प्रेमचंद की छवि धूमिल करने की कोशिश?
जासूसी पत्रकारिता की तर्ज पर प्रेमचंद का एक निजी पत्र उन्हें स्त्री विरोधी सिद्ध करने के किए जारी किया गया है। पत्र को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए यह सूचना भी दी गई है कि यह पत्र अमृत राय द्वारा संपादित 'चिट्ठी पत्री ' संकलन में शामिल है। लेकिन तथ्य यह है कि अमृत राय द्वारा संपादित 'चिट्ठी पत्री' के दो खण्डों में से यह किसी में शामिल नहीं है। पत्र जारीकर्ता को इस तथ्य का खुलासा करना चाहिए की 'चिट्ठी पत्री' के किस खंड के किस पृष्ठ पर यह पत्र उपलब्ध है?दरअसल, इस पत्र का उद्गम ही संदिग्ध इसलिए है कि जारी करने के पहले इसके स्रोत की पुष्टि नहीं की गई है। सच यह है कि इस पत्र के स्रोत का उद्घाटन होते ही इस पत्र की चर्चा के उद्देश्य का खुलासा हो जाएगा। यह पत्र व्यक्तिगत है, इसलिए अमृत राय के संकलन में यह नहीं है। पत्र पर बाक़ी चर्चा तब तक के लिए स्थगित रखता हूँ, जब तक पत्र जारीकर्ता द्वारा स्वयं इसका खुलासा न कर दिया जाए।
फिलहाल मै यहां अमृत राय द्वारा संपादित 'विविध प्रसंग' खंड तीन' से प्रेमचंद की निम्न टिप्पणी उद्धृत कर रहा हूं, जिससे प्रेमचंद के स्त्री शिक्षा के बारे में विचार उद्घाटित होते हैं।इस टिप्पणी का शीर्षक 'एक दुखी बाप' है। किन्हीं सज्जन ने, जो अपनी बेटी की शादी को लेकर मुसीबत झेल रहे थे, प्रेमचंद को अपनी समस्या बताई और उनसे सलाह मांगी। प्रेमचंद ने उन सज्जन को जो सलाह दी वह निम्नवत है:
"हमें तो इसका एक ही इलाज नज़र आता है और वह यह है कि लड़कियों को अच्छी शिक्षा दी जाय और उन्हें संसार में अपना रास्ता आप बनाने के लिए छोड़ दिया जाय, उसी तरह जैसे हम अपने लड़कों को छोड़ देते हैं। उनको विवाहित देखने का मोह हमें छोड़ देना चाहिए और जैसे हम अपने लड़कों को छोड़ देते हैं और जैसे युवकों के विषय में हम उनके पथ भ्रष्ट हो जाने की परवाह नहीं करते, उसी प्रकार हमें लड़कियों पर भी विश्वास करना चाहिए। तब यदि वह गृहिणी जीवन बसर करना चाहेगी, तो अपनी इच्छानुसार अपना विवाह कर लेंगी, अन्यथा अविवाहित रहेंगी। और सच पूछो तो यही मुनासिब भी है। हमें कोई अधिकार नहीं है, कि लड़कियों की इच्छा के विरुद्ध केवल रूढ़ियों के गुलाम बनकर, केवल इस भय से कि खानदान की नाक न कट जावे, लड़कियों को किसी न किसी के गले मढ़ दे। हमें विश्वास रखना चाहिए, कि लड़के अपनी रक्षा कर सकते हैं, तो लड़कियाँ भी अपनी रक्षा कर लेंगी।" -- ( अप्रैल 1933, विविध प्रसंग, खंड तीन, पृष्ठ 260)
प्रेमचंद के अंतर्विरोधों पर बात होनी चाहिए, लेकिन निंदा - अभियान के रूप में नहीं। प्रेमचंद के उस अपुष्ट पत्र पर बात की जा सकती है तो इस सत्यापित टिप्पणी पर क्यों नहीं। यह अनायास नहीं है कि जहां यह बहस शुरू की गई है, वहीं प्रेमचंद के हिन्दू मन में सेंध लगाने वाले का भी उल्लेख विजय के अनंत उत्साह के साथ किया गया है। मन्तव्य साफ समझा जा सकता है।
(वीरेंद्र यादव की फ़ेसबुक वाल से साभार)