नमस्ते जी!
आप फ़ोन करें या उनका फ़ोन आए। दोनों ही स्थितियों में उनके पहले शब्द यही होते थे। उसके बाद फिर तबीयत, परिवार और बच्चों के बारे में ज़रूर पूछते थे। दफ़्तर के बारे में पता कर लेते थे। 'सब ठीक है' सुनने के बाद वह काम की बात शुरू करते थे या पत्रकारों की जिज्ञासाओं के जवाब देते थे।
उनकी एक और ख़ासियत थी कि वह देश की 10 से अधिक भाषाएं जानते थे। भाषा विशेष के पत्रकारों से उनकी ही भाषा में बातें करते थे। जाहिर है कि इससे एक आत्मीयता और अंतरंगता बनती थी।
कैसे हो गए आर. आर.!
इसके विपरीत उनके समकालीन पीआरओ गोपाल पांडे अंग्रेजी प्रकाशनों के अंग्रेजीदां पत्रकारों को प्राथमिकता देते थे। उनके पास अमिताभ बच्चन समेत कुछ अग्रणी बैनर की फ़िल्में रहती थीं, जबकि आर. आर. पाठक के पास बड़ी के साथ मझोली और छोटी फ़िल्में भी हुआ करती थीं। पाठक जी भाषायी पत्रकारों के बीच बेहद सम्मानित और लोकप्रिय थे। शायद इसी कारण उन्हें नए और लॉन्चिंग स्टार की फ़िल्में अधिक मिलती थीं। और हाँ, उनका पूरा नाम राजाराम पाठक था। कहते हैं नंदू तोलानी ने उनका नाम ‘आर.आर.’ मशहूर किया था।बनारस से पढ़ाई करने के बाद मुंबई आने पर उन्होंने फ़िल्म प्रचार से जुड़ना चाहा। 1970 के आसपास अर्जुन हिंगोरानी की फ़िल्मों से उन्होंने शुरुआत की। अर्जुन हिंगोरानी के प्रिय हीरो धर्मेंद्र के बारे में पत्र-पत्रिकाओं में लिखवाने और छपवाने का काम उन्होंने बखूबी किया।
अमिताभ बच्चन के आक्रामक प्रचार और ‘वन मैन इंडस्ट्री’ के दौर में उन्होंने धर्मेंद्र सरीखे कलाकारों को भी चर्चा के केंद्र में रखा। उन्होंने आमिर ख़ान, अजय देवगन, अक्षय खन्ना और रितिक रोशन की पहली फिल्मों का धुआँधार प्रचार किया।
हार्ड कॉपी से डिजिटल एज तक
भाषायी पत्र-पत्रिकाओं और पत्रकारों से उनके संपर्क और प्रभाव के सभी स्टार क़ायल थे। यही कारण है कि हार्ड कॉपी से डिजिटल एज में आने के बाद भी रितिक रोशन और उनके पिता राकेश रोशन ने उन्हें अपने साथ रखा। वह अपने निर्माताओं के साथ लगे रहे।पुरानी शैली की हल्की मूछें, करीने से संवरे बाल और झक सफेद लिबास में आर.आर. पाठक अपनी सरल मुस्कान और हमदर्द रवैये से पत्रकारों को अपना मुरीद बना लेते थे। वह पत्र-पत्रिकाओं और पत्रकारों की ख़ास ज़रूरतों को अच्छी तरह समझते थे।
उनकी मानसिकता पढ़ लेते थे। वह अपने बैनर और निर्माताओं का ख्याल रखते हुए हर प्रकार की सामग्री उपलब्ध करवाने के लिए तत्पर रहते थे। तब मुख्य रूप से प्रोडक्शन की ख़बरें, फ़िल्म की कहानियां, शूटिंग कवरेज और निर्माता-निर्देशकों के इंटरव्यू की अधिक माँग रहती थी। मुहूर्त और शूटिंग संपन्न होने की ख़बरें खास होती थीं।
पाठक जी उन आरंभिक पीआरओ में से एक थे जिन्होंने स्टारों के इंटरव्यू और पत्रकारों के मेलजोल पर अधिक ज़ोर दिया।
पत्रिकाओं का ज़माना
प्रिंट मीडिया के उस दौर में फ़िल्मी पत्रिकाओं और अख़बारों की भरमार थी। अख़बारों ने रंगीन होना शुरू किया था और अपने पृष्ठ को आकर्षक बनाने के लिए कुछ संकोच भाव से ही सही, फ़िल्मों की रंगीन तसवीरों के लिए जगह बना रहे थे। पत्रिकाओं में फ़िल्म स्टारों (हीरो-हीरोइन) की तसवीरों के साथ फ़िल्म संबंधी ताज़ा ख़बरें छपा करती थीं।ट्रेड मैगजीन व स्क्रीन एवं अन्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रोडक्शन की तस्वीरें और ख़बरें मुख्य रूप से छपती थीं। याद होगा उन ग्रुप तस्वीरों की जिन में बाएं से दाएं 10-10 व्यक्ति खड़े रहते थे और सभी के नाम नीचे लिखे जाते थे।
यह सारा विवरण और कैप्शन पीआरओ के दफ़्तर में हर एक फोटो के पीछे हाथ से लिख कर या स्टिकर चिपका कर लगाया जाता था। फोटो की हार्ड कॉपी 5x7 साइज़ की होती थी। हाथ से लिखी या टाइप की सामग्री की साइक्लोस्टाइल कॉपी साथ में नत्थी कर दी जाती थी। मुहूर्त, शूटिंग, म्यूज़िक रिलीज़ और अन्य गतिविधियों का लिखित विवरण और सम्बंधित फ़ोटोग्राफ़ रखा जाता था।
पत्रकारों की फरमाइश
आर. आर. पाठक ने रूपतारा स्टूडियो के दौर में पीआरशिप शुरू किया। रितिक रोशन के नाना जे ओमप्रकाश के दफ़्तर से सटे उनका ऑफिस था। तब के पत्रकार बताते हैं कि जे ओमप्रकाश की इंपोर्टेड कार के आसपास अगर फिएट दिखाई पड़ जाती थी तो वह समझ जाते थे कि आर. आर. पाठक दफ़्तर में मौजूद हैं। वहाँ से वह ट्रेड मैगजीन और कुछ पत्र-पत्रिकाओं के दफ्तर में रूटीन चक्कर लगाते थे। पत्रकारों की फरमाइश और ज़रूरत के अनुसार उनका स्टाफ तसवीर और प्रेस रिलीज़ के साथ संबंधित सामग्री लिए हाज़िर हो जाता था।उनके वर्सोवा के जे. पी. रोड स्थित ऑफिस में मैंने देखा था कि एक दीवार पर 16-20 खाने बने हुए थे, जिनमें रिलीज होने वाली आगामी फ़िल्मों की तसवीरें और सामग्री पड़ी रहती थी। पत्रकार ज़रूरत के मुताबिक तस्वीरें ले सकते थे। दूसरे शहरों के पत्रकारों और पत्र-पत्रिकाओं को उनकी डाक नियमित रूप से मिला करती थी।
पत्रकारों में लोकप्रिय
उन दिनों अधिकांश पीआरओ का दायरा मुंबई की अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं तक सीमित था जबकि पाठक जी दिल्ली के पत्रकारों के बीच भी अच्छे-ख़ासे लोकप्रिय थे। नतीजतन उनकी पहुँच हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में ज्यादा थी। दूर-दराज के पत्रकारों से भी वह नियमित संपर्क में रहते थे। इस वजह से मुंबई में सक्रिय और शक्तिशाली निर्माता और पीआरओ उनकी मदद लिया करते थे। वह बगैर वैमनस्य के सभी की मदद करते थे।कानाफूसी और गॉसिप की दुनिया से होने के बावजूद मैंने कभी उनसे किसी के लिए अपशब्द या बुराई नहीं सुनी। वह ज़रूरतमंद पत्रकारों की मदद किया करते थे।
आर. आर. पाठक ज़रूरतमंद फ्रीलांसर से अपनी सामग्री लिखवा कर या अनुवाद करवा कर प्रकारांतर से उनकी आर्थिक मदद कर दिया करते थे।
जब मैं नियमित नौकरी में आया तो हर अख़बारी ज़रूरत और माँग के लिए उनसे सलाह लिया करता था। वह बेहिचक खुद मदद करते थे या रास्ता सुझा देते थे। यह उनकी ही समझदारी और भविष्य मापने की प्रतिभा थी कि जब मैंने अपने अख़बार के लिए कुछ विशेष सामग्रियाँ माँगी तो वे सहर्ष तैयार हो गए।
मीडिया टाईअप
पुराने पाठकों को याद होगा कि दैनिक जागरण में आगामी फ़िल्मों की झलक चौथाई या आधे पृष्ठ में छपा करती थी। बाद में उसकीं नक़ल सभी हिंदी अख़बारों ने की। उन्होंने दैनिक जागरण से मीडिया टाईअप के मेरे सुझाव का समर्थन किया। उन्होंने मेरे और निर्माता राकेश रोशन के साथ पूरी रणनीति बनाई। किसी भी मीडिया हाउस से फ़िल्म का वह पहला बड़ा मीडिया टाईअप था।दैनिक जागरण के मार्केटिंग निदशक की देखरेख में पूरी प्लानिंग बनी और ‘कहो ना प्यार है’ के साथ कारगर और सफल शुरुआत हुई। बाद में सभी मीडिया हाउस ने ऐसे टाईअप किये। राकेश रोशन, रितिक रोशन और अमीषा पटेल फिल्म के प्रमोशन के लिए दो दिन कानपुर में ठहरे।
कहो ना प्यार है!
मुझे अच्छी तरह याद है कि मुंबई से लखनऊ की फ्लाइट लेते समय राकेश रोशन को आम यात्रियों ने पहचाना और उनके ऑटोग्राफ लिए। रितिक रोशन को अधिक तवज्जो नहीं मिली, लेकिन उन दो दिनों में दैनिक जागरण में ‘कहो ना प्यार है’ से सम्बंधित छपी ख़बरों का ऐसा असर हुआ कि रिलीज़ के बाद कानपुर से लौटते समय कानपुर-लखनऊ हाईवे और फिर लखनऊ एयरपोर्ट पर हमें पुलिस एस्कॉर्ट की ज़रूरत पड़ी।
सुरक्षा गार्डों की मदद से ही रितिक रोशन एयरपोर्ट में दाखिल हो पाए और विमान में सवार हुए। मैंने प्रत्यक्ष रूप से ‘रातों-रात स्टार’ बनते रितिक रोशन को देखा था।
हार्ड कॉपी से डिजिटल युग में आने के साथ पत्रकारिता और पीआरशिप में भारी परिवर्तन आया और अब तो पूरा परिदृश्य बदल चुका है। फ़िल्मी हस्तियों और फ़िल्म पत्रकारों का रिश्ता ही बदल गया है। दूरी और औपचारिकता आ गयी है। नए जमाने के साथ कदमताल बिठाने में पाठक जी पिछड़ गए। खुद को व्यस्त रखने के लिए उन्होंने कुछ युवा और प्रयोगशील पीआरओ को सलाह-मशविरा दिए।
धीरे-धीरे हर पेशे में वरिष्ठ होने के साथ नेपथ्य में जाने की स्वाभाविक प्रक्रिया में पाठक जी भी शिथिल हो गए। पिछले कुछ समय से वह बीमार चल रहे थे।
कह सकते हैं कि पुरानी पीढ़ी के बचे चंद पीआरओ में से एक पाठक जी के दिवंगत होने के साथ फिल्म प्रचार का एक महत्वपूर्ण अध्याय समाप्त हो गया।