प्रतिपक्ष : लोकसभा चुनाव पास आते ही डर की सियासत शुरू
2019 के लोकसभा चुनाव की आहट को भाँपते ही राजनीति की बिसात बिछने लगी है और इस बिसात के मोहरे परोक्ष रूप से सियासत कर माहौल बनाने में लग गए हैं। ताजा वाक़या है अभिनेता नसीरुद्दीन शाह का, जिनको अब भारत में डर लगने लगा है। बुलंदशहर हिंसा पर बात करते हुए नसीरुद्दीन शाह ने कहा है कि उनको अब भारत में डर लगता है। (इंटरव्यू में नसीरुद्दीन शाह ने कहा है कि उनको डर नहीं लगता, ग़ुस्सा आता है। - संपादक)
नसीर ने कहा कि हमने बुलंदशहर हिंसा में देखा कि मौजूदा समय में देश में एक गाय की मौत की अहमियत पुलिस अफ़सर की जान से ज़्यादा होती है। उनके मुताबिक़ मौजूदा समय में वातावरण में जहर खोलने की कोशिश की जा रही है। नसीर ने कहा, ‘उन्हें इस बात का भी डर लगता है कि कहीं उन्मादी भीड़ ने उनके बच्चों को घेर लिया और उनसे पूछा कि तुम हिंदू हो या मुसलमान तो उनके पास इस बात का क्या जवाब होगा’। अब यहीं से राजनीति की शुरुआत होती है और एक हिंसा को, एक क्रूरतम अपराध की घटना को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश नसीर कर रहे हैं।
2014 के बाद से नसीर भयमुक्त वातावरण में जी रहे थे लेकिन अचानक उनको डर लगने लगा है। बुलंदशहर हिंसा की घटना को कई दिन बीत चुके हैं लेकिन नसीर को डर तब लगने लगा जब तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए। उन नतीजों में नसीर को संभावना दिखी और वो सियासत का मोहरा बनने के लिए तैयार हो गए। नसीर साहब स्वतंत्र भारत में पैदा हुए और पिछले 68 साल में उनको पहली बार डर लगा है। पहली बार उनको अपने बच्चों की फ़िक़्र सता रही है।
1984 के दंगों के वक्त उनको डर नहीं लगा, मुंबई में जब एक के बाद एक सीरियल ब्लास्ट हुए तब उनको डर नहीं लगा था, मुंबई में जब 26 नवंबर को आतंकवादी हमला हुआ था तब भी नसीर को डर नहीं लगा था। बुलंदशहर हिंसा के बाद उनको डर लगने लगा है।
जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि ये डर की सियासत है। इसके पहले आमिर ख़ान को भी डर लगा था। उसके पहले लेखक यू. आर. अनंतमूर्ति को भी डर लगा था। हालाँकि 2014 में चुनाव के नतीजों के बाद अनंतमूर्ति ने सच को स्वीकार किया था। मोदी की जीत के बाद उन्होंने कहा था, ‘मेरा मानना है कि मोदी युवाओं के बीच खासे लोकप्रिय थे और देश के युवा चीन, अमेरिका की तरह मजबूत राष्ट्र चाहते थे।’
अनंतमूर्ति के मुताबिक़, यही राष्ट्रीय भावना मोदी को सत्ता के शिखर तक पहुँचाने में सहायक रही। तो अगर आप देखें तो डर लगने का एक राजनीति पैटर्न नजर आता है। ये पैटर्न एक विशेष राजनीतिक दल को कठघरे में खड़ा करने और दूसरे को फ़ायदा पहुँचाने की नीयत का है।
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राजनीति के मैदान में उतरें नसीर
अगर नसीरुद्दीन शाह में साहस है तो उनको सच्चाई को स्वीकार कर राजनीति के मैदान में उतरना चाहिए। लोकतंत्र में सबको राजनीति करने की अनुमति है लेकिन समाज के उच्च पायदान पर खड़े होकर कला की आड़ में राजनीति करना उचित नहीं है।
नसीर साहब को अगर डर लग रहा है और वह वस्तुनिष्ठ होकर समाज के बारे में सोचते हैं तो वह उस वक़्त क्यों ख़ामोश रहे थे जब मदारी फ़िल्म के प्रदर्शन से पहले इरफ़ान ख़ान के एक बयान पर इरफ़ान के ख़िलाफ़ फ़तवा जारी किया गया था। उस वक़्त इरफ़ान ने कहा था कि दो बकरे खरीद कर उसका वध कर देना कोई कुर्बानी नहीं है। इससे कोई पुण्य नहीं मिलने वाला है।
कुर्बानी का अर्थ है कि हम अपनी कोई प्रिय वस्तु किसी को दे दें, जिसके साथ हमारा प्यार का संबंध हो। उस वक़्त इरफ़ान पर कट्टरपंथियों की तरफ़ से इतने हमले हुए लेकिन ना कोई शाहरुख ख़ान सामने आए, ना ही किसी आमिर ख़ान की नींद टूटी। (पढ़ें - आमिर ख़ान ने उस मामले पर क्या कहा था।) अगर राजनीति करनी है तो करें लेकिन देश को बदनाम नहीं करें। जनता सब जानती है, समझती है और समय आने पर सबक भी सिखा देती है।
इससे असहमत : नसीर ने वही कहा, जो हम सब देख रहे हैं
- नीचे नसीरुद्दीन का ऑरिजिनल विडियो देखें ताकि आप ख़ुद जान सकें कि नसीरुद्दीन शाह ने क्या कहा था।