भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहलाल नेहरू के बाद डॉ. मनमोहन सिंह ऐसे 13वें प्रधानमंत्री रहे जिन्होंने सफलतापूर्वक दो दस वर्षीय कार्यकाल (2004 -2014) पूरा किया था। बेशक़ डॉ. सिंह अत्यंत विनम्र और अराजनैतिक प्रधानमंत्री थे, लेकिन देश में आधुनिक आर्थिक सुधारों के सफलतम अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री थे। मेरी दृष्टि में, डॉ. सिंह उत्तर- इंदिरा+राजीव काल के राजनेता प्रधानमंत्रियों (विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, नरसिम्हा राव, देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल और अटलबिहारी वाजपेयी) से अधिक सक्षम रणनीतिकार प्रधानमंत्री सिद्ध हुए, जिन्होंने गठबंधन सरकार का निरंतर दस सालों तक संचालन किया। इसके विपरीत उनके 6 पूर्ववर्ती खांटी राजनीतिक प्रधानमंत्रियों में से कोई भी दस वर्ष तक शासन में नहीं रह सका था; राव और वाजपेयी को छोड़ शेष चार प्रधानमंत्री (सिंह, चंद्रशेखर, गौड़ा और गुजराल) दो वर्ष भी प्रधानमंत्री की गद्दी पर नहीं टिक सके; प्रधानमंत्री आते -जाते रहे और देश में अल्पावधि चुनाव (1991 व 98) होते रहे। इस दृष्टि से देखें तो दिवंगत मनमोहन सिंह को कुशल राजनीतिज्ञ प्रधानमन्त्री भी कहा जाना चाहिए।
2004 के चुनावों में कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए (यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायन्स) गठबंधन को बहुमत मिला था। वाजपेयी -नेतृत्व का ‘चमकीला भारत और अच्छे दिन’ का नारा पिट गया था। भाजपा गठबंधन हार गया था। 2004 में कांग्रेस नेतृत्व के गठबंधन को जीत मिली थी। उस दौर में उम्मीद थी कि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनेंगी। लेकिन, भाजपा की नेता सुषमा स्वराज ने उनका कट्टर विरोध किया था। धमकी दी थी कि यदि एक विदेशी को प्रधानमंत्री बनाया गया तो वे अपने सर के केश -मुंडन करवा लेंगी। लेकिन, सोनिया गांधी ने अपने स्थान पर डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री -उम्मीदवार के रूप में चुना था। सत्ता-गलियारों में चर्चा थी कि वे सुषमा की धमकी से डर गयी थीं। यह भी चर्चा थी कि तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम भी उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ नहीं दिलवाएंगे क्योंकि वे वाजपेयी -काल में राष्ट्रपति बने थे।
इन चर्चाओं में कितना दम है, कहना मुश्किल है। पर एक ख़बर सही है। जहाँ तक मुझे याद है डॉ. सिंह के प्रधानमंत्री-पद की शपथ लेने से क़रीब एक सप्ताह पहले ही पंजाब केसरी में डॉ. सिंह का नाम उछल गया था। दिवंगत पत्रकार आलोक तोमर ने अपने कॉलम में स्पष्ट रूप से लिखा था कि मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया जायेगा। सत्ता-गलियारों में चर्चा थी कि मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने में विश्व बैंक की भूमिका भी रही है। अतः कौनसा फैक्टर का प्रभाव रहा होगा, अनुमान का विषय है। पर, आरम्भ में डॉ. सिंह के प्रधानमंत्री बनने को लेकर कांग्रेसी सहज नहीं थे। मुझे याद है, संसद के सेंट्रल हाल में जब डॉ. सिंह के नाम की घोषणा की गई थी, तभी सांसदों ने शोर मचाया था और ‘सोनिया सोनिया सोनिया’ चिल्लाने लगे थे। वे सोनिया जी को प्रधानमंत्री देखना चाहते थे। लेकिन, डॉ. सिंह के नाम की घोषणा हो गयी। डॉ. सिंह को लेकर एक आरंभिक अस्वीकार्यता ज़रूर दिखाई दी और जिस प्रकार मोदी राज में’ दो इंजन की सरकार’ का नारा गूँज रहा है, उसी तरह ‘दो पावर सेन्टर’ की बात चलने लगी थी। लेकिन, धीरे धीरे डॉ. सिंह की सरकार पर पकड़ होने लगी थी। एक प्रकार से, विवादों के बीच डॉ. सिंह प्रधानमंत्री बने और उनका दो दशकीय कार्यकाल भी चला।
निःसंदेह डॉ. सिंह ने देश की अर्थव्यवस्था की कमान अत्यंत नाज़ुक दौर में संभाली थी। 1991 में राव साहब प्रधानमंत्री बने थे और वित्तमंत्री के रूप में डॉ. सिंह ने जुलाई, 1991 में अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत की थी। इस प्रक्रिया के तहत देश में तीन प्रमुख आर्थिक प्रक्रियाएँ अस्तित्व में आईं: उदारीकरण, निजीकरण और विनिवेशीकरण। इन प्रक्रियाओं के शुरू होते ही देश की आर्थिक गतिशीलता का विस्तार होने लगा और नये-नये द्वार खुलने लगे। देश की राजनीतिक आर्थिकी या पोलिटिकल इकॉनमी में पहला बड़ा मोड़ था जब निजी देश-विदेशी पूँजी खिलाड़ियों को आंशिक अवरोध मुक्त मैदान मिला था।
इससे पहले नेहरू काल से चली आ रही समाजवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था की धाराएं बह रही थीं; इंदिरा गांधी, मोराजी देसाई और राजीव गांधी ने भी क्रांतिकारी आर्थिक छलांगें नहीं लगाई थीं; कमोबेश केंद्रीकृत अर्थव्यवस्था की छाप ही छाई रही थी। भारतीय राष्ट्र राज्य का चरित्र ‘जन कल्याणकारी’ ही था। राज्य की राजनीतिक आर्थिकी ‘हस्तक्षेपवादी’ थी। लेकिन, मनमोहन सिंह के नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण की व्यवस्था के आरम्भ होने से भारतीय राज्य के मूल चरित्र में परिवर्तन भी आने लगा था। अब राज्य ने एक ‘सुविधाप्रदानकर्ता (फैसिलिटेटर)’ की भूमिका निभाना शुरू कर दिया था। इसके साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका आहिस्ता आहिस्ता सीमित भी होने लगी थी। निसंदेह, डॉ. सिंह उदारीकरण के सूत्रधार थे और उन्होंने देश को ‘विश्व व्यापार मंच’ से जोड़ा भी था। इससे नए अवसर -नई संभावनाएं उभरे। वित्तमंत्री व प्रधानमंत्री बनने से पहले डॉ. सिंह विश्व बैंक और योजना आयोग में कार्यरत रहने के विपुल विविधापूर्ण अनुभव से लैस भो चुके थे।
उनके आर्थिक चिंतन की संरचना में विश्व बैंक के चरित्र ने भी खासी भूमिका निभाई थी। वे समाजवादी या राज्य केंद्रीकृत या राज्य पूंजीवादी व्यवस्था के कायल नहीं थे।
उनकी कम-अधिक आस्था ‘मुक्त अर्थव्यवस्था (लेसेस फैरेर) में थी। पर इसके साथ ही वे पश्चिम-अमेरिकी पूंजीवादी व्यवस्था के अंधानुकरण के पक्षधर भी नहीं थे क्योंकि वे ग्रामीण भारत के आर्थिक-सामाजिक यथार्थ से भी पुख्ता परिचित थे। वे स्वयं भी देश -विभाजन व विस्थापन की पीड़ा के शिकार रह चुके। उन्हें यांत्रिक के स्थान पर एक ‘संवेदनशील अर्थशास्त्री’ कहना अधिक सही रहेगा। शायद इसलिए उन्होंने एक दफा कहा था, ‘मानवीय चेहरे के साथ पूंजीवाद (कैपिटलिज्म विथ ह्यूमन फेस)। ‘यहीं वे कुछ गच्चा भी खा गए। किसी भी प्रकार के पूंजीवाद का चरित्र ‘मानवीय’ हो ही नहीं सकता। इतिहास गवाह है, पूंजीवाद की कोख में असंवेदनशीलता, अमानवीयता, बर्बरता, शोषण, विस्तारवाद, युद्धप्रेम, फासीवाद जैसी अमानुषिक प्रवृत्तियां पलती रहती हैं।
पूंजीवाद की इस गतिकी (डायनामिक्स) से अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री अपरिचित थे, मैं ऐसा नहीं मानता। उनके शासन काल में ही ‘याराना पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म)’ की शुरुआत हो चुकी थी। वे स्वयं भी क्रोनी पूंजीवाद को लेकर समय-समय पर चिंता ज़ाहिर करते रहते थे। एक प्रेस वार्ता में याराना पूंजीवाद पर मेरे एक प्रश्न के उत्तर में वे चिंतित-विचिलित दिखाई दिए थे। 2014 से प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी के नेतृत्व में जिस प्रकार की राजनीतिक आर्थिकी की शुरुआत हुई है, उसने पूंजीवाद के अमानुषीकरण व कॉरपोरेटीकरण की रफ़्तार को तेज़ ही किया है; सार्वजनिक क्षेत्र का निरंतर निर्बलीकरण होता जा रहा है और निजी क्षेत्र का एकाधिकारीवादीकरण बढ़ता जा रहा है। आज 80+ करोड़ भारतीय राज्य की मेहरबानी पर गुज़र-बसर कर रहे हैं। निश्चित ही मनमोहन सिंह जी अपने निजी जीवन में नितांत ईमानदार व्यक्ति व प्रधानमन्त्री रहे हैं। उनमें एक नए रूप में लाल बहादुर शास्त्री की झलक को देखा जा सकता है। पर, मिलीजुली सरकार के कमांडर होने के कारण उन्हें सीमाओं-दबावों का सामना भी करना पड़ा था। सीएजी की रिपोर्ट की वज़ह से उनके कतिपय सहयोगी भ्रष्टाचार के विवादों में घिरे रहे। उन पर कमज़ोर प्रधानमंत्री होने का आरोप भी लगा। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी को ‘परोक्ष सत्ता केंद्र’ माना गया था। हो सकता है, इसमें आंशिक सच्चाई हो। लेकिन, अमेरिका के साथ ‘परमाणु संधि‘ के मुद्दे पर डॉ. सिंह झुके नहीं थे। वाम घटक के सख्त विरोध के बावजूद उन्होंने संधि की थी।
इस सच्चाई को स्वीकार किया जाना चाहिए कि संधि विरोध के मामले में वाम मोर्चा ने अपनी सीमाओं का अतिक्रमण किया था। यदि वह ऐसा नहीं करता तो उसकी आज जैसी स्थिति नहीं होती। खैर, इतिहास में ऐसी भूलें होती रहती हैं। पर, सिंह ने अपने नेतृत्व में आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को निष्ठापूर्वक लागू करने की कोशिश की थी। उनके शासन काल में ‘मोदी मीडिया और अघोषित इमरजेंसी’ जैसे शब्द अनसुने थे। मुक्त भाव से मीडिया के सभी रूप अपनी भूमिका निभाते रहे थे। वे समय-समय पर मीडिया से मुखातिब भी हुआ करते थे, प्रेस वार्ताएँ हुआ करती थीं। पिछले दस वर्षों में उनके उत्तराधिकारी मोदी जी तो एक भी प्रेस वार्ता नहीं कर सके हैं जबकि उनका एकछत्र राज है। फिर भी…? सिंह शासन काल में खरीद फरोख्त के ज़रिये प्रदेश सरकारों का उत्थान-पतन होता रहा हो, ऐसा भी देखने को नहीं मिला मिला था। चुनाव आयोग के प्रति अविश्ववास बढ़ा हो, ऐसा भी नहीं था। इतना ही नहीं, लोकसभा के अध्यक्ष और राज्य सभा के सभापति की भूमिकाओं की आज जैसी फ़ज़ीहत हुई हो, यह भी नहीं देखा। वे नियमित संसद के दोनों सदनों में आया करते थे। वे असम से राज्यसभा के सदस्य थे। बावजूद इसके, वे संसद में अपनी उपस्थिति को दर्ज़ करना नहीं भूलते थे। वे एक सेहतमंद लोकतंत्र का पक्षधर थे।
इतिहास में डॉ. सिंह, विश्व में पिछले तीन-चार दशकों से बह रही चरम आर्थिक उदारीकरण की बहुमुखी धारा के ऐतिहासिक सौम्य निष्ठावान प्रतिनिधि के रूप में याद रखे जायेंगे।