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यूपी निकाय चुनाव: बीजेपी का आरक्षण विरोधी चेहरा फिर उजागर!

यूपी निकाय चुनाव: बीजेपी का आरक्षण विरोधी चेहरा फिर उजागर!

क्या ओबीसी आरक्षण के लिए ‘ट्रिपल टेस्ट फ़ार्मूले’ के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को जानबूझ कर तो नज़रअंदाज़ नहीं किया गया? क्या योगी सरकार निकाय चुनाव कराना ही नहीं चाहती थी? 

स्थानीय निकाय चुनाव को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट के लखनऊ खंडपीठ के फ़ैसले ने बीजेपी के आरक्षण विरोधी चरित्र को एक बार फिर सामने ला दिया है। अब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने और उप मुख्यमंत्री बिना ओबीसी आरक्षण के चुनाव न कराने का ऐलान कर रहे हैं, लेकिन इससे इस मुद्दे पर उनकी सरकार की आपराधिक लापरवाही छिप नहीं सकती।

हाईकोर्ट ने निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण पर रोक नहीं लगायी है, बल्कि ये कहा है कि सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन्स के मुताबिक ओबीसी आरक्षण देने को लेकर ‘ट्रिपल टेस्ट’ के नियम का पालन नहीं किया गया है। यह सीधे-सीधे योगी सरकार की ओबीसी आरक्षण को लेकर गंभीरता पर टिप्पणी है।

हाईकोर्ट ने इस विशेष परिस्थिति में ओबीसी के लिए आरक्षित सीटों को सामान्य मानते हुए को 31 जनवरी, 2023 तक चुनाव कराने का निर्देश दिया है। ऐसा हुआ तो निश्चित ही उन पिछड़ी जातियों के अधिकारों पर डाका जैसा होगा जिनका बड़े पैमाने पर वोट लेकर बीजेपी आज यूपी की सत्ता में है।

योगी सरकार की नीयत साफ़ होती तो मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड और बिहार में उत्पन्न हुई ऐसी ही स्थितियों से सबक लेती और समय रहते निकायों के पिछड़ेपन की प्रकृति के अध्ययन के लिए आयोग गठित कर देती ताकि यूपी में कोई अवांछित स्थिति न पैदा हो।

सुप्रीम कोर्ट ने ‘ट्रिपल टेस्ट फ़ार्मूला’ की गाइडलाइन्स 12 साल पहले तय की थीं जिसका पालन करना हर राज्य के लिए  ज़रूरी है। लेकिन योगी सरकार कान में तेल डाले बैठी रही। हाईकोर्ट के फ़ैसले के बाद उठे राजनीतिक विवाद के बीच सरकार ने आयोग गठन की अधिसूचना जारी की है जबकि यह काम छह महीने या साल भर पहले भी किया जा सकता था।

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जब उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या कहते हैं कि वे बिना ओबीसी आरक्षण के निकाय चुनाव नहीं होने देंगे तो सवाल उठता है कि 31 जनवरी 2023 तक निकाय चुनाव कराने के हाईकोर्ट के आदेश को लागू करने से उनकी सरकार  कैसे बचेगी? सरकार सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कह रही है लेकिन क्या सुप्रीम कोर्ट अपनी ही गाइडलाइन्स के ख़िलाफ़ जाते हुए कोई फ़ैसला कर सकता है?

ऐसे में संदेह होता है कि कहीं ओबीसी आरक्षण के लिए ‘ट्रिपल टेस्ट फ़ार्मूले’ के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को जानबूझ कर तो नज़रअंदाज़ नहीं किया गया? ऐसा तो नहीं कि सरकार निकाय चुनाव कराना ही नहीं चाहती थी? उसने एक व्यवस्था यह बनायी हुई है जब तक चुनाव नहीं हो जाते, जिला मजिस्ट्रेट की अध्यक्षता में बनी कमेटी निकाय के कार्य-व्यापार का संचालन करेगी। यह सीधे-सीधे निकायों पर सरकारी कब्ज़े की साज़िश है जिसका मक़सद जनता को मिले स्वशासन के अधिकार को छीनना है।

यह भी ग़ौर करने की बात है कि आयोग गठन के बाद ‘ट्रिपल टेस्ट फ़ार्मूले’ के दूसरे चरण में निकायों में ओबीसी की संख्या पता करना था और तीसरे चरण में सरकार के स्तर पर आयोग के आकलन की समीक्षा होनी थी।

इससे सूबे में ओबीसी जातियों की जनसंख्या की सच्चाई काफ़ी हद तक सामने आ जाती जिससे बीजेपी डरती है। लगभग पूरे विपक्ष की माँग के बावजूद बीजेपी जिस तरह जाति जनगणना से भाग रही है, उससे यह संदेह और पुख़्ता होता है।

बीजेपी और उससे जुड़े वैचारिक संगठनों का आरक्षण विरोधी रवैया कोई नया नहीं है। मंडल कमीशन के ज़रिये जब पहली बार पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिया गया तो इसके ख़िलाफ़ देश भर में चले आंदोलन में बीजेपी की भूमिका छिपी नहीं है। यही नहीं जिस तरह से सरकारी उपक्रमों को निजी क्षेत्र में तब्दील किया जा रहा है, उसने भी बड़े पैमाने पर आरक्षण के लाभ से आरक्षित वर्ग को वंचित किया है। निजी क्षेत्र की पैरोकारी के शोर के बीच यह नहीं भुलाना चाहिए कि वहाँ आरक्षण लागू नहीं होता। 

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लोकतंत्र में संख्याबल के महत्व की वजह से बीजेपी को आरक्षण के मुद्दे पर बैकफुट पर जाना पड़ा पर बीच-बीच में आरक्षण को लेकर उसकी तक़लीफ़ बयान हो ही जाती है। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत एक से ज़्यादा बार आरक्षण की समीक्षा की बात कह चुके हैं और 10 फ़ीसदी आर्थिक आरक्षण के ज़रिये किस तरह संविधान की भावना को उलटा गया है, यह भी किसी से छिपा नहीं है।

इससे आरक्षण को ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रम बना दिया गया जबकि इसे शासन-प्रशासन से जुड़ी तमाम संस्थाओं में प्रतिनिधित्व देने के उपाय बतौर अपनाया गया था। यह खुली आँख से दिखने वाली सच्चाई है कि आरक्षण की वजह से भारत में दलित, पिछड़े और आदिवासी समाज का एक ऐसा मध्यवर्ग विकसित हुआ है जिसकी संख्या करोड़ों में है। एक संवैधानिक उपाय ने इस तादाद में लोगों की ज़िंदगी बदली हो, ऐसी मिसाल विश्व इतिहास में नहीं है।

पर इससे करोड़ों लोगों को मनुष्य से एक दर्जा नीचे होने का अहसास कराने वाली वर्णव्यवस्था के श्रेष्ठ-ताक्रम को चोट पहुँची है जो आरएसएस विचारकों को एक श्रेष्ठ व्यवस्था लगती है। उन्होंने आरक्षण को हमेशा हिंदू समाज की एकता को तोड़ने वाली व्यवस्था समझा है। संविधान लागू होने के बाद आरएसएस की ओर से हुए इसके मुखर विरोध की एक वजह आरक्षण भी था।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदुत्व के सिद्धांतकार मनु स्मृति को ‘हिंदू लॉ’ मानते हैं जबकि मनु स्मृति असमानता का दस्तावेज़ है। डॉ.आंबेडकर ने 25 दिसंबर 1927 को मनु स्मृति को सार्वजनकि रूप से जलाया था। आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर अपनी किताब ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइंड’ में साफ़ लिखते हैं कि ‘वर्ण और आश्रम हिंदू समाज की ढाँचागत विशेषताएँ हैं।”

पिछले विधानसभा चुनाव के पहले अपने एक टीवी साक्षात्कार में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने ‘क्षत्रिय होने पर गर्व’ होने की खुली घोषणा की थी। इसके पहले वह यह भी कह चुके हैं कि “जाति की हिंदू समाज में वही भूमिका है जो खेतों में क्यारियों की होती है। वह समाज को संगठित और व्यवस्थित बनाने में मदद करती है।”

आरक्षण को लेकर आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों के विरोध का वैचारिक स्रोत बड़ा स्पष्ट है। ऐसे में किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि योगी सरकार ने स्थानी निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण को लेकर हीला-हवाली क्यों की!

(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)

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