नीतीश के बीजेपी से रिश्ते ख़राब, संघ ने भी टेढ़ी की नज़र
क्या बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) और बीजेपी के रिश्ते ख़राब हो गए हैं। क्या बीजेपी-जेडीयू की सरकार का भविष्य अब लंबा नहीं है। यह बात इसलिए कही जा रही है क्योंकि हालिया कुछ प्रकरणों से पता चलता है कि दोनों दलों के रिश्तों में कड़वाहट आ गई है। ताज़ा मामला नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड के प्रवक्ता पवन वर्मा के बयान का है।
वर्मा ने बीजेपी को चुनौती देते हुए कहा है कि बीजेपी में अगर हिम्मत है तो वह एक बार अकेले चुनाव लड़कर देख ले, उसे चुनाव नतीजों से सब कुछ समझ आ जाएगा। वर्मा ने कहा है कि जेडीयू भी अपनी तैयारी कर लेगी। वर्मा ने बीजेपी के व्यवहार पर असंतोष जताते हुए कहा कि गठबंधन में रहते हुए इस तरह के व्यवहार को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
पवन वर्मा के बयान के बाद यह साफ़ हो गया है कि बीजेपी-जेडीयू के रिश्ते अब ख़राब हो चले हैं और एनडीए सरकार का भविष्य बहुत लंबा नहीं है। सवाल यह भी खड़ा हो रहा है कि क्या बीजेपी और जेडीयू अब अलग होने वाले हैं।
दूसरी ओर आरएसएस की नज़र भी नीतीश कुमार पर टेढ़ी हो गई है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि हाल ही में यह ख़बर सामने आई थी कि बिहार सरकार ने आरएसएस और इससे जुड़े 18 और संगठनों के नेताओं की जाँच कराने को लेकर एक पत्र जारी किया गया था। इसे लेकर संघ के साथ ही बीजेपी की ओर से तीख़ा विरोध जताया गया है।
आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों के नेताओं की जाँच कराने का पत्र सामने आने के बाद इस बारे में पुलिस अधिकारियों की ओर से जो तर्क दिए गए हैं, वे किसी के भी गले नहीं उतरे। पुलिस के आला अधिकारियों ने इसे रूटीन कार्रवाई बता कर बचाव की कोशिश की। लेकिन अब यह मामला थमता नहीं दिख रहा है।
बता दें कि इस पत्र में बिहार पुलिस की स्पेशल ब्रांच के अधिकारियों से आरएसएस के अलावा विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी), बजरंग दल, हिंदू जागरण समिति, हिंदू राष्ट्र सेना, धर्म जागरण समिति, राष्ट्रीय सेविका समिति, दुर्गा वाहिनी स्वदेशी जागरण मंच, शिखा भारती, भारतीय किसान संघ, हिंदू महासभा, हिंदू युवा वाहिनी, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद समेत 18 संगठनों के नेताओं के नाम, पता, पद और व्यवसाय की जानकारी देने के लिए कहा गया था।
लेकिन सरकार की ओर से इस मामले में कोई सफाई नहीं आई। यह बात भी सामने आ रही है कि बिना सरकार की अनुमति के पुलिस इस तरह की सूचनाएँ इकट्ठा करने का क़दम उठा ही नहीं सकती। और वह भी तब जब राज्य की सत्ता में बीजेपी ख़ुद भी भागीदार हो। ऐसे में संघ को यह क़तई रास नहीं आ रहा है कि नीतीश कुमार उसके संगठनों और नेताओं की जानकारी जुटाएँ। और उसे इसका सही जवाब भी नीतीश सरकार की ओर से नहीं मिला है।
संघ नीतीश कुमार के उस बयान को नहीं भूला है जब नीतीश कुमार ने संघ मुक्त भारत की बात कही थी। नीतीश ने कहा था कि बीजेपी और संघ की बाँटने वाली विचारधारा के ख़िलाफ़ एकजुटता ही लोकतंत्र को बचाने का एकमात्र रास्ता है।
नीतीश के संघ से जुड़े संगठनों और उसके नेताओं की जाँच कराने का एक कारण यह भी हो सकता है कि नीतीश को बिहार में संघ का विस्तार होने से अपने अल्पसंख्यक वोट बैंक के खिसकने का डर हो। पिछले कुछ सालों में बिहार में संघ काफ़ी तेज़ी से फैला है। सर संघसंचालक मोहन भागवत लगातार बिहार के दौरे पर आ रहे हैं।
‘हिंदू’ बनाने में जुटा संघ
संघ लगातार हिंदू समाज को जातियों से मुक्त कर ‘हिंदू’ बनाने में जुटा है। ऐसे में नीतीश कुमार चिंतित हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि कहीं संघ के प्रभाव में आकर उन्हें समर्थन देने वाली जातियाँ बीजेपी का रुख न कर लें। नीतीश कुमार इस ख़तरे को जानते हैं और वह यह भी जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में हिंदू समाज की तमाम जातियाँ हिंदुत्व के नाम पर गोलबंद हो गई थीं और इसका सीधा फायदा बीजेपी को मिला था। संघ के इस हिन्दुत्वीकरण के एजेंडे से नीतीश कुमार का चिंतित होना लाजिमी है।
जेडीयू को एक डर और है। जेडीयू को पता है कि लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के अध्यक्ष रामविलास पासवान बीजेपी का साथ छोड़कर नहीं जाएँगे और विधानसभा चुनाव में गठबंधन में होने के कारण बीजेपी-जेडीयू-एलजेपी को मिलकर लड़ना होगा। उसे डर यह है कि अगर चुनाव बाद बीजेपी और एलजेपी एक साथ हो गए तो उससे मुख्यमंत्री का पद छिन सकता है। लोकसभा चुनाव में जिस तरह की जीत एनडीए गठबंधन को मिली है उससे यह कहा जा सकता है कि बीजेपी और एलजेपी की सीटें बहुमत लायक हो सकती हैं और जेडीयू को दरकिनार किया जा सकता है।
याद दिला दें कि मंत्रिमंडल में उचित स्थान न मिलने की बात कहकर नीतीश कुमार ने जेडीयू के मोदी सरकार में शामिल होने से इनकार कर दिया था। तब भी यह बात सामने आई थी कि नीतीश कुमार और बीजेपी के रिश्ते अब सामान्य नहीं हैं। इस पत्र के सामने आने के बाद सियासत में भी उबाल आने के आसार हैं। जानकारी के मुताबिक़, बीजेपी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने कहा है कि यह मामला गंभीर है।
केंद्रीय मंत्रिमंडल में जेडीयू की उपेक्षा से नाराज नीतीश कुमार ने जब बिहार मंत्रिमंडल का विस्तार किया था तो उसमें बीजेपी को जगह नहीं दी थी। उसके बाद यह माना गया था कि ऐसा करके नीतीश कुमार ने बीजेपी और विशेषकर मोदी-शाह से बदला लिया है।
विचारधारा पूरी तरह अलग
लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान भी बीजेपी और जेडीयू में जो विचारधारा का अंतर है, वह साफ़ दिखाई दिया था। 25 अप्रैल को दरभंगा में एक रैली हुई थी, इसमें प्रधानमंत्री मोदी मोदी अपनी पार्टी के नेताओं के साथ हाथ ऊपर उठाते हुए 'वंदे मातरम', का नारा लगाते दिखे थे लेकिन नीतीश कुमार एकदम चुपचाप बैठे रहे थे। इस दौरान वह काफ़ी असहज दिखे थे और आख़िर में कुर्सी से खड़े तो हुए थे, लेकिन तब भी उन्होंने ‘वंदे मातरम’ का नारा नहीं लगाया था। उसके बाद राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल की नेता राबड़ी देवी ने यह कह कर सबको चौंका दिया था कि नीतीश कुमार के विपक्षी महागठबंधन में शामिल होने पर वह इसका विरोध नहीं करेंगी।
वैसे भी धारा 370, तीन तलाक़ क़ानून को लेकर जेडीयू का स्टैंड बीजेपी से पूरी तरह अलग है। इसे लेकर दोनों दलों में कई बार मतभेद भी सामने आ चुके हैं।
बता दें कि बीजेपी और जेडीयू पहले भी दो बार मिलकर सरकार चला चुके हैं लेकिन नरेंद्र मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद नीतीश कुमार ने एनडीए से नाता तोड़ लिया था। उसके बाद तीन साल तक आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चलाने के बाद नीतीश कुमार ने 2017 में फिर से बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। लेकिन बीजेपी शायद नीतीश के मोदी विरोध को नहीं भूली है और मौक़ा मिलने पर वह इसका बदला ले सकती है। और जिस तरह की खटपट केंद्र में मंत्रिमंडल विस्तार के बाद से शुरू हुई है, उससे लगता यही है कि बीजेपी-जेडीयू का गठबंधन अब ज़्यादा दिन चलने वाला नहीं है।