पुरानी पेंशन योजना, कहीं राज्यों का दिवाला न निकाल दे!
कुछ साल पहले मैंने देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के एक सेवानिवृत्त बड़े अधिकारी से पूछा कि आपके राज्य में लाखों सरकारी पद खाली पड़े हैं, आप लोगों ने उन्हें भरने का प्रयास क्यों नहीं किया? उनका जवाब था, अगर हमने ये सारे पद भर दिये तो राज्य का कुछ ही वर्षों में दीवाला निकल जायेगा। विस्तार से बताते हुए उन्होंने कहा कि छठे और सातवें वेतन आयोग ने सरकारी कर्मियों की तनख्वाहें और पेंशन इतनी बढ़ा दी हैं कि सरकार का बजट तक डगमगा गया है। उनका कहना था कि जब एक चतुर्थ वर्गीय कर्मी की तनख्वाह प्राइवेट कंपनी में काम कर रहे एक मैनेजर के बराबर हो तो ऐसे में सरकारें जो बिना किसी प्रॉफिट के चलती हैं, कहां से इतना धन लायेंगी?
वाजपेयी सरकार ने इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखकर पेंशन पर रोक लगा दी थी और नयी पेंशन स्कीम लागू की थी। सरकारी कर्मियों, विधायकों, सांसदों वगैरह की पेंशन पर हजारों करोड़ रुपये सरकारों के जा रहे थे जो निश्चित रूप से अनप्रॉडक्टिव था। छठे वेतन आयोग के बाद सरकार पर 20,000 करोड़ रुपये का बोझ आया लेकिन सातवें वेतन आयोग की अनुशंसा स्वीकार करने के बाद तो कर्मचारियों के वेतन और पेंशन के नाम पर जो बोझ पड़ा वह अकल्पनीय था। सरकार 1.02 लाख करोड़ रुपये के नीचे आ गई और नीति-निर्धारकों के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई। इन कर्मचारियों में 50 लाख कार्यरत थे और 58 लाख पेंशनधारी थे।
दोनों वेतन आयोगों ने कर्मचारियों के फायदे के लिए जबर्दस्त अनुशंसा की, उसने उन्हें मालामाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जहाँ तक पेंशन की बात है तो यह राशि रिटायरमेंट के समय के वेतन के आधे के बराबर रखी गई। इसका मतलब यह हुआ कि यह अच्छी खासी रक़म हो सकती है। एक सरकारी कर्मचारी जब 60 साल की उम्र में रिटायर होता है तो उस समय तक वह अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ पूरी कर चुका होता है। उस समय तक वह अपना मकान भी बना चुका होता है और उसे ग्रेचुइटी तथा प्रॉविडेंट फंड से भी काफी धन मिल जाता है। बढ़ी हुई तनख्वाह के कारण उन्हें काफी बड़ी राशि प्राप्त हो जाती है।
2004 में मनमोहन सिंह की सरकार ने इन तमाम बिन्दुओं को देखते हुए पेंशन की सुविधा को ख़त्म कर दिया था और उसके बदले एनपीएस की व्यवस्था की जिसमें कर्मचारी अपने वेतन का 10 फीसदी और सरकार भी उतना योगदान करेगी। रिटायरमेंट के बाद इसी फंड से उन्हें पेंशन दिये जाने की व्यवस्था है। यह एक अच्छी व्यवस्था है और इसमें अवकाश प्राप्त कर्मियों के लिए हर महीने एक अच्छी रक़म की व्यवस्था होती रहती है।
लेकिन जिस देश में वोट की राजनीति की खातिर राजनेता सरकारी खजाना लुटाने को तैयार रहते हैं, वहां पुरानी पेंशन एक बड़ा मुद्दा, एक आकर्षक चाल रही है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने यह पत्ता सबसे पहले फेंका। राजस्थान शुरू से ही एक बीमार राज्य रहा और लगातार कर्ज में डूबता रहा। आज उस पर भारी कर्ज है। एक बड़े समाचार पत्र के मुताबिक़ राज्य पर कुल कर्ज 4 लाख 34 हजार करोड़ से ज्यादा हो चुका है। राज्य के प्रत्येक नागरिक पर करीब 52 हजार रुपए का कर्ज हो चुका है।
गहलोत सरकार ने अब तक के कार्यकाल में रिकार्ड एक लाख करोड़ का कर्ज लिया है। अब तक की सरकारों ने जितना कर्ज लिया उसका 25 फीसदी कर्ज गहलोत सरकार ने तीन साल के कार्यकाल में लिया है।
फिर से राज्य का मुख्यमंत्री बनने के लिए उन्होंने बेतहाशा कर्ज लिया और पूरा राज्य कंगाल हो गया है। लेकिन अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए अशोक गहलोत ने अब गैस सिलिंडरों पर भी 50 फीसदी की छूट का ऐलान किया है।
किसी समय योजना आयोग के अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के करीबी रहे मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कांग्रेसी सरकारों द्वारा फिर से पुरानी पेंशन स्कीम लागू किये जाने के क़दम को बेतुका और वित्तीय दिवालियापन का नुस्खा बताया है। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि अगर ऐसा हुआ तो देश की अर्थव्यवस्था गर्त में चली जाएगी। मुट्ठी भर लोगों को खुश करने की इस नीति का खामियाजा जनता भुगतेगी। उनके इस बयान का अशोक गहलोत पर कोई असर नहीं पड़ा और उन्होंने एक बेतुका सा तर्क देकर अपने फ़ैसले को उचित बताया।
यहाँ पर यह बताना ज़रूरी होगा कि राजस्थान और हिमाचल दो ऐसे राज्य हैं जहां सरकारी कर्मचारियों की संख्या न केवल बहुत ज़्यादा है बल्कि चुनावों में उनकी भूमिका बहुत होती है। वे लामबंद होकर वोट करते हैं। हमने देखा कि हिमाचल में कांग्रेस जीत गई और बीजेपी के स्थानीय नेता इसे पुरानी पेंशन का कमाल बता रहे हैं। एक मोटे अनुमान के तौर पर सिर्फ राजस्थान में पुरानी पेंशन लागू करने पर राज्य पर लगभग 24,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार पड़ेगा। यानी राज्य के विकास की सारी योजनाएं धरी रह जाएंगी। होगा यही कि जीतने के बाद (अगर अशोक गहलोत जीते तो) वह ठाठ से अगले पांच साल भी गुजार लेंगे जैसा कि वह अभी कर रहे हैं।
कांग्रेस शासित राज्यों- राजस्थान, हिमाचल, छत्तीसगढ़ के अलावा बेहद गरीब राज्य झारखंड ने भी पुरानी पेंशन को बहाल कर दिया है जिससे उन सभी पर भारी बोझ पड़ रहा है। उन राज्यों के मुख्य मंत्रियों के पास अपने राज्यों की वित्त व्यवस्था को सुधारने का कोई तरीका नहीं है। पेंशन स्कीम की समाप्ति उसी दिशा में एक कदम था लेकिन वोट की खातिर पूरे राज्य को कर्ज में लादने का यह कदम उठाकर मुख्यमंत्रियों ने जनता के साथ अन्याय किया है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने इस कदम पर काफी नाराजगी जताई है। उसका कहना है कि यह पैसा स्वास्थ्य, शिक्षा, बुनियादी ढांचे के विकास और ऊर्जा के विकास के लिए खर्च होना चाहिए। इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने कर्ज को और आगे बढ़ा दिया है। उनके इन कदमों के प्रतिगामी प्रभाव होंगे।
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बड़ी सफाई से यह भुला बैठे हैं कि उनके राज्य में बेरोजगारी की दर 28 फीसदी तक जा पहुंची है। वहां भी बिहार की तरह फिर से पलायन की स्थिति है।