गुजरात की राजनीति में अल्पसंख्यक समुदाय मुसलिम का प्रतिनिधित्व आख़िर किस तरह का है, इसका अंदाजा मौजूदा चुनाव में उम्मीदवारों से भी लगाया जा सकता है।
कांग्रेस ने अब तक 140 उम्मीदवारों को नामांकित किया है, उनमें से छह मुसलमान हैं। भाजपा के 166 में से एक भी मुसलिम नहीं है। यहां तक कि आप के अब तक 157 उम्मीदवारों में से केवल दो मुसलमान हैं। तो क्या इससे उनकी आबादी के अनुसार सही प्रतिनिधित्व मिलता हुआ दिखता है?
2011 की जनगणना के अनुसार गुजरात में कुल आबादी के क़रीब 88.6 फ़ीसदी हिंदू हैं और 9.7 फ़ीसदी मुसलिम। यानी 100 की आबादी में उनकी हिस्सेदारी क़रीब 10 की है। क्या मौजूदा सरकार में जितने मंत्री हैं उसके 10 फ़ीसदी मंत्री मुसलिम हैं?
इस सवाल का जवाब है- 'नहीं'। ऐसा इसलिए कि गुजरात सरकार के मौजूदा मंत्रिमंडल में एक भी मंत्री मुसलिम नहीं है।
दरअसल, दशकों में गुजरात सरकार में एक भी मंत्री मुसलिम नहीं रहा है। गुजरात में बीजेपी से चुनाव लड़ने वाला एकमात्र अल्पसंख्यक सदस्य 24 साल पहले था।
पिछली बार कांग्रेस ने गुजरात विधानसभा चुनावों में 10 या उससे अधिक मुसलमानों को 1995 में उतारा था। यानी क़रीब 27 साल पहले का यह मामला है। इसके बाद से चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों में इसकी संख्या लगातार गिरती रही है।
हालाँकि पार्टियाँ इस दावे के साथ अपने फ़ैसले को सही ठहराती रही हैं कि उन्होंने अपने जिताऊ उम्मीदवारों को टिकट दिया है, न कि धार्मिक आधार पर।
हालाँकि, कांग्रेस की अल्पसंख्यक शाखा ने इस चुनाव में मुसलमानों के लिए 11 टिकट मांगे हैं। टीओआई की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले चार दशकों में पार्टी ने सबसे अधिक 17 मुसलिम उम्मीदवार 1980 में उतारे थे। तब पूर्व मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी ने अपने KHAM (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम) फॉर्मूला माध्यम से चुनावी सफलता हासिल की थी। परिणाम उत्साहजनक थे। मतदाताओं ने 12 मुसलमानों को विधानसभा में भेजा। हालाँकि, 1985 में कांग्रेस ने KHAM फ़ॉर्मूले को आगे बढ़ाते हुए अपने मुसलिम उम्मीदवारों को घटाकर 11 कर दिया, जिनमें से आठ चुने गए थे।
यह स्थिति तब और बदली जब 1990 के दशक में हिंदुत्व का बड़ा मुद्दा बीजेपी ने लपका। उसने राम जन्मभूमि अभियान को आगे बढ़ाया और फिर मुसलिम उम्मीदवारों की संख्या लगातार कम होती गई।
1990 के विधानसभा चुनाव तक राम जन्मभूमि अभियान ने हिंदुत्व की राजनीति का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। टीओआई की रिपोर्ट के अनुसार बीजेपी और उसके सहयोगी जनता दल ने उस चुनाव में किसी भी मुसलिम उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा और कांग्रेस ने 11 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा। उनमें से केवल दो ही सफल रहे। 1995 में कांग्रेस के सभी 10 मुसलिम उम्मीदवार हार गए। गोधरा कांड और 2002 के बाद के सांप्रदायिक दंगों में मतदाताओं के ध्रुवीकरण के साथ कांग्रेस ने 2002 में केवल पाँच मुसलमानों को मैदान में उतारा। तब से मुसलिम उम्मीदवारों को पार्टी का टिकट कभी भी छह से अधिक नहीं दिया गया है।