एक के बाद एक दूर होते गठबंधन सहयोगियों और राज्यों में लगातार चुनाव हारती बीजेपी को अब नीतीश कुमार ने अचानक तगड़ा झटका दिया है। उन्होंने विधानसभा में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित किया। मोदी सरकार वाले एनपीआर यानी राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को खारिज कर 2010 वाले फ़ॉर्मेट को लागू करने का प्रस्ताव भी पारित किया है। ऐसे प्रस्ताव अब तक बीजेपी के ख़िलाफ़ रही सरकारें ही पास करती रही हैं और बीजेपी इशारों-इशारों में उन्हें एंटी-नेशनल क़रार देती रही है। यानी बिहार में नीतीश कुमार गठबंधन सरकार में शामिल बीजेपी के ख़िलाफ़ आरपार के मूड में हैं। रिपोर्ट तो यह है कि बीजेपी के नेताओं को इस बारे में पता भी नहीं था। तो नीतीश कुमार ने इतना कड़ा फ़ैसला कैसे ले लिया, वह भी तब जब कहा जा रहा था कि उनके पास बीजेपी का साथ देने के अलावा कोई चारा नहीं है क्या बीजेपी लगातार चुनाव हारने के कारण बैकफ़ुट पर आ गई है एक के बाद एक सहयोगी दलों के दूर होने से बीजेपी अपना रवैया बदलने को मजबूर है
दरअसल, इसके बड़े कारण हैं- हाल के चुनाव नतीजे और बदलते राजनीतिक समीकरण। इसका ताज़ा कारण तो दिल्ली का चुनाव ही है। दिल्ली में बीजेपी की क़रारी हार हुई है। वह भी ऐसी स्थिति में जब पार्टी ने ‘साम दाम दंड भेद’ सब अपना लिया था। सभी मंत्रियों को चुनाव प्रचार में उतारा। सांसदों की बड़ी फ़ौज उतारी। चुन-चुन कर दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लाया गया । ख़ुद अमित शाह ने प्रचार अभियान संभाला। डोर-डोर कैंपेन किया। खुलेआम साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश की गई। नेताओं ने नफ़रत वाले बयान दिए। चुनाव आयोग पर पक्षपात करने का आरोप भी लगा। और न जाने क्या-क्या हुआ! बीजेपी के इस चुनाव अभियान को अभूतपूर्व कहा गया। फिर भी बीजेपी चुनाव हार गई। बड़े अंतर से। आम आदमी पार्टी की 62 सीटों के मुक़ाबले बीजेपी को सिर्फ़ 8 सीटें मिलीं। इसने बीजेपी को झकझोर दिया। झारखंड चुनाव में मिले जख्म को यह कुरेदने जैसा था!
बीजेपी के लिए बड़ी मुसीबत यह है कि सहयोगी दलों का साथ नहीं मिलने के कारण कई राज्यों में उसकी सत्ता हाथ से फिसल गई। झारखंड में बीजेपी का गठबंधन आजसू के साथ टूट गया। दूसरा कोई दल साथ आया नहीं। बिहार में जो दल बीजेपी के सहयोगी हैं वे भी झारखंड चुनाव में बीजेपी के साथ नहीं गए। बीजेपी अकेली चुनाव लड़ी। इस उम्मीद में कि वह अपने दम पर चुनाव जीत जाएगी। लेकिन वह चुनाव हार गई। जेएमएम-कांग्रेस-आरजेडी गठबंधन चुनाव जीत गया। यह बीजेपी को तगड़ा झटका था।
झटका तो महाराष्ट्र में भी लगा था, लेकिन बीजेपी ने वहाँ से सबक़ नहीं लिया। एक साथ चुनाव जीतने के बाद भी बीजेपी के खेमे से शिवसेना जैसी सबसे पुरानी सहयोगी अलग हो गई थी। उसके अलग होने से बीजेपी को महाराष्ट्र जैसे राज्य में सत्ता से बाहर होना पड़ा। शिवसेना ने एनसीपी और कांग्रेस के साथ सरकार बना ली। शिवसेना नेताओं ने आरोप लगाया था कि बीजेपी अपने सहयोगी दलों को सम्मान नहीं देती और अहंकार से पेश आती है। इसी दौरान हरियाणा में भी सरकार बनाने में बीजेपी को काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी। उससे पहले बीजेपी को राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी हार का सामना करना पड़ा था।
ऐसे ही चुनावी समीकरणों के बीच अब बिहार में इसी साल चुनाव होने वाले हैं। बीजेपी बिहार चुनाव में अकेले लड़ना नहीं चाहेगी क्योंकि बिना किसी गठबंधन के बीजेपी को चुनाव लड़ना आत्मघाती फ़ैसला ही साबित होगा।
इसका अहसास उसे शायद झारखंड चुनाव में ही हो गया था। इस बात की जानकारी नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जदयू को भी है। यानी वह इस स्थिति में हैं कि बीजेपी पर दबाव डाल सकें।
ऐसे हालात में नीतीश कुमार ने विधानसभा में एनपीआर और एनआरसी के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पास कराया है। न तो ऐसे किसी प्रस्ताव के बारे में जानकारी बीजेपी के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को थी और न ही राज्य स्तर के नेताओं को। न तो यह मुद्दा एक दिन पहले ही एनडीए विधायकों की बैठक और न ही हाल ही में पार्टी राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा के साथ बैठक में उठा था। मंगलवार सुबह विधानसभा में चर्चा शुरू होने पर जब नीतीश कुमार बोल रहे थे तो लग रहा था कि वह एनडीए की लाइन पर चल रहे हैं। लेकिन विधानसभा में ब्रेक के बाद स्थिति बदल गई। वह एनपीआर और एनआरसी के ख़िलाफ़ प्रस्ताव लेकर आ गए। उन्होंने कह दिया कि यह सर्वसम्मति से लिया गया फ़ैसला है। 'द इंडियन एक्सप्रेस' ने सूत्रों के हवाले से ख़बर दी है कि ब्रेक के समय नीतीश कुमार ने आरजेडी नेता तेजस्वी यादव सहित विपक्ष के नेताओं से मुलाक़ात की थी। एकाएक आए इस प्रस्ताव का बीजेपी विधायकों ने भी समर्थन किया, लेकिन उन्होंने इस पर आश्चर्य भी जताया।
प्रस्ताव का विरोध बीजेपी ने नहीं किया। बल्कि इसके नेता इस पर संभलकर सफ़ाई देते नज़र आए। ख़ुद बिहार में बीजेपी के बड़े नेता और उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने ट्वीट किया, 'बिहार में पुराने प्रारूप पर जनगणना कराने और एनआरसी लागू करने की कोई ज़रूरत महसूस न करने का राज्य सरकार का रुख हमेशा साफ़ रहा। विधानसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित होने के बाद एनडीए सरकार की मंशा पर सवाल उठा कर एक समुदाय विशेष को नागरिकता छिन जाने का काल्पनिक भय दिखाने वाले चेहरे बेनकाब हो गए हैं।'
तो क्या यह माना जाए कि ऐसे समय में जब बीजेपी के सहयोगी दल इससे दूर होते जा रहे हैं, पार्टी नीतीश कुमार की जदयू से दूर नहीं होना चाहती है कुछ ऐसी ही स्थिति तब भी दिखी थी जब कुछ महीने पहले जदयू और बीजेपी नेताओं के बीच राज्य में 'बड़ा भाई' होने और मुख्यमंत्री के उम्मीदवार को लेकर रस्साकशी चल रही थी। तब गृह मंत्री अमित शाह को सामने आना पड़ा था। उस दौरान गिरिराज सिंह और उनके खेमे के नेता कह रहे थे कि बीजेपी ज़्यादा सीटों पर चुनाव लड़ेगी और मुख्यमंत्री भी बीजेपी की तरफ़ से होगा। तब अमित शाह ने साफ़-साफ़ कहा था कि बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू प्रमुख नीतीश कुमार ही विधानसभा चुनाव में एनडीए के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार होंगे।
ऐसे में सवाल है कि क्या महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली चुनाव में हार के बाद और बिहार चुनाव से पहले बीजेपी नीतीश कुमार से पंगा लेने की स्थिति में नहीं है