बजट : बेरोज़गारी कम करने के क्या उपाय कर रही हैं सीतारमण?
एक दिन बाद जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण बजट पेश कर रही होंगी तब उनके सामने 2020 की भारत की अर्थव्यवस्था की वह तस्वीर होगी जो पहले से ज़्यादा बदहाली की कगार पर है। बाज़ार में माँग कम है। उत्पादन में भारी गिरावट आई है। करोड़ों लोगों के रोज़गार ख़त्म हो गए यानी बेरोजग़ारी बढ़ी है। महँगाई बेतहाशा बढ़ी है और यह पाँच साल के उच्चतर स्तर पर है। अधिकतर कोर सेक्टरों की वृद्धि नकारात्मक हो गई है। इसी बीच वित्त मंत्री के सामने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ़ की वह रिपोर्ट भी होगी जिसमें उसने 2019 में भारत की आर्थिक वृद्धि दर को 6.1 से घटाकर 4.8 कर दिया है।
क्या यही वे चुनौतियाँ हैं जिनसे निर्मला सीतारमण को निपटना है और बजट में इसके लिए विशेष प्रावधान करना है दूसरे सेक्टरों की हालत क्या है उन चुनौतियों का क्या पढ़ें इस बजट में वित्त मंत्री के सामने क्या होंगी बड़ी चुनौतियाँ।
रोज़गार पैदा करना
हाल की एक मीडिया रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले पाँच साल में सात प्रमुख सेक्टरों से 3.64 करोड़ लोगों की नौकरियाँ चली गईं। यानी इतने लोग सीधे-सीधे बेरोज़गार हो गए। पिछले साल जनवरी में जब यह रिपोर्ट आई थी कि देश में बेरोज़गारी दर 6.1 फ़ीसदी हो गई है और यह 45 साल में सबसे ज़्यादा है तो लगा था कि इस पर सरकार नये सिरे से ध्यान देगी और स्थिति सुधरेगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। दिसंबर महीने में बेरोज़गारी दर 7.6 फ़ीसदी रही है। इसका साफ़ मतलब यह है कि बड़ी संख्या में लोगों की नौकरियाँ गई हैं। अब जब लोगों के पास नौकरियाँ नहीं रहेंगी तो सामान खरीदने की क्षमता भी नहीं होगी और अर्थव्यवस्था में सुस्ती ही आएगी।
माँग में गिरावट
अर्थव्यवस्था में सुस्ती या मंदी की सबसे बड़ी वजह है माँग में गिरावट। इसका साफ़ मतलब यह है कि यदि सामान का उत्पादन हो भी रहा है तो उसकी खरीदारी नहीं हो पा रही है। सामान की खरीदारी नहीं होने का मतलब यह है कि लोगों के पास पैसे नहीं हैं। यही कारण है कि इसका साफ़ असर वाहनों की बिक्री पर पड़ा है। घरेलू यात्री वाहनों की बिक्री सितंबर में 23.69 प्रतिशत घटकर 2,23,317 तक रह गई, जो एक साल पहले की अवधि में 2,92,660 थी। तब की यह रिपोर्ट थी कि वाहनों की बिक्री में गिरावट का यह सिलसिला 11 महीने से जारी रहा। एक रिपोर्ट में कहा गया था कि इसी कारण इस सेक्टर में दस लाख लोगों की नौकरियाँ ख़त्म हो गईं। दूसरे सेक्टरों की भी ऐसी ही हालत है।
महँगाई पर काबू पाना
महँगाई बेकाबू होती दिख रही है। ख़ुदरा महँगाई दर क़रीब पाँच साल में सबसे ज़्यादा हो गई है। यानी ख़ुदरा में सामान खरीदना आम लोगों के लिए पहुँच से बाहर होता जा रहा है। अब दिसंबर महीने की रिपोर्ट आई है कि रिटेल इन्फ़्लेशन यानी ख़ुदरा महँगाई दर 7.35 फ़ीसदी पहुँच गई है। यह आरबीआई द्वारा तय ऊपरी सीमा से ज़्यादा है। रिज़र्व बैंक ने 2-6 फ़ीसदी की सीमा तय कर रखी है कि महँगाई दर को इससे ज़्यादा नहीं बढ़ने देना है। इसका साफ़ मतलब है कि महँगाई दर ख़तरे के निशान को पार कर गई है।
ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार दिसंबर महीने में खाने-पीने की चीजों की महँगाई 14.12 फ़ीसदी और सब्जियों की 60.5 फ़ीसदी बढ़ी है। महँगाई को नियंत्रण में रखने का दम भरने वाली बीजेपी सरकार के लिए यह बड़ी चुनौती है।
कोर सेक्टर को संभालना
नवंबर महीने में आई अर्थव्यवस्था और रोज़गार पैदा करने में अहम भूमिका निभाने वाले कोर सेक्टर की रिपोर्ट निराश करने वाली है। सबसे अहम 8 कोर औद्योगिक क्षेत्रों में विकास दर शून्य से नीचे तो रही ही है, इसके साथ ही यह पहले से भी नीचे गई है। पिछली तिमाही में यह -5.2 प्रतिशत थी तो अब यह और गिर कर -5.8 प्रतिशत पर पहुँच गई है। इसको शून्य से ऊपर लाने की चुनौती सरकार के लिए आसान नहीं है।
राजकोषीय घाटा, निजी निवेश
सरकार ने ही राजकोषीय घाटा को जीडीपी का 3.3 फ़ीसदी से नीचे रखने का लक्ष्य रखा था लेकिन इसमें 14.8 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हो गई है। दूसरी तरफ़ अर्थव्यवस्था में सुस्ती के कारण निजी निवेश को लेकर लोगों में उत्साह नहीं है। इस कारण निजी निवेश में वृद्धि पिछले 17 साल में सबसे कम रहा है। इधर बैंकिंग प्रणाली पर भी भारी दबाव है। बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के कर्ज बाँटने की रफ़्तार काफ़ी धीमी हुई है।
आयकर सीमा को बढ़ाना
सरकार पर आयकर सीमा को बढ़ाने के लिए भी दबाव है। यह दबाव तब और बढ़ गया है जब सरकार ने हाल ही में कॉरपोरेट टैक्स में कटौती की। फ़िलहाल, मीडिया रिपोर्टों में कहा जा रहा है कि पाँच लाख रुपये तक की आय को छूट के दायरे में लाने की माँग की जा रही है। यदि वित्त मंत्री इस छूट पर विचार करती हैं तो सरकार पर आर्थिक भार पड़ेगा। अर्थव्यवस्था की ख़राब हालत होने के कारण से पहले से ही दबाव में सरकार के लिए कर जुटाना बड़ी चुनौती है।
इन चुनौतियों से पार पाने के साथ ही वित्त मंत्री को यह भी देखना होगा कि कई सुधारों के बावजूद अर्थव्यवस्था के किसी भी मोर्चे पर कोई ख़ास सुधार होता नहीं दिख रहा है। चाहे वह कारपोरेट टैक्स में कटौता का मामला हो या ऑटो सेक्टर के लिए नियमों में राहत देने का मामला या जीएसटी सुधारों का। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि दूसरी छमाही में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी वृद्धि की दर 4.5 प्रतिशत दर्ज की गई। ऐसा तब है जब आरबीआई ने 2019-20 के लिए जीडीपी विकास दर 6.1 का अनुमान लगाया था। अब इसी आरबीआई ने दूसरी छमाही की रिपोर्ट आने के बाद जीडीपी विकास दर का अनुमान 6.1 प्रतिशत से कम कर 5 प्रतिशत कर दिया है। यानी चुनौती कहीं ज़्यादा बड़ी है।