‘मुसलमान घरों में नमाज़ क्यों नहीं पढ़ सकते, खुली जगह क्यों चाहिए?’
वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने 24 नवंबर को अपने ट्विटर हैंडल पर यह सवाल पूछा है- दर्जनों हिन्दू मित्रों ने पूछा है, ‘मुसलमान अपने घरों में नमाज़ क्यों नहीं पढ़ सकते, उन्हें खुली जगह क्यों चाहिए?’
इस सवाल के साथ उन्होंने यह भी लिखा है- ‘मुझे हैरत है किसी मुसलिम मित्र ने इस स्वाभाविक सवाल का जवाब नहीं दिया। सुन्नी-शिया इसलाम दोनों में शुक्रवार दोपहर की नमाज़ समुदाय के साथ पढ़ना अनिवार्य है, इसलिए।’
बाक़ी छह दिन की पाँच नमाज़ें तो जहाँ संभव हो वहाँ ही पढ़ी जाती हैं। अनिवार्यतः सामूहिक नमाज़ नहीं होतीं। जुम्मे की नमाज़- सलात-अल-जुम्मा, विशेष है और हर मुसलमान के लिए ज़रूरी है। हम सब एक दूसरे के धर्म के बारे में बुनियादी जानकारियाँ आसानी से हासिल कर सकते हैं गूगल जी की मदद से।
— राहुल देव Rahul Dev (@rahuldev2) November 24, 2021
एक लाख चवालीस हजार फ़ालोअर्स वाले अपने हैंडल पर श्री देव ने इस सवाल को स्वाभाविक कहा है लेकिन यह सवाल अभी के हालात के लिहाज से क़तई स्वाभाविक सवाल नहीं है। असल में यह सवाल से ज़्यादा आपत्ति और आक्षेप है कि मुसलमानों को नमाज़ पढ़ने के लिए खुली जगह क्यों चाहिए। मुसलमान नमाज कहाँ पढ़ेंगे, इसका निर्णय वे खुद करेंगे या सवाल करने वाले? इसके लिए कोई सर्वमान्य व्यवस्था होगी या सवाल करने वालों की मनमानी चलेगी? कोई व्यवस्था होगी जिससे यह तय होगा कि धार्मिक आयोजन कहां होंगे और कौन कहां उपासना कर सकता है।
अगर यह स्वाभाविक सवाल है तो इसका जवाब अलग होगा और अगर यह आपत्ति है तो इसका जवाब कुछ और होगा। सबसे सरल जवाब तो यह है कि नमाजी जब घर से बाहर होंगे तो बाहर ही नमाज पढ़ेंगे, घर पर नहीं। जब घर पर रहेंगे तो जिज्ञासा के लिए पूछे गये सवाल का जवाब यह है कि मसजिद इसीलिए बनती है कि नमाज घर पर न पढ़कर मसजिद में पढ़ें।
श्री देव ने अपने उसी ट्वीट के थ्रेड में लिखा है- ‘बाक़ी छह दिन की पांच नमाजें तो जहां संभव हो वहां पढ़ी जा सकती हैं। अनिवार्यतः सामूहिक नमाज नहीं होतीं। जुमे की नमाज विशेष है, और हर मुसलमान के लिए ज़रूरी है।”
यह बात स्पष्ट करना सही होगा कि जुमे की नमाज से भी उन लोगों को छूट है जो लंबे सफर में हों या बीमार हों। मूल सवाल यह है कि मुसलमानों को नमाज पढ़ने के लिए खुली जगह क्यों चाहिए? प्रत्यक्ष रूप में यह सवाल तो बहुत ही निर्दोष सा है लेकिन असल में यह आपत्ति है और इसके मूल में घृणा और तिरस्कार है। यह उस संगठित षड्यंत्र का भाग है जो हर बात को जिहाद बताकर घृणा फैलाने के लिए रचा गया है। उनके लिए इसे ‘जमीन जिहाद’ बताना कितना आसान है, यह बात रहुल जी जैसे विद्वान कितनी आसानी से नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
इस सवाल का बिना आपत्ति जवाब देने का मतलब यह मान लेना है कि मुसलमान सिर्फ़ खुली जगह में ही नमाज पढ़ता है, वह भी हर दिन, हर जगह और हर वक़्त। शायद इसीलिए ट्विटर पर मुसलमानों ने इसका जवाब देने से परहेज किया।
पहले यह बात स्पष्ट हो जाए कि साल में दो दिन छोड़कर मुसलमान सिर्फ़ उन जगहों पर खुली जगह में नमाज के लिए इजाजत मांगते हैं जहां कोई विकल्प नहीं होता। ये दो दिन होते हैं ईद और बकरीद के। ईद की नमाज के लिए ईदगाह या कोई खुली जगह इसलिए चुनी
जाती है कि इसमें बड़ी आबादी एक साथ नमाज अदा कर ले। इसके लिए सार्वजनिक मैदानों में नमाज अदा करने पर कभी आपत्ति नहीं की गयी, जैसे रावण वध वगैरा पर नहीं होती।
इस बात का ज़िक्र भी ज़रूरी है कि मुसलमानों को पांच वक़्त की नमाज पढ़नी होती है और एक हफ्ते के सात दिनों की 35 नमाजों में सिर्फ़ एक दिन और एक वक़्त की नमाज समूह बनाकर पढ़ने के लिए वे खुली जगहों के इस्तेमाल के लिए मजबूर होते हैं- वह भी इजाजत के साथ। यह वक़्त होता है शुक्रवार को जुमे की नमाज का। और अभी जिस पर बवाल खड़ा किया जा रहा है वह यही एक वक़्त की नमाज है जो बमुश्किल 30-40 मिनट में पूरी हो जाती है।
यह अफसोस की बात है कि सदियों साथ रहने के बावजूद इतनी बड़ी आबादी को यह बात बताना पड़ता है कि मुसलमानों पर वक्त की पाबंदी के साथ पांच वक्त की नमाज फर्ज है। इन पांच वक्त की नमाजों के वक्त को सूर्योदय से पहले, सूरज ढलने के बाद, तीसरे पहर, सूर्यास्त के फौरन बाद और इसके दो घंटे के बाद के समय में बांटा गया है। इन्हें क्रमशः फज्र, जुहर, अस्र, मगरिब और इशा कहा जाता है।
यह अलग बहस है कि कितने प्रतिशत मुसलमान पांचों वक्त नमाज पढ़ते हैं। मगर जितने पढ़ते हैं उन पर भी आपत्ति का क्या मतलब है?
यह कहा जा सकता है कि आपत्ति खुल में नमाज पढ़ने पर है मगर यह अर्धसत्य है। आपत्ति तो ऑफिस के एक कोने में नमाज पढ़ने पर भी होती है। कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि ऑफिस के टाइम में नमाज क्यों पढ़ें? यह सवाल सही हो सकता है कि अगर नमाज पढ़ने वाला लंच या चाय के लिए मिले वक्त में नमाज न पढ़कर काम के समय में पढ़े।
इसमें दो बातें ध्यान में रखने की हैं। एक तो यह है कि जुमे की नमाज अकेले नहीं पढ़ी जा सकती। बाक़ी वक्तों के लिए भी सामूहिक नमाज ज़रूरी होती है लेकिन मजबूरी में अकेले नमाज पढ़ी जा सकती है।
तो जवाबी सवाल यह है कि मुसलमान जब घर पर न हों और पास में मसजिद न हो तो कहां नमाज पढ़ें? कहने वाले कह सकते हैं कि मुसलमान नमाज कहां पढ़ें, यह उनका सिरदर्द है, वे जानें। मगर जब वे कहीं नमाज पढ़ते हैं तो आपत्ति भी होती है बल्कि हिंसक विरोध होता है।
इस बहस का बेहद अहम पहलू यह है कि आम तौर पर यह शिकायत रहती है कि मुसलमानों को मसजिद बनाने के लिए जमीन नहीं दी जाती। आजकल जहां मुसलमानों के नमाज पढ़ने पर नफरत फैलायी जा रही है वहां दूसरी शिकायत यह है कि उन इलाकों में जो वक्फ की मसजिदें हैं उनपर तालाबंदी कर दी गयी है। ऐसे में अपने घरों से दूर मुसलमान जुमे के वक़्त खुली जगह में नमाज की इजाजत मांगते हैं तो यह स्वाभाविक बात हो सकती है, इस पर किया गया सवाल स्वभाविक नहीं हो सकता।
यह तो था मोटे तौर पर इस आपत्ति का जवाब कि मुसलमान नमाज पढ़ने के लिए खुली जगह क्यों चाहते हैं। मगर इससे गंभीर सवाल यह है कि यह सवाल सिर्फ़ मुसलमानों से पूछने का हक कैसे मिल जाता है? क्या खुली जगह पर अन्य धार्मिक आयोजन नहीं होते? विशेषकर सवाल करने वाले क्या ऐसे आयोजन नहीं करते? पूजा पंडालों के लिए सड़कों को कई-कई दिन तक बंद कर दिया जाता है। तब यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाता? सड़कों और सार्वजनिक स्थलों का अतिक्रमण कर धार्मिक स्थल बना दिये जाते हैं, उनका हटना ज़रूरी होता है लेकिन उसकी सहर्ष अनुमति दी गयी होती है।
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि धर्म एक निजी मामला है तो इसका प्रदर्शन सार्वजनिक रूप से क्यों? सही बात है मगर यह सवाल तो तब सबसे ज़्यादा होना चाहिए जब देश चलाने वाले राजनेता धर्म का सार्वजिनक प्रदर्शन करते हैं।
वास्तव में शुरू से होता यह आया है कि विशेष अवसरों पर धार्मिक आयोजन के लिए सड़कें बंद की जाती हैं और खुली जगह का इस्तेमाल भी उनके लिए होता आया है। यह वास्तव में नफरत की खेती और राजनीति करने वालों के कुत्सित प्रयासों की सफलता है और भारत में सामाजिक सौहार्द के लिए चुनौती है।