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नीरज चोपड़ा का भाला और मेरा भारत

नीरज चोपड़ा का भाला और मेरा भारत

नीरज चोपड़ा का भाला फेंकना हालाँकि जैसे किसी चरम की तरह आया। वह लहराता हुआ भाला 87 मीटर की दूरी ही तय करने वाला नहीं था, वह हमारी तरह के लोगों के लिए न जाने कितने दशकों की प्रतीक्षा के पार जाकर गिरने वाला भाला था। 

गॉल्फ़ कैसे खेला जाता है- इस पर कभी मैंने ध्यान नहीं दिया। बस यह खयाल रहा कि यह अमीरों का शौक है जो सुरम्य घास से सजे एक ख़ास गॉल्फ़ कोर्स में खेला जाता है। लेकिन शुक्रवार देर रात सोने के बावजूद शनिवार की सुबह जल्दी उठ कर मैं ओलंपिक में लड़कियों की गॉल्फ़ प्रतिस्पर्द्धा देखता रहा। बस इसलिए कि इस प्रतिस्पर्द्धा में भारत की एक प्रतियोगी अदिति अशोक भी शामिल थीं।

वह गॉल्फ़ रैंकिंग में 200वें नंबर पर हैं और ओलंपिक में 45वें नंबर पर रह कर चुनी गई थीं, लेकिन इसके बावजूद वह पदक जीतने की दावेदार थीं और अंततः कई घंटों चले मुक़ाबले के बाद चौथे नंबर पर रहीं। गॉल्फ़ के जानकारों ने बताया कि उसके और पदक के बीच जैसे सूत भर का अंतर रह गया।

इसके पहले मैं मुक्केबाज़ी और कुश्ती के वे मुक़ाबले भी देखता रहा जो खेलों के तौर पर मुझे नहीं भाते। मीराबाई चानू का भारोत्तोलन देखा, लवलीना और मैरीकॉम के मुक़ाबले देखे, रवि दहिया, दीपक पुनिया और बजरंग पुनिया के मैच देखे। जाहिर है, बैडमिंटन और हॉकी तो देखने ही थे, भले फिर इनके लिए सुबह की नींद कुछ ख़राब करनी पड़ी। 

शाम को नीरज चोपड़ा का भाला फेंकना हालाँकि जैसे किसी चरम की तरह आया। वह लहराता हुआ भाला 87 मीटर की दूरी ही तय करने वाला नहीं था, वह हमारी तरह के लोगों के लिए न जाने कितने दशकों की प्रतीक्षा के पार जाकर गिरने वाला भाला था। 

लेकिन मैं यह सब क्यों देख रहा था? क्योंकि एक भारत मेरे भीतर हिलता-डुलता, सांस लेता है, मेरी उम्मीदों का भारत, मेरे सपनों का भारत, मेरे गर्व का भारत। यह वह भारत है जो बरसों से इस बात पर मायूस रहा कि ओलंपिक में उसे पदक नहीं मिलते। वह ध्यानचंद की हॉकी स्टिक की जादुई कहानियाँ दुहराने वाला भारत है, रूप सिंह और बाबू केडी सिंह के क़िस्से सुनकर विस्मय से आँखें फैलाने वाला भारत है, वह दारा सिंह, गुरु हनुमान और गुरु सतपाल पर रीझने वाला भारत है, उड़न सिख मिल्खा सिंह के मुक़ाबलों को मन ही मन दुहराने वाला भारत है, श्रीराम सिंह के ओलंपिक फाइनल में पहुँच जाने भर से खुश हो जाने वाला भारत है और अपने खिलाड़ियों के उल्लास और अफ़सोस में साझा करने वाला भारत है। 

यह मेरी भारतीय पहचान है जो मुझे इन खेलों से जोड़ती है, उसके साथ जुड़े गौरव का एहसास है जो एक सुबह अनजान लगता एक खेल देखने के लिए मुझे जगाती है। इस अर्थ में करोड़ों दूसरे भारतीयों की तरह मैं भी देशप्रेमी हूँ। मेरा देशप्रेम चाहता है कि भारत जीते, लेकिन अगर कोई दूसरा जीत जाए तो हार की थोड़ी देर चलने वाली कसक के अलावा हराने वाले खिलाड़ी या मुल्क से कोई स्थायी खुन्नस या शत्रुता का भाव नहीं पालता।

मैं जानता हूँ कि खेलों में हार-जीत या देशप्रेम नमक भर होना चाहिए जिससे खाने का स्वाद बढ़ता है। यह नमक लेकिन ज़्यादा हो जाए तो ज़हर में बदल सकता है, बदल जाता है।

इसलिए मैं देशप्रेमी हूँ, लेकिन देशभक्त या राष्ट्रवादी कहलाने को तैयार नहीं हूँ। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर इस मामले में मेरे आदर्श हैं जिन्होंने एक सदी पहले कहा था, “राष्ट्रवाद हमारा अंतिम आध्यात्मिक शरण्य नहीं हो सकता। मैं हीरे की क़ीमत पर कांच नहीं खरीदूंगा और जब तक जीवित हूँ, तब तक देशभक्ति को अपनी मनुष्यता पर हावी होने नहीं दूंगा।”

देशभक्ति मनुष्यता पर कब हावी हो जाती है? जब देश को हम एक जुनून, एक उन्माद में बदल देते हैं, हर सूरत में जीतने को अंतिम लक्ष्य मानते हैं, खेलों को युद्ध की तरह बरतते हैं और हारने के बाद अपने खिलाड़ियों के घर पत्थर फेंकने लगते हैं। आज दुर्भाग्य से यह जुनून कुछ ज़्यादा है। 

मैं राजनीति की दुनिया द्वारा बनाया जा रहा यह उन्मादी देश नहीं चाहता है, मैं अपने नागरिक खिलाड़ियों द्वारा अपने पसीने से गढ़ा जा रहा वह देश चाहता हूँ जहाँ एक जीत के बाद तिरंगा धीरे-धीरे उठता है, राष्ट्रधुन धीरे-धीरे बजती है और एक देश हमारे भीतर अपने उल्लास के साथ खिलने लगता है।

दरअसल खेलों या संस्कृति की दुनिया देश या राष्ट्र के बारे में हमें कुछ और भी बताती है जो हमारा राजनीति शास्त्र या हमारा सत्ता प्रतिष्ठान नहीं बताता। खेल जो देश बनाते हैं, वहाँ सरहदें होती हैं, लेकिन नरम-मुलायम होती हैं। इसीलिए नीरज चोपड़ा की जीत पर उसी मुक़ाबले में शामिल और पाँचवें नंबर पर रहे पाकिस्तान के खिलाड़ी अरशद नदीम के नाम चला एक फर्जी ट्वीट भी हाथों-हाथ लपक लिया जाता है- “स्वर्ण पदक जीतने पर आदर्श नीरज चोपड़ा को बधाई। सॉरी पाकिस्तान, मैं तुम्हारे लिए मेडल नहीं जीत सका।”

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फ़ोटो साभार: ट्विटर/नज़मा सेटिया

कहने की इच्छा होती है, काश यह फेक ट्वीट न होता। लेकिन पाकिस्तान की ट्विटर दुनिया को देखिए तो वहाँ भी अरशद नदीम के इस तथाकथित ट्वीट की तारीफ़ करने वाले हैं- बेशक, कल को कुछ उसका मज़ाक उड़ाने वाले और कुछ उसकी निंदा करने वाले भी निकल जाएँ- आख़िर कट्टरता की प्रतिस्पर्द्धा में अपनी सारी कोशिश के बावजूद भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान अभी तक पाकिस्तान की हुकूमत से पीछे है।

लेकिन खेल और कला-संस्कृति की दुनिया अपने अलग मुल्क बनाती है। इस मुल्क में ही संभव है कि पाकिस्तान के जश्ने आज़ादी के मौक़े पर कोई पाकिस्तानी गायक हिंदुस्तानी फ़िल्म का गाना गा सकता है और हिंदुस्तानी दिल किसी मेहदी हसन की ‘रंजिश ही सही’ वाली पुकार पर धड़क सकते हैं।

हाल ही में सुनील गावस्कर का एक संस्मरण कहीं पढ़ा था। शायद किसी मुक़ाबले के दौरान सुनील गावस्कर और ज़हीर अब्बास एक साथ खड़े थे और वहाँ उनसे मिलने ब्रैडमैन चले आए। उनके साथ खड़े वेस्ट इंडियन बल्लेबाज़ रोहन कन्हाई ने परिचय कराया- “ये भारत के ब्रैडमैन हैं और पाकिस्तान के ब्रैडमैन।” इत्तिफ़ाक से बाद में जब सुनील गावस्कर को बेटा हुआ तो उन्होंने उसका नाम रोहन कन्हाई के नाम पर ही रखा।

खेल और कला की इस दुनिया को देखकर और भी बातें समझ में आती हैं। कभी कहते थे कि फुटबॉल में जिसका कोई देश नहीं होता, उसका ब्राज़ील होता है। यही बात क्रिकेट के संदर्भ में वेस्ट इंडीज़ को लेकर कही जाती थी- जबकि वेस्ट इंडीज़ राजनीतिक तौर पर एक देश भी नहीं है। लेकिन हमारे लिए क्लाइव लॉयड, विवियन रिचर्ड्स, गार्नर, रॉबर्टस या कालीचरण किन्हीं अलग-अलग देशों के नहीं, बस वेस्ट इंडीज़ के खिलाड़ी हैं।

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फ़ोटो साभार: ट्विटर/क्रिकेटमैन2

आधुनिक ओलंपिक 1896 में शुरू हुए थे। पूरे सवा सौ साल में बस दो विश्वयुद्धों की वजह से तीन ऐसे अवसर आए जब वे नहीं खेले जा सके, शीतयुद्ध के झगड़े में दो ओलंपिक आधे-अधूरे से रहे, लेकिन उनका सफ़र लगातार जारी रहा- आज इसमें 200 से ज़्यादा देश शामिल हैं। लेकिन 1896 से 2020 के बीच अलग-अलग दशकों का राजनीतिक नक्शा आप देखें तो हैरान होंगे। तब पता चलेगा कि देश नाम की जिस संज्ञा को हम बहुत पवित्र, बहुत स्थायी मानते हैं, वह न उतनी पवित्र है न स्थायी। बल्कि देश इन तमाम वर्षों में रेत के ढूहों की तरह बनते और ढहते रहे हैं। इन एक सौ वर्षों में ब्रिटिश साम्राज्य बिखर गया, भारत तीन हिस्सों में बँट गया, सोवियत संघ बना और टूट गया, चेकोस्लोवाकिया और युगोस्लाविया जैसे देश राजनीतिक नक्शे से बाहर हो गए। इज़राइल पैदा हो गया। 

विश्वयुद्धों में जिन-जिन देशों ने आपस में लड़ाई की थी और नौ करोड़ लोगों का खून बहाया था, वे सब एक हैं। यूरोप अलग-अलग देशों की वीज़ा व्यवस्था से मुक्त होता जा रहा है।

इसका मतलब यह नहीं कि हम देश से प्रेम न करें, उसे एक ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम भर मानें। लेकिन इसका मतलब यह ज़रूर है कि राजनीति ने देशों की जो सरहद बनाई है, उसे एक रेखा भर समझें, ऐसी दीवार न मानें जिसके पार बस दुश्मन बसते हैं। यह जानें कि उस पार भी खिलाड़ी होते हैं, गायक होते हैं, कलाकार होते हैं और नेता और कठमुल्ले भी होते हैं और फौजें भी होती हैं। जब खेल और गायकी उरूज़ पर होते हैं तब देश फैल जाते हैं और जब नेता और कठमुल्ले अपनी चलाते हैं तो देश सिकुड़ जाते हैं। देश वही नहीं होता जो हमारे नेता बनाते हैं- देश वह भी होता है जो हमारे भीतर पलता है, जो हमें भी बनाता चलता है।

जिस देश के लिए इन दिनों मैं सुबह जागता रहा और दोपहर कुश्ती के दांव-पेचों में या भाला फेंकने जैसे खेल में जाया करता रहा, वह हॉकी खेलने वाली ग़रीब लड़कियों का भारत है, वज़न उठाने वाली मीराबाई और मुक्केबाज़ी करने वाली लवलीना का भारत है, वह नीरज चोपड़ा का भारत है। इस भारत की उपलब्धियों को वह भारत भुनाना चाहता है जो राजनीतिक स्वार्थों और संकीर्णता में ही अपना देश खोजता है, जो इसे बाँटने पर भी आमादा दिखाई देता है। मेरी सुबहें उस भारत के लिए नहीं, इस भारत के लिए हैं। 

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