरह के सवाल उद्योग और व्यापार के भी हैं। वहाँ भी तकलीफ़ यही तो है कि जिस वक़्त देश मंदी की चपेट में है उस वक़्त बाज़ार खोल देने का अर्थ उद्योग व्यापार की कमर तोड़ देना होगा। लेकिन अब सवाल यह है कि इस मंदी से निपटने का उपाय क्या है। इस उपाय की तलाश में सबको साथ लेना होगा, सबकी सुननी होगी और कुछ बडे़ फ़ैसले करने होंगे।
सिर्फ़ बैंकॉक के एलान पर बधाइयाँ देने और लेने से गुज़ारा नहीं होगा। भारत की असली जीत तब होगी जब 2020 के पहले हम इस हालत में आ जाएँ कि ये पंद्रह देश भारत की शर्तें मान लें या जो शर्तें वे मान सकें उनपर भी सौदा करना हमारे लिए फ़ायदे का सौदा बन जाए।