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मुलायम सिंह: पिता पहलवान बनाना चाहते थे...

मुलायम सिंह: पिता पहलवान बनाना चाहते थे...

समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव का आज जन्मदिन है। पढ़िए छात्र राजनीति से राजनीति की शुरुआत करने वाले मुलायम सिंह का कैसा रहा है राजनीतिक जीवन...

"मुलायम सिंह को उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और बीजेपी से ही नहीं बल्कि मीडिया के पक्षपाती रवैया और बीएसपी-बीजेपी गठजोड़ से भी टक्कर लेनी पड़ी है। बाबरी मसजिद ध्वंस के बाद पिछड़ा-मुसलमान एकता से दलितों को जोड़ने के मक़सद से मुलायम ने बसपा को साथ लेने का जोखिम उठाया था। उन्होंने कई बार झुकते हुए और राजनीतिक नुक़सान के बावजूद इस गठजोड़ को कायम रखने की कोशिश की। बीजेपी ने इसका लाभ उठाया और दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से बसपा को अपने साथ मिला लिया। इससे सबक सीखकर मुलायम ने नए फ़ॉर्मूले की तलाश की और अंततः उसे हासिल कर लिया।"

प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री रजनी कोठारी ने 1993 में एक किताब की भूमिका में मुलायम सिंह के बारे में यह टिप्पणी लिखी थी। लगता है कि यूपी में आज इतिहास ख़ुद को दोहराने जा रहा है। 81 बरस पूरे कर चुके मुलायम सिंह यादव शरीर से अस्वस्थ ज़रूर हैं लेकिन मानसिक रूप से वे आज भी चुस्त हैं।

उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े इलाक़े इटावा के छोटे से गाँव सैफई के एक साधारण किसान परिवार में 22 नवंबर 1939 को जन्मे मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक सफर बेहद विस्मयकारी है। देश के सबसे बड़े सूबे यूपी के तीन बार मुख्यमंत्री और एक बार भारत सरकार में रक्षा मंत्री रहे मुलायम सिंह यादव की ज़िंदगी संघर्ष और रचनाशीलता का संगम रही है। पिता सुघर सिंह यादव की ख्वाहिश मुलायम सिंह को पहलवान बनाने की थी। मुलायम सिंह ने कम उम्र में ही अखाड़े में धाक जमा ली। लेकिन उनके लिए तो असली अखाड़ा भारत की राजनीति बनने वाली थी। 1954 में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने सिंचाई की मूल्यवृद्धि के ख़िलाफ़ 'नहर रेट आंदोलन' चलाया। इस आंदोलन में मुलायम सिंह शामिल हुए और पहली बार जेल गए। तब वह केवल 15 साल के थे।

1960 में इंटर पास करने के बाद मुलायम सिंह ने इटावा के के के कॉलेज में दाखिला लिया। यहाँ वह छात्र राजनीति से जुड़े और छात्रसंघ अध्यक्ष चुने गए। यहाँ उन्होंने छात्रों की फीस वृद्धि के विरोध में आंदोलन किया। 

मुलायम सिंह की नेतृत्व क्षमता देखते हुए यहाँ के छात्र मुलायम सिंह यादव को एमएलए कहने लगे थे। पढ़ाई पूरी करने के बाद वह जैन इंटर कॉलेज करबल में अध्यापक हो गए। यहाँ भी उनका राजनीतिक आंदोलन जारी रहा।

मुलायम की राजनीति क्या आसान

मुलायम सिंह के लिए राजनीति में आना आसान नहीं था। राजनीतिक विश्लेषक आरपी त्रिपाठी के शब्दों में, ‘गरीब घरों और कमज़ोर तबक़े में पैदा हुए लड़कों का राजनीति में पहुँच जाना इतना आसान नहीं हुआ करता जितना मीडिया की टिप्पणियों से लगता है। इसके पीछे संयोग, दुर्योग, हालात की साज़िश, कुछ-कुछ क़िस्मत का खेल और सबसे ऊपर उस विशेष युग की मजबूरियाँ और ज़रूरतें हुआ करती है जिनमें वह व्यक्ति जन्म लेता है।’ मुलायम सिंह के बारे में कहा जा सकता है कि उनकी संवेदनशील सोच और उस समय के हालातों ने उन्हें राजनीति करने के लिए मजबूर किया। जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस की नीतियों के आलोचक डॉ. राम मनोहर लोहिया ने ब्राह्मणबहुल राजनीति के बरक्स पिछड़े समाज के नौजवानों को आगे बढ़ाने की रणनीति अपनाई।

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29 जून 1964 को प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी का विलय हो गया। इस नवगठित संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से मुलायम सिंह यादव जुड़ गए। 1967 में उन्होंने जसवंत नगर से विधानसभा चुनाव लड़ा। अपने पहले ही चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के मज़बूत उम्मीदवार लाखन सिंह यादव को क़रारी शिकस्त दी। लाखन सिंह यादव अपनी ज़मानत भी नहीं बचा सके। 1968 में लोहिया की मौत के बाद मुलायम सिंह किसान नेता चरण सिंह के साथ आ गए। 1974 में उन्होंने चरण सिंह के भारतीय कृषक दल (बीकेडी) से चुनाव जीता। इसी साल चरण सिंह ने बीकेडी से भारतीय लोक दल बनाया। 1970 में उन्होंने इसका नाम बदलकर लोकदल कर दिया। मुलायम सिंह लगातार चरण सिंह के साथ रहे।

1987 में चरण सिंह की मौत के बाद लोक दल दो धड़ों में विभाजित हो गया। एक धड़ा चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह के साथ था और दूसरा मुलायम सिंह के साथ। 1989 में मुलायम सिंह ने वीपी सिंह के जनता दल के साथ नाता जोड़ लिया। 1990 में जनता दल विभाजित हो गया। मुलायम सिंह चंद्रशेखर के नेतृत्व वाले समाजवादी जनता पार्टी के साथ चले गए। इसके बाद सितंबर 1992 में उन्होंने समाजवादी पार्टी नाम से अपना राजनीतिक दल बनाया।

1989 में मुलायम सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने। यह मंडल और कमंडल की राजनीति का दौर था। वीपी सिंह द्वारा लागू किए गए पिछड़ों के आरक्षण के पीछे मुलायम सिंह, शरद यादव, लालू यादव जैसे नेताओं की बड़ी भूमिका थी। इसके बरक्स बीजेपी ने राम मंदिर का आंदोलन खड़ा किया। बाबरी मसजिद तोड़ने जा रहे कारसेवकों को मुलायम सिंह ने बलपूर्वक रोक दिया। मुलायम सिंह इसके ख़तरे भी जानते थे। बीजेपी ने उन्हें मुसलिमपरस्त घोषित करते हुए मुल्ला मुलायम तक कह डाला।

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बीजेपी शासन में 6 दिसंबर 1992 को बीजेपी और संघ के इशारे पर एक उग्र और सांप्रदायिक भीड़ ने बाबरी मसजिद को जमींदोज कर दिया। इसके बाद मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इस्तीफ़ा दे दिया। भाजपाइयों को उम्मीद थी कि हिंदुत्व की लहर में पार्टी चुनाव जीतेगी। लेकिन मुलायम सिंह और कांशीराम की नज़दीकी ने बीजेपी के सपने को चकनाचूर कर दिया। उसी समय यह नारा उछाला था, 'मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम'। 

दरअसल, मुलायम सिंह बीजेपी की सांप्रदायिक और सवर्णसमस्त आक्रामक राजनीति के बरक्स दलित, पिछड़ा और मुसलिम को एक साथ लाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने बीएसपी के साथ गठबंधन किया। लेकिन यह गठबंधन 1995 में गेस्ट हाउस कांड के बाद टूट गया।

अब मुलायम सिंह केन्द्र की राजनीति में सक्रिय हो गए। 1996 में संयुक्त मोर्चा सरकार में वह रक्षामंत्री बने। बतौर रक्षामंत्री उन्होंने सेना के आधुनिकीकरण और सैनिकों के कल्याण के लिए काम किये।

2012 में मुलायम सिंह के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला। उन्होंने अपने नौजवान बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाया।

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