सत्तर घंटे काम के प्रस्ताव के बीच ‘एट आवर्स मूवमेंट’ की याद
इन्फ़ोसिस के सह-संस्थापक एन. नारायणमूर्ति के हफ्ते में सत्तर घंटे काम करने के बयान पर स्वाभाविक ही विवाद हो रहा है। इस भीषण बेरोज़गारी के दौर में काम की उपलब्धता बड़ा संकट है लेकिन नारायणमूर्ति के बयान से लगता है कि लोग काम करना नहीं चाहते या कम काम करते हैं। ज़ाहिर है, नारायणमूर्ति की चिंता के केंद्र में वे कंपनियाँ हैं जो आठ घंटे काम के संवैधानिक प्रावधान से बँधी हैं और श्रमसुधारों की आड़ में उनसे छुटकारा पाने के लिए छटपटा रही हैं। उनकी कोशिश निर्धारित वेतन में ही कर्मचारियों से ज़्यादा से ज़्यादा काम लेकर ‘उत्पादकता’ बढ़ाना है।
जब ‘श्रम कानून’ अपने वास्तविक अर्थों में लागू थे तो मिल मज़दूर आठ घंटे से ज़्यादा काम करने पर दोगुनी मज़दूरी वाले ओवरटाइम के हक़दार होते थे। उन्हें पर्याप्त छुट्टियाँ भी दी जाती थीं। दिन में आठ घंटे काम की सीमा सरकार और समाज के सहजबोध का हिस्सा था। यह ‘सहजबोध’ एक दिन में नहीं बना था बल्कि इसके पीछे कुर्बानियों का लंबा इतिहास है।
नारायणमूर्ति को शिकायत है कि आठ घंटे काम के हिसाब से हफ्ते में छह दिन काम करने पर कर्मचारी अधिकतम 48 घंटे ही काम करते हैं। वे यह जानकर ख़ुश हो सकते हैं कि एक समय ऐसा था जब मज़दूरों के लिए काम के घंटे निर्धारित नहीं थे। मज़दूरों के लिए सूरज उगने से लेकर रात होने तक काम करना (सहज?) बात थी। चौदह से लेकर सोलह घंटे तक काम करके मज़दूरों ने औद्योगिक क्रांति के शुरुआती पहियों को रफ्तार दी थी। यह रफ्तार उनके पसीने से ही नहीं ख़ून से भी तरबतर थी। मुनाफ़े की होड़ ने कच्चे माल और बाज़ार की तलाश में दुनिया के कई देश उपनिवेश बनाये गये। उन अभागे देशों में भारत भी एक था। स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने शोषण की इस गति को बेहद गहराई से महसूस किया था इसीलिए भारतीय संविधान ने मज़दूरों की मानवीय गरिमा को महत्वपूर्ण मानते हुए श्रम अधिकारों की पैरवी की। इसी के तहत बेगारी से लेकर बलात् श्रम पर रोक लगी और श्रमिकों के लिए आठ घंटे अधिकतम काम का नियम तय हुआ। साथ ही श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा को लेकर भी कई योजनाएँ लागू की गयीं। उन्हें हड़ताल का अधिकार भी दिया गया।
तो हफ्ते में सत्तर घंटे काम की इस बहस के दौरान दिन में आठ घंटे काम के नियम के इतिहास को भी जानना ज़रूरी है। कुछ लोग यह जानकर हैरान हो सकते हैं कि मज़दूरों के अधिकारों का यह झंडा किसी कम्युनिस्ट या सोशलिस्ट देश में नहीं बल्कि पूँजीवाद के मक्का कहे जाने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में बुलंद हुआ था।
1776 में हुई अमिरिकी क्रांति का आधार ‘लिबर्टी’ यानी स्वतंत्रता थी। लेकिन इस लिबर्टी का सबसे ज़्यादा फायदा पूँजीपति वर्ग ने उठाया। अमेरिका में नये-नये शहर बसाने, नदियों पर बाँध बनाने, रेल पटरियों और सड़कों का जाल बिछाने के क्रम में विशाल मज़दूर वर्ग पैदा हुआ। मज़दूरों से 12-16 घंटे रोज़ काम लेना आम बात थी। महिलाओं और बच्चों को भी इसमें कोई छूट नहीं थी। नतीजा ये था कि मज़दूरों की औसत उम्र 40 साल से भी कम हो गयी थी। अगर वे अमानवीय स्थितियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते थे तो निजी गुंडों, पुलिस यहाँ तक कि सेना से भी हमले करवाये जाते थे। लेकिन मज़दूरों की बढ़ती तादाद उन्हें संगठित कर रही थी और उन्हें संगठन की शक्ति का अहसास भी करा रही थी।
आखिरकार 1877 के आसपास दिन में आठ घंटे काम की माँग को लेकर वे आंदोलित होने लगे। 1886 तक पूरे अमेरिका में ‘आठ घंटा समितियाँ’ बन चुकी थीं। इसे ‘एट आवर्स मूवमेंट’ कहा जा रहा था जिसने दिन के 24 घंटे को आठ घंटे काम, आठ घंटे मनोरंजन और आठ घंटे की आराम में बाँटा था।
यह इस बात की भी घोषणा थी कि मज़दूर किसी मशीन के पुर्ज़े नहीं बल्कि मनुष्य हैं और उन्हें भी मानवीय गरिमा के साथ जीने का हक़ है। पूरे अमेरिका में ‘एट आवर्स मूवमेंट’ के बड़े-बड़े बैनर और पोस्टर दिखने लगे थे जिसमें चित्रों के सहारे आठ घंटे कारख़ाने में काम, आठ घंटे घर में आराम और आठ घंटे खेल या अन्य मनोरंजन के लिए निर्धारित दिखाया गया था।
शिकागो में मज़दूरों का आंदोलन सबसे अधिक ताकतवर था। 1886 की 1 मई को पूरे अमेरिका में आठ घंटे काम की माँग को लेकर एक साथ हड़ताल का आह्वान किया गया। इस हड़ताल में 11 हज़ार कारख़ानों के तीन लाख अस्सी हज़ार मज़दूर शामिल हुए। सबसे ज़्यादा असर शिकागो में दिखा जहाँ रेल यातायात पूरी तरह ठप हो गया और ज़्यादातर कारखाने और वर्कशॉप बंद हो गये। मज़दूरों ने शहर में एक शानदार जुलूस निकाला। पूँजीपतियों के अख़बार मज़दूरों के बढ़ते ‘दुस्साहस’ के खिलाफ़ शोर मचा रहे थे और पूँजीपति भी आपात-स्थिति मानकर संगठित हो गये थे। उनके पास अपने गुंडों की शक्ति तो थी ही, पुलिस का भी उन्हें पूरा सहयोग था। 3 मई तक हालात और तनावपूर्ण हो चले थे।
मैकार्मिक हार्वेस्टिंग मशीन कंपनी में हड़ताल तोड़ने के लिए पुलिस के पहरे में तीन सौ मज़दूरों को लाया गया था जिसके खिलाफ़ हड़ताली मज़दूरों की मीटिंग हुई। इन निहत्थे मज़दूरों पर गोलियाँ चलायी गयीं जिसमें चार मज़दूर मारे गये और कई घायल हुए। पुलिस की इस बर्बरता के खिलाफ़ 4 मई को शहर के मुख्य बाज़ार ‘हे मार्केट स्क्वायर’ में एक जनसभा रखी गयी। मीटिंग देर शाम आठ बजे शुरू हुई जिसमें हज़ारों मज़दूर जुटे। रात दस बजे बारिश शुरू हो गयी थी। भीड़ कम हो चुकी थी। मीटिंग खत्म होने वाली थी जब कैप्टन बॉनफील्ड की अगुवाई में 180 पुलिसवालों का जत्था वहाँ पहुँचा। उसने मीटिंग ख़त्म करने का हुक्म दिया। शिकागो के नागरिक उसकी क्रूरता से परिचित थे। लोगों ने बताने की कोशिश की कि सभा पूरी तरह शांतिपूर्ण है और मेयर से इजाज़त भी है। इसी बीच किसी ने पुलिसवालों पर बम फेंक दिया जिसमें एक पुलिसवाला मारा गया और पाँच घायल हो गये। इस पर पुलिस ने पागलों की तरह गोलियाँ बरसानी शुरू कर दीं। छह मज़दूर मौके पर मारे गये और 200 से ज़्यादा जख्मी हो गये। मज़दूरों के खून से उनका झंडा लाल हो गया। लाल झंडे की कहानी यहीं से शुरू हुई और मई दिवस की भी।
इस घटना के बाद शिकागो पुलिस ने मज़दूरों पर भीषण दमन ढाया। मजदूरों की बस्तियों से लेकर उनके संगठनों के दफ्तरों पर लगातार छापेमारी की गयी। हज़ारों गिरफ्तार हुए। बाद में पुलिस ने अल्बर्ट पार्सन्स, आग्स्ट स्पाइस, जॉर्ज एंजेल, एडॉल्फ़ फ़िशर, सैमुअल फ़ील्डेन, माइकेल श्वाब, लुइस लिंग्ग और ऑस्कर नीबे पर हत्या के मुल्जिम बतौर मुकदमा दर्ज किया। जबकि सैमुएल फ़ील्डेन को छोड़कर कोई घटनास्थल पर मौजूद नहीं था। मुक़दमे की शुरुआत में सात लोग ही कठघरे में थे। अलबर्ट पार्सन्स पुलिस से बचता घूम रहा था पर उसके ज़मीर को ये गवारा नहीं हुआ कि उसके बेकसूर साथी फ़र्जी मुक़दमे में फँसाये जा रहे हों और वह बाहर रहे। पार्सन्स ने खुद अदालत के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।
न्याय के नाटक के बाद 20 अगस्त 1887 को शिकागो की अदालत ने नीबे को छोड़कर बाकी सात मज़दूर नेताओं को फाँसी की सज़ा सुना दी। नीबे को पंद्रह साल की बामशक्कत कैद की सज़ा सुनायी गयी। पूरे अमेरिका में इस क्रूर फैसले के खिलाफ गुस्सा भड़क उठा। सुप्रीम कोर्ट ने अपील सुनने से इंकार कर दिया। बहरहाल, जनाक्रोश को देखते हुए इलिनाय के गवर्नर ने फील्डेन और श्वाब की सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया। 10 नंवबर 1887 को सबसे कम उम्र के लुइस लिंग्गा ने कालकोठरी में आत्महत्या कर ली। शुक्रवार 11 नवंबर को पार्सन्स, स्पाइस, एंजेल और फ़िशर को शिकागो की कुक काउंटी जेल में फाँसी दे दी गयी। एक पत्रकार ने बाद में लिखा कि ‘चारों मज़दूर नेता डरे नहीं, शान से क्रांतिकारी गीत गाते हुए फाँसी पर चढ़े।’ 13 नवंबर को जब इन चारों शहीदों की शवयात्रा निकाली गयी तो पाँच लाख से ज्यादा लोग इन्हें आखिरी सलाम देन सड़कों पर उमड़े हुए थे। यह कुर्बानी व्यर्थ नहीं गयी। बीसवीं सदी में अमेरिका समेत पूरी दुनिया में आठ घंटे का नियम एक आदर्श के रूप में स्वीकार किया गया।
बाज़ार के पैरोकार नारायणमूर्ति के प्रस्ताव को जीडीपी बढ़ने का मंत्र बता रहे हैं। उन्हें इस बात की चिंता नहीं कि यह प्रस्ताव कर्मचारियों को मनुष्य नहीं मशीन या कंप्यूटर की चिप बनाना चाहता है। मशीन पुरानी पड़ने पर और चिप खराब होने पर बदल दी जाती है, लेकिन मनुष्य के पास एक ही जीवन है। उसे परिवार के लिए भी वक्त चाहिए और आराम के लिए भी। यह उसके स्वस्थ रहने के लिए भी ज़रूरी है। उसे पूरा हक़ है कि वह मशीन बनने से इंकार करे। समय से पहले थकावट और मृत्यु देने वाली व्यवस्था से बग़ावत करे। इतिहास की पुकार उसके पक्ष में है।