नीतीश के ‘तेजस्वी’ क्षण की आडवाणी को भी प्रतीक्षा होगी!
प्रधानमंत्री बारह जुलाई को पटना में थे। वे वहाँ बिहार विधानसभा के शताब्दी समारोह में भाग लेने पहुँचे थे। इस अवसर पर मोदी की मुलाक़ात तेजस्वी यादव से होनी ही थी। तेजस्वी के साथ संक्षिप्त बातचीत में पीएम ने राजद नेता को सलाह दे डाली कि उन्हें अपना वज़न कुछ कम करना चाहिए। तेजस्वी ने मोदी के चैलेंज को मंज़ूर कर लिया। एक महीने से भी कम वक्त में तेजस्वी ने न सिर्फ़ खुद का वज़न कम करके उसे नीतीश कुमार के साथ बाँट लिया, बिहार का राजनीतिक होमोग्लोबीन भी दुरुस्त कर दिया।
दो मत नहीं कि नीतीश ने तेजस्वी के साथ मिलकर मोदी के समक्ष 2024 में वापसी के लिए चुनौती खड़ी कर दी है। तेजस्वी के साथ मिलकर किए गए राजनीतिक विस्फोट के बाद जब पत्रकारों ने नीतीश से सवाल किया कि क्या वे 2024 में पीएम पद के उम्मीदवार हैं? बिहार के मुख्यमंत्री द्वारा शब्दों को तौलकर दिया गया जवाब था: ‘मैं किसी चीज़ की उम्मीदवारी की दावेदारी नहीं करता। केंद्र सरकार को 2024 के चुनाव में अपनी सम्भावना को लेकर चिंता करनी चाहिए।’
नीतीश द्वारा की गई टिप्पणी के कोई एक सप्ताह और लाल क़िले से अपने बहुचर्चित उद्बोधन के दो दिन बाद ही मोदी ने चिंता प्रकट करने की शुरुआत भी कर दी। नितिन गडकरी और शिवराज सिंह चौहान पार्टी की सर्वोच्च नीति-निर्धारक इकाई संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति से बाहर कर दिए गए। इन दोनों ही नेताओं और कुछ अन्य मुख्यमंत्रियों (यथा हरियाणा और हिमाचल) के भविष्य को लेकर नई सूचनाएँ भी जल्द ही प्राप्त हो सकती हैं। पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधि के तौर पर जिन नए लोगों की पुनर्गठित संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति में भर्ती की गई है उससे पार्टी की ग़रीबी और बेचैनी दोनों उजागर हो गई। आश्चर्य व्यक्त किया जा सकता है कि कट्टर हिंदुत्व के प्रतीक योगी आदित्यनाथ को जगह नहीं दी गई। 2024 के लोकसभा चुनावों के नतीजे भाजपा शायद धुन बदल कर सुनना चाहती है!
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ सहित जिन राज्यों में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं वे मोदी की 2024 में वापसी के लिए काफ़ी महत्वपूर्ण सिद्ध होने वाले हैं। 2024 के लिहाज़ से वर्तमान में विपक्षी दलों की सरकारों वाले सिर्फ़ नौ राज्यों (बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, पंजाब, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड) में ही लोकसभा की सीटों की गिनती लगा लें तो आँकड़ा 221 का होता है। ओडिशा और आंध्र को भी जोड़ लें तो कुल सीटें 267 हो जाती हैं।
उक्त राज्यों में केवल बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना में ही भाजपा मोदी के करिश्मे के दम पर विपक्ष को चुनौती दे सकने की स्थिति में आज है। अन्दाज़ लगाया जा सकता है कि सीटों की ऐसी स्थिति में भाजपा अपने 303 के वर्तमान आँकड़े को 2024 में कैसे क़ायम रख पाएगी? नीतीश कुमार ने 2024 को लेकर मोदी की चिंता बढ़ाने से पहले कुछ तो होमवर्क किया ही होगा!
जो लोग नीतीश कुमार की राजनीति को अंदर से जानते हैं, दावे के साथ कह सकते हैं कि ‘सुशासन बाबू’ की महत्वाकांक्षाएँ नरेंद्र मोदी से क़तई कम नहीं हैं।
इसीलिए जब बिहार के पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने आरोप लगाया कि नीतीश के विद्रोह के पीछे उनकी इस माँग को भाजपा द्वारा नहीं माना जाना था कि उन्हें उपराष्ट्रपति पद दिया जाए तो किसी ने भी यक़ीन नहीं किया। नीतीश कुमार द्वारा भाजपा से उपराष्ट्रपति पद की माँग करना ऐसा ही नज़र आता है जैसे नरेंद्र मोदी 2024 में देश का राष्ट्रपति बनने की इच्छा व्यक्त करें।
दो मत नहीं कि भ्रष्टाचार के मामलों में ममता बनर्जी के अत्यंत क़रीबियों पर हुई केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई, गिरफ़्तारियों और राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति के चुनावों में तृणमूल कांग्रेस द्वारा निभाई गई संदेहास्पद भूमिका ने 2024 के चुनावों में मोदी के ख़िलाफ़ विपक्ष का नेतृत्व करने के सारे समीकरण बदल दिए हैं। ममता ने, तात्कालिक रूप से ही सही, अपने को विपक्षी एकता के परिदृश्य से बाहर कर लिया है। सोनिया, राहुल और प्रियंका ने सरकार के ख़िलाफ़ सड़कों की लड़ाई को चाहे अभी नहीं छोड़ा हो, गांधी परिवार के ख़िलाफ़ जाँच एजेंसियों का दबाव बराबर बना हुआ है। प्रधानमंत्री द्वारा लाल क़िले से घोषित की गई ‘परिवारवाद’ के ख़िलाफ़ लड़ाई के असली परिणाम सामने आना अभी शेष हैं। उनके निशाने पर गांधी परिवार ही हुआ तो देश को कोई आश्चर्य नहीं होगा।
उपरोक्त परिस्थितियों में नीतीश अगर विपक्ष की अगुवाई के अवसर को इस बार चूक जाते और बिहार में बीजेपी के साथ गठबंधन में ही बने रहते तो कहा नहीं जा सकता था कि 2024 के परिणामों के बाद उनका और जद(यू) का भविष्य क्या बचता! नीतीश कुमार ने अपने क़दम से इतना तो सुनिश्चित कर ही दिया है कि जद(यू) और राजद सहित तमाम क्षेत्रीय दल भाजपा के बुलडोज़र के नीचे आने से अभी बच गए हैं। इसी तरह, झारखंड की सोरेन सरकार भी आगे की किसी तारीख़ तक के लिए सुरक्षित हो गई है।
इसे महज़ संयोग नहीं माना जा सकता कि पटना में नीतीश के धमाके के दो दिन बाद ही एक मीडिया समूह द्वारा प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को लेकर किया गया सर्वे दिल्ली में जारी हो गया। विभिन्न समस्याओं को लेकर जनता में व्याप्त व्यापक असंतोष के बीच भी सर्वे में दावा किया गया कि देश के 53 प्रतिशत लोग मोदी को ही 2024 में प्रधानमंत्री के पद पर देखना चाहते हैं। सर्वे में लोकप्रियता के दूसरे क्रम पर राहुल (नौ प्रतिशत) और तीसरे पर केजरीवाल (सात प्रतिशत) को बताया गया। मोदी को चुनौती देने वालों में भी ममता और राहुल के नामों का ही ज़िक्र किया गया। सर्वे की सबसे उल्लेखनीय बात यह थी कि नीतीश कुमार को नेतृत्व की दौड़ में कहीं बताया ही नहीं गया।
नीतीश कुमार राजनीति में आपातकाल के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाले जेपी युग की उपज हैं। जनता के बीच मौन धारणा है कि परिस्थितियाँ आपातकाल से बहुत ज़्यादा भिन्न नहीं हैं पर देश के पास कोई जेपी नहीं है। हक़ीक़त यह है कि जनता और विपक्ष दोनों को ही इस समय ज़रूरत किसी जेपी की है। नीतीश कुमार अगर साहस दिखाएँ तो उस ज़रूरत को पूरा कर सकते हैं। परिवर्तनों के लिए देशव्यापी संघर्ष की ज़मीन भी बिहार में ही तैयार हो सकती है।
लालू यादव ने तीस साल पहले (सितम्बर 1990 में) लालकृष्ण आडवाणी के ‘राम रथ’ को बिहार के समस्तीपुर में रोकने का साहस दिखाया था। नीतीश कुमार अगर संकल्प कर लें तो इस बार लालू के बेटे तेजस्वी की मदद से मोदी के ‘विजय रथ’ को रोकने की हिम्मत दिखा सकते हैं। बहुत मुमकिन है 94-वर्षीय आडवाणी भी उम्र के इस पड़ाव पर पहुँचकर अपने पुराने रथ-यात्री अनुयायियों तथा ‘मार्गदर्शक मंडल’ में धकेले जा रहे नए-नए सदस्यों के साथ बिहार से प्रकट हो सकने वाले किसी ‘तेजस्वी’ क्षण की साँसें बचाकर प्रतीक्षा कर रहे हों!