अमिताभ बच्चन ने कभी दिलीप कुमार के बारे में कहा था कि वे महान कलाकार हैं। कोई भी कलाकार जो यह कहता है कि वह उनसे प्रभावित नहीं है। झूठ बोलता है। लेकिन मेरा मानना है कि दिलीप कुमार एक अच्छे इंसान पहले हैं और कोई भी अगर उनसे मिल कर प्रभावित नहीं होता है तो वह झूठ बोलता है। उनसे मिलना, बातें करना और उन्हें सुनना अपने आप में एक अनुभव से गुजरने जैसा है। आबशारों सी गुनगुनाती उनकी बात करने की शैली किसी को भी अपने सम्मोहन में जकड़ सकती है। बीच-बीच में हौले से मुस्कुराना। फिर बुजुर्गों के अंदाज़ में किसी ख़ास बिंदू को समझाना, उनकी शख्सियत को और भी विस्तार देती है।
16 फरवरी, 1993। स्थान ताज बंगाल होटल, कोलकाता। क़रीब आठ घंटे की कोशिश के बाद उनसे मुलाक़ात हुई। 17 फ़रवरी को उन्हें कोलकाता (तब के कलकत्ता) में एक जलसे में हिस्सा लेना था। वह एक दिन पहले कोलकाता आये थे। सुबह लगभग नौ बजे फोन किया। उनके साथ आए उनके सचिव जॉन ने फोन पर बताया कि दिलीप साहब आराम कर रहे हैं। मेरा परिचय जानने के बाद उनसे यह वादा ज़रूर किया कि दिलीप साहेब से वह मेरी बातचीत ज़रूर कराएँगे। उन्होंने मेरा टेलीफोन नंबर लिया। बीच में एक-दो बार और फ़ोन किया तो जॉन का जवाब वही था कि वह आराम कर रहे हैं और आप निश्चित रहें, मैं आपकी उनसे बातचीत ज़रूर कराऊँगा। पर मुझे यक़ीन नहीं था कि मेरी उनसे मुलाक़ात होगी। लेकिन क़रीब चार बजे जॉन का फ़ोन आया। फौरन आ जाएँ। साहेब जाग गए हैं और वे आपसे बात करने के लिए तैयार हैं।
सचमुच मुझे यक़ीन नहीं आया था। पर मैंने होटल पहुँचने में देर नहीं की। जीते जी किंवदंती बन चुके दिलीप कुमार से मिलने का जुनून मुझे नर्वस किए दे रहा था। क्या बात कर पाऊंगा मैं? उन्हीं सवालों के बीच जब उनके कमरे में दाखिल हुआ तो होंठो पर खेलती मुस्कुराहट से उन्होंने मुझे खुशआमदीद कहा। उनके लबो-लहजे से थोड़ा मैं आश्वस्त हुआ। सफेद प्रिंस सूट में वह ख़ूब जँच रहे थे। कहिए क्या पूछना है?
मैं कुछ पूछता इससे पहले ही वे सवाल जड़ देते हैं। तब पूरा देश 6, दिसंबर 1992 की घटना के बाद जल रहा था और मुंबई भी उस आग में जली थी। जाहिर है फ़िल्म के अलावा उनसे उन मुद्दों पर ही पहले बातचीत हुई जिससे पूरा देश जूझ रहा था। जनसत्ता के कोलकाता संस्करण में दंगों को लेकर विशेष कवरेज की योजना बनी थी। क्योंकि दंगों की आंच ने कोलकाता के भी कुछ हिस्सों को झुलसाया था।
दिलीप साहेब से अयोध्या और दंगा भी बातचीत का विषय रहा और ‘कलिंगा’ के निर्देशन की बातचीत भी हुई। पेश है वह पूरी बातचीत जो क़रीब दो घंटे तक चली। हालाँकि इस यादगार इंटरव्यू के बाद आज भी एक बात मुझे कचोटती रहती है कि उनके साथ मैं फोटो नहीं खिंचवा सका। हालाँकि फ़िल्म वालों के साथ फोटो खिंचवाने का खब्त मुझे कभी नहीं रहा है। पर दिलीप साहब के साथ फोटो न खिंचवाने का अफसोस आज भी है। हाँ अपनी बेटी सुंबुल के लिए उनका ऑटोग्राफ ज़रूर लिया। दिलीप कुमार ने उर्दू में यह ऑटोग्राफ दिया था। उन्होंने लिखा था- सुंबुल, दुआओं के साथ और अंग्रेजी में उन्होंने दस्तखत किए थे। पेश है उनसे हुई बातचीत:
मजहब को आप किस रूप में देखते हैं? व्यक्तिगत आस्था या फिर सार्वजनिक प्रदर्शन के रूप में?
दिलीप कुमार: देखो भाई। मजहब तो काफी सीधी-साधी चीज है। इंसान और जानवरों को अलग करने की प्रक्रिया का नाम मजहब है। मजहब इंसान को इंसानियत का पैगाम देता है। सारे मजहब, वह चाहे इसलाम हो, हिंदू धर्म हो, पारसी, ईसाई या फिर सिख हो, यही बात सिखाता है। मजहब दरअसल ‘सोशियो मॉरल डिसिपलीन’ का सबक़ देता है। मजहब का एक मुख्तसर मायने यह है कि जुल्म न करो, किसी का हक न मारो, दूसरों से मुहब्बत करो, हो सके तो किसी की मदद करो। न कर सको तो किसी को नुकसान न पहुँचाओ। इसके कुछ इंसानी कोड ऑफ़ कंडक्ट हैं। मजहब से लोग एक दूसरे तक पहुँचते हैं। मजहब दिखावा की इजाजत ही कहाँ देता है।
धर्म निरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव की मूल भावना एक है या दोनों अलग-अलग?
दिलीप कुमार: सेक्युलिरिज़्म का अर्थ डिक्शनरी के हिसाब से तो यह है कि खुदा को मानना ही नहीं। लेकिन लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्ष का अर्थ बदल जाता है। पर आज इसके नाम पर जो हो रहा है, वह अलग क़िस्म की ही चीज है। मजहबी बातों को लोग अब एक अलग तरह का मेयार बना लेते हैं। सोसायटी से ऐसे लोगों को निकाल बाहर करना चाहिए। लोग आज मजहब को अपनी सुविधा के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं और उसे अपने-अपने तरीक़े से अपने-अपने पैमाने में ढाल रहे हैं। मजहब के उसूलों को तोड़-मरोड़ कर लोगों के सामने रखा जा रहा है और अब यही सब लोगो के भीतर घर कर गया है। मजहब के नाम पर आज जो कुछ भी हो रहा है वह ढकोसला है, मजहब नहीं। इसे दूसरे अर्थों में यूँ कहें कि आज जो कुछ भी हम देख रहे हैं वह मजहब का मजाक उड़ाना है।
आज के माहौल में मजहब व सियासत का रिश्ता फिर कैसा होना चाहिए?
दिलीप कुमार: जैसा कि मैंने कहा कि मजहब आज सिर्फ़ मजाक बन कर रह गया है। तो ऐसे में मेरा मानना है कि इस पर सिरे से रोक लगा देनी चाहिए। वैसे मजहब का सियासत से कोई बैर नहीं है। मजहब जिन्दगी के कामों में रूहानी अमल की तरह जुड़ा है। दुनियावी निजाम काफी जटिल है। अपने समाज व मुल्क को बचाने के लिए हमें एक सोच की जरूरत होती है। खास कर साइंस व तकनीकी प्रक्रियाओं की जटिलताओं से निकलने के लिए, हमें एक राह चुननी होती है। मजहब इस राह पर चलने में मदद देता है।
मजहब और सांप्रदायिकता एक-दूसरे से काफ़ी नज़दीक है?
दिलीप कुमार: नहीं- बिल्कुल नहीं। दोनों नज़दीक हो ही नहीं सकते। मजहब तो शुद्ध व पवित्र होता है। पर सांप्रदायिकता सत्ता हासिल करने के लिए है। मजहब लोगों के अंदर अपने आप अपना राग सुनाता है। मजहब तो सरल होता है। चाहे हिंदू, मसुलमान हो, सिख हो या फिर दूसरे धर्म के मानने वाले। ये अपने-अपने तरीक़े से खुदा या ईश्वर की इबादत करते हैं। मजहब इंसान को इंसान बनाता है, लेकिन फिरकापरसती घर उजाड़ती है, लोगों की जान लेती है। सांप्रदायिकता जुर्म करने को उकसाती है, क़ानून तोड़ती है। सांप्रदायिकता को जड़ से उखाड़ फेंकने की ज़रूरत है। इसे क़ानून की मदद से ख़त्म करना होगा, क्योंकि सांप्रदायिकता न सिर्फ़ यह कि क़ानून को तहस-नहस कर रही है, बल्कि इंसान व इंसानियत को नुक़सान पहुँचा रही है।
मुंबई के दंगों को आप किस नज़र से देखते हैं?
दिलीप कुमार: मुंबई में हुआ सांप्रदायिक दंगा मजहबी तो था ही नहीं। लेकिन इसे मजहबी रंग दिया गया, मुसलिम और अल्पसंख्यकों के नाम पर। अयोध्या में 6 दिसंबर, 1992 की घटना के बाद देश में फसाद इसी नाम पर हुए। लेकिन यह दंगे मजहबी कम, सियासी ज़्यादा थे। इसे आप यूँ कहें कि अपने अपने सियासी फायदे के लिए लोगों का गला काटा गया और फिर उसे सांप्रदायिक दंगे में बदल दिया गया।
मौजूदा माहौल में एक कलाकार के नाते आप क्या सोचते हैं?
दिलीप कुमार: हम लोगों का काम है कलाकारी ठीक से करें। अच्छी फ़िल्मों में काम करें और ग़ैरजानिबदार रहें। फ़िल्मों के माध्यम से लोगों को प्यार का संदेश दें। अपने एहसासों को दूसरे तक पहुँचाएँ। क्योंकि फ़िल्म एक बड़ा माध्यम है। अपनी बात लोगों तक पहुँचाने का। (फिर उन्होंने समझाने वाले अंदाज़ में कहा कि इन बातों को बहुत ढंग से लिखेंगे, सेंसेटिव मुद्दा है। शब्दों का चयन भी ढंग से करेंगे नहीं तो थोड़ी सी बात का फसाना बन जाएगा।)
फ़िल्मों की बात चली है तो यह बतायें कि ‘कलिंगा’ के निर्देशन का फ़ैसला आप ने क्यों किया? क्या यह अचानक नहीं था?
दिलीप कुमार: देखो मियां! बहुत कुछ अचानक होता। खास कर मुझ पर यह अचानक वाली बात ज़्यादा लागू होती है। मेरी ज़िंदगी में बहुत कुछ अचानक ही हुआ है। ‘कलिंगा’ का निर्देशन भी उन अचानक घटी घटनाओं में से एक है। ‘कलिंगा’ के दिर्नेशन की जब बात चली तो मैंने काफ़ी सोच-विचार किया। अपने-आप से सवाल-जवाब किया। बार-बार खुद से पूछा ‘निर्देशन क्यो नहीं करूँ? यूँ भी देखा जाए तो फ़िल्म निर्माण की संपूर्ण प्रक्रिया से मुझे शुरुआती दौर से ही दिलचस्पी रही है और पीछे मुड़ कर जब माजी की तरफ़ देखा तो पाया कि दिलीप कुमार की पटकथा-लेखन, कैमरा संचालन, निर्देशन, एडिटिंग और सिनेमा की तकनीकी जानकारियों से लगाव रहा है और उसे भले पूरी जानकारी न हो, पर जितनी जानकारी हासिल की है वह किसी फ़िल्म के निर्देशन के लिए काफ़ी है। तो मैंने फिर ‘कलिंगा’ के निर्देशन के लिए हामी भरी। वैसे भी मेरा अनुभवों का संसार है। उस संसार में के. आसिफ (मुगल-ए-आज़म), महबूब खान (अंदाज), विमल राय (देवदास), तपन सिन्हा (सगीना), एस.एस. वासन (इंसानियत) सरीखे महारथी हैं। इम महारथियों के साथ मैंने काम किया है और सिनेमा के विभिन्न पहलुओं की जानकारी इनकी देखरेख में ही हासिल की है। इन दिग्गज फ़िल्मकारों से मैंने बहुत कुछ सीखा। फिर जब मैंने और पीछे मुड़ कर देखा तो पाया कि 1943 में नितिन बोस के साथ ‘मिलन’ में काम करने के दौरान तो मैंने ख़ुद को उनको असिस्ट करता पाया। नितिन बोस ने मेरी संभावनाओं को बेहतर तरीक़े से तराशा खराशा। उन्होंने मुझे हमेशा इस बात के लिए प्रेरित किया कि मैं फ़िल्म के संवाद और सीन लिखूँ। ‘मिलन’ में मैं सहायक निर्देशक भी था। तो इतने साल बाद मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि सिनेमा की जानकारी अपने जमाने के श्रेष्ठ निर्देशकों से मैंने हासिल की है। इसलिए जब ‘कलिंगा’ के निर्देशन करने का फ़ैसला लिया तो मुझे लगा कि मेरा अनुभव मेरी जानकारी इस काम के लिए काफ़ी है।
‘कलिंगा’ का सब्जेक्ट क्या है और क्या कहानी आपकी है?
दिलीप कुमार: नहीं, कहानी मेरी नहीं है। वीरेंद्र सिन्हा इसके लेखक हैं। कहानी एक रिटायर्ड जज के बारे में है। वे अपने चार लड़कों के साथ जीवन बिताना चाहते हैं। तीन बेटे पहली पत्नी से हैं और चौथा दूसरी बीबी से, भावनाओं के टकराव पर आधारित है पूरी फ़िल्म। ‘कलिंगा’ के बारे में अभी इससे ज़्यादा कुछ और नहीं कह सकता कि फ़िल्म के क्षेत्र में जाती तौर पर दिलचस्पी ले रहा हूँ। और जहां तक मेरा मानना है फिल्म बनाने के लिए यह पहली शर्त है कि आपको हर क्षेत्र की अच्छी जानकारी हो। मैं इस बात की कोशिश कर रहा हूं कि मैं एक अच्छी फिल्म बनाऊं जिससे मुझे अत्मीय सुख भी मिले। बाकी चीजें तो ऊपर वाले के हाथ है। अब तक जितनी फिल्म बनी है से मैं संतुष्ट हूँ।
क्या इस दौरान कभी आपको यह भी लगा कि निर्देशन के क्षेत्र में आपने देर से क़दम धरा है और बहुत कुछ कहीं छूट गया है?
दिलीप कुमार: देखो मियाँ, मेरा मानना है कि हर चीज का एक समय होता है। निर्देशन में उतरने का शायद यही सही वक़्त रहा हो मेरे लिए। मुझे इसका मलाल नहीं है कि मैंने निर्देशन में देर से पाँव धरा क्योंकि सिनेमा मैंने अपने तरीक़े से किया। फ़िल्में वही कीं जो मुझे अच्छी लगीं। पर कुछ चीजें हैं, जो कहीं कुछ छूट गई हैं। बढ़ती उम्र के साथ इसका और शिद्दत से एहसास हो रहा है कि बहुत सारी चीजों को मैंने हाथों से निकल जाने दिया। और यक़ीन करें वक़्त के इस तरह जाया होने का अफसोस है। फिर माजी के दरिये से झांकता हूँ तो मुझे अपनी पढ़ाई पूरी न कर पाने का अफसोस है। फिर मुझे विश्वसाहित्य न पढ़ पाने का भी बेहद मलाल है।
किस तरह का साहित्य आप पढ़ना चाहते थे और वे कौन से लेखक थे जिन्हें आप नहीं पढ़ पाए?
दिलीप कुमार: देखो, जैसा मैंने कहा कि विश्व साहित्य के लिए मैं ज़्यादा समय नहीं निकाल सका। खास तौर से मैं कुछ मशहूर ऑटोबायोग्राफी पढ़ना चाह रहा था, उनका अध्ययन गहराई से करना चाहता था। विशेष, कर यूरोपीय साहित्य। हालाँकि यह सही है कि मैंने काफी कुछ पढ़ा है, पर यह भी सच है कि इतना तो कोई भी आम पाठक पढ़ लेता है। मैं जितना पढ़ पाया, आज मुझे लगता है कि वह काफी नहीं है। मुझे और भी पढ़ना चाहिए था। टॉलस्टॉय, चेकोस्वकी, गोर्की, समरसेट माम को पढ़ना पर वह काफ़ी नहीं है। विश्व के तमाम साहित्य को पढ़ना था। पर ऐसा न हो पाया। उम्र के इस मुकाम पर शायद अब यह न हो पाए। पढ़ भी पाऊँ तो शायद उसे ग्रहण न कर पाऊँ।
इनसे परे कुछ और बातें हैं, जिनसे रू-ब-रू न हो पाने का मलाल है। अफसोस इस का भी है कि दुनिया में जो कुछ बड़ी घटनाएँ घटीं। उन क्षणों का मैं गवाह नहीं बन पाया। मैं जानना चाहता था कि गौर्बाचेफ किस तरह के इंसान हैं, उनमें क्या खास है। उन्होंने विश्व के सियासी मानचित्र को किस तरह बदला और रूस में खुली नीतियाँ लागू कीं, मैं इसे देखना चाहता था। रूस के लोग अनुशासित होते हैं, मैं आज भी उनके भीतर झाँकना चाहूँगा। तो इसी तरह की कई और बातें हैं, जो छूट गईं।
क्या आपको इस बात का भी मलाल होगा कि आपने कुछ वैसी फ़िल्में छोड़ दीं, जो बाद में बॉक्स आफ़िस पर हिट हुईं?
दिलीप कुमार: नहीं मुझे इसका मलाल नहीं हुआ। क्योंकि मैंने फ़िल्में वही कीं, जिसमें मुझे अपनी भूमिका पसंद आई। मेरे लिए किरदार महत्वपूर्ण रहा है। कई फ़िल्में बुरी तरह फ्लॉप हुईं, फिर भी मुझे वे बेहद पसंद हैं। संगीना, बैराग या दास्तान सरीखी फ़िल्में चलीं नहीं, पर मुझे इसमें काम कर एक सुख मिला।
आप अपनी किसी खास फ़िल्म की चर्चा करेंगे, जिसने आपके अभिनय को ऊँचाई दी?
दिलीप कुमार: कोई एक फ़िल्म! बड़ी मुश्किल बात पूछी है आपने। जहाँ तक मेरा मानना है, हर फ़िल्म ने मेरे अभिनय को और भी ‘पॉलिश’ किया है। पर जिस एक फ़िल्म से मैं ज़्यादा संतुष्ट हुआ वह है ‘मुग़ल-ए-आज़म’। मेरा व्यक्तिगत विचार तो यह है कि यह फ़िल्म बेहतर फिल्मों में आज भी कई अर्थों में श्रेष्ठ है। इसके अलावा भी कई फिल्में हैं जो निजी तौर पर ज़्यादा पसंद हैं। इनमें रमेश सहगल की ‘शिकस्त’, केदार शर्मा की ‘दिल दिया, दर्द लिया’ और ‘जोगन’। हालांकि ये फिल्में भी ज़्यादा नहीं चलीं। इनके अलावा ‘संगदिल’ ‘देवदास’ और ‘कोहिनूर’ से भी मुझे संतोष मिला। हाल की फ़िल्मों की बात करें तो ‘राम और श्याम’ मेरी आधी फ़िल्मों में से एक है।
आपने के. आसिफ, महबूब खान, तपन सिन्हा और विमल राय के साथ काम किया, इनसे आप ने क्या सीखा?
दिलीप कुमार: बहुत अच्छा सवाल किया है आपने। एक बात पहले साफ़ कर दूं कि ये सारे लोग सिनेमा के महारथी थे। महान निर्देशक। यह अलग बात है कि वासन पहली नजर में आपको बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं करें। उनका व्यवहार कुछ अटपटा लगे। मगर बात ऐसी थी नहीं। उनसे मैंने सीखा कि लोगों तक कैसे पहुंचा जा सकता है। मेरी याददाशत जहां तक काम करती हैं। ‘इंसानियत’ के निर्माण के समय मैंने कुछ सीन पर अपने तरीके से काम किया था। कुछ पेपरवर्क किया था। मैं उन कागजों को पढ़ रहा था कि वासन साहेब ने मुझ से एक बात कही। वह बात आज भी मेरे भीतर न सिर्फ मौजूद है बल्कि मुझे बेहतर करने के लिए प्रेरित करती है। उन्होंने कहा कि ‘दिलीप। यह बात जेहननशी कर लो कि तुम एक मास मीडियम अर्थात जनता तक पहुंचने वाले संचार माध्यम सिनेमा में काम कर रहे हो। भारत में सिनेमा के कुछ खास फैक्टर होते हैं। सिर्फ बुद्धिजीवियों के लिए कोई फिल्म नहीं बनाता है। ऐसी फिल्म बना कर कोई भी अपनी श्रेष्ठता तो साबित कर देगा पर बिना आम आदमी तक पहुंचे फिल्म बनाने का मकसद पूरा नहीं होता है। इसलिए अवाम के लिए फिल्म बनाते वक्त सिर्फ होशियारी ही नहीं दिखाओ, नम्रता का इजहार भी करो।
तपन सिन्हा, मेरे प्रिय निर्देशकों में से एक हैं। मैं उन्हें सत्यजित राय से किसी लिहाज से भी कम नहीं मानता हूं। वे बड़े निर्देशक हैं। वे कहानी की आत्मा तक बड़ी सहजता से पहुंच जाते हैं। उनमें उत्सुकता और जिज्ञासा है, तथ्यों को समझने की, चीजों को समझाने की। उनकी एक और खूबी है। स्क्रीनप्ले राइटिंग में उन्हें महारत हासिल है। भावुक इंसान हैं और उनका मक़सद अपने लोगों तक पहुंचना है। सत्यजित राय तो दुनिया भर के दर्शकों के लिए फिल्म बनाते थे। पर तपन सिन्हा अपनी फिल्मों के माध्यम से अपने लोगों से बात करते हैं। विमल राय बेहद खामोशी से अपना काम करने वाले इंसान थे। काम से उन्हें जुनून की हद तक प्रेम था और हर काम में वह अव्वल रहना चाहते थे। उनकी फिल्मों का हर दृश्य अपने आप में पूरा होता था। विमल राय, नितिन बोस फिल्मों के बेहतरीन शिल्पकार थे। दोनों ही बेहतरीन निर्देशक थे। किसी आम कहानी में भी क्लासिक भरने में दोनों को महारत हासिल थी।इनसे अलग नज़रिया महबूब खान का था। वे किसी भी बात को बहुत अंदर तक महसूस करते थे और लोगों की पसंद-नापंसद से वाकिफ थे। लोगों तक पहुंचने की कलाकारी उन्हें आती थी। सच तो यह है कि उनकी रूह तो जैसे गांवों में रची-बसी थी। इसका सबूत उन्होंने मदर इंडिया में दिया। पर महबूब खान ने शहरों की पृष्ठभूमि पर ‘अंदाज’ और ‘अमर’ सरीखी खूबसूरत फिल्में बनाईं। मेरा मानना है कि के. आसिफ की ‘मुगल-ए-आजम’ एक बेहतरीन फिल्म थी। फिल्म का स्क्रीनप्ले बहुत अच्छा था और एक-एक किरदार को बखूबी फिल्माया गया था।एक बात और साफ़ कर दूं कि भारतीय सिनेमा को दुनिया भर में स्थापित करने में सत्यजित राय की प्रमुख भूमिका रही है। यह बात बहुत कम लोगों को मालूम होगी कि एक बार खाने पर उनसे एक फिल्म की चर्चा हुई थी। अलाउद्दीन खिलजी की जिंदगी पर फिल्म बनाने की बात हुई थी। पर अफसोस है कि यह प्रोजेक्ट बातचीत से आगे नहीं बढ़ पाया। इसलिये उनके साथ काम करने के निजी तजुर्बे की बाबत तो कुछ नहीं कह सकता लेकिन बातचीत में उन्होंने कहा था कि उन्हें विश्व के दूसरे देशों के दर्शकों का भी खयाल रखना पड़ता है। कुरोसाव और फेलनी सरीखे निर्देशकों की तरह ही सत्यजित राय ने सिनेमा में खुद को स्थापित किया था। यह बड़ी बात थी उनके लिए भी और हमारे लिए भी।
अभिनय के क्षेत्र में आपको किन लोगों ने मदद की जिसके कारण आप बुलंदियों पर पहुंचे?
दिलीप कुमार: इसमें पहला नाम नितिन बोस का आता है। वे मुझ से बराबर कहा करते थे कि दूसरे कलाकारों की फिल्में भी देखा करूँ। खास कर हॉलीवुड की। वह यह भी कहते थे कोई भी क्लासिक फिल्म एक बार नहीं देखो। उनका कहना था कि अच्छी फ़िल्में बार-बार देखो। नितिन बोस का मानना था कि पहली बार देखने पर फ़िल्म की खूबियां जैसे बढ़िया निर्देशन, अच्छा संगीत या अच्छी ऐक्टिंग ही पकड़ में आता है। दूसरी बार देखने पर यह खूबी और भी उभर कर सामने आती हैं और देखने वाले को गहरे तक प्रभावित करती हैं। पर अगर किसी की बेहतरीन अदाकारी से कुछ सीखना चाहते हैं तो फिल्म तीसरी बार जरूर देखनी चाहिए। तब आप इधर-उधर की ख़ूबियों को दरकिनार कर सिर्फ़ कलाकारों के अभिनय पर ध्यान देते हैं।
तो आप दूसरों से प्रभावित होकर अदाकारी को सही मानते हैं? आप पर किस अदाकार का सबसे अधिक प्रभाव रहा?
दिलीप कुमार: किसी से सीखना ग़लत तो नहीं मियाँ। जीवन के हर क्षेत्र में हर किसी का कोई न कोई आदर्श होता है। बहुत सारे लोगों में अपने पिता का पूरा असर होता है। हर व्यक्ति अपने आदर्श को फॉलो करता है। चाहता है वह भी वैसा ही कुछ करे। तो इसमें ग़लत कहाँ है और अच्छी बातें तो हर किसी से सीखनी चाहिए। मैंने जेम्स स्टुअर्ट, इंग्रिड बर्गमैन, सुसन हेवर्थ, हेनरी फोंडा, कैथरीन हेपबर्न, पाल मुनी, स्पैंसर ट्रेसी, लाना टर्नर सरीखे बेहतरीन कालकारों की फ़िल्में देखी हैं। इन सबसे मैंने बहुत कुछ सीखा है। पर मुझ पर स्टुअर्ट और फोंडा का प्रभाव ज़्यादा पड़ा। इनकी अदाकारी को ग़ौर से देखने पर पता चला कि उनके चेहरे, उनकी आवाज़ एक ही वक़्त मैं कई तरह के जज्बात की अक्कासी करती हैं। ठीक वैसे ही जैसे संगीत में एक ही गीत के दौरान कोई साज एक अलग धुन बजाता हुआ भी उसी संगीत का एक हिस्सा बन जाता है। इस तरह की अदाकारी से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। पर शर्त यह है कि आप में सीखने की कितनी ललक है।
कई कलाकारों पर आपकी कॉपी करने का भी आरोप लगाया जाता है?
दिलीप कुमार: यह तो मैं नहीं जानता कि हिंदी सिनेमा में कौन मेरी ‘कॉपी’ कर रहा है। पर मेरी आपत्ति इस ‘कॉपी’ शब्द से है। जो लोग किसी पर किसी के नकल का आरोप लगाते हैं। वे ठीक नहीं कर रहे हैं। आप किसी की प्रतिभा को कम के देखते हैं। मैं उन्हें कहना चाहूंगा कि कोई भी किसी से प्रभावित हो सकता है और यह कहीं से ग़लत नहीं है। (बीच में ही वे रोकते हैं अब बस भी करें। देखिये चाय ठंडी हो रही है। इसे फिर से गर्म करना होगा)
एक बात और जानना चाहूँगा कि आपको ‘ट्रेजडी किंग’ का खिताब मिला, इसने आपके अभिनय को नया आयाम मिला?
दिलीप कुमार: नहीं भाई, ऐसा नहीं हुआ। इस खिताब ने मेरे लिए परेशानी पैदा की। लोगों ने मुझे ‘टाइप्ड’ कर दिया। नतीजे में दूसरे तरह के चरित्र निभाने के मौक़े कम मिले तब बाद में मैंने कोहनूर, आन, आज़ाद, राम और श्याम व गोपी जैसी फ़िल्में कीं। फिर फ़िल्म ‘गंगा जमुना’ बनाई। जो इन सबसे अलग थी। इसी फ़िल्म के बाद ऐक्शन फ़िल्मों का दौर शुरू हुआ।
अपने समकालीन राजकपूर, देवानंद, राजकुमार के साथ काम करके आपको कैसा लगा था?
दिलीप कुमार: इनके साथ काम करने का अलग अनुभव है। इन सबसे मैंने कुछ न कुछ सीखा है। कई बार कुछ बातों को लेकर मन मुटाव भी हुए। पर यह सब वक्ती थे। उनकी अदाकारी की आज भी दुनिया कायल है।
निर्देशन और अभिनय में से कौन सा काम ज़्यादा चुनौती वाला है?
दिलीप कुमार: न अदाकारी और न निर्देशन। सबसे चुनौती भरा काम है पटकथा लेखन। यह ‘कलिंगा’ के निर्देशन के दौरान मुझे पता चला। बातें हो गईं या और बाक़ी हैं, वे मुस्कुरा कर पूछते हैं और फिर चाय पिला कर विदा करते हैं।