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विदेशी चंदा: ‘देशभक्ति’ वही जो बीजेपी करवाए?

विदेशी चंदा: ‘देशभक्ति’ वही जो बीजेपी करवाए?

मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी का विदेशी चंद क्यों बंद किया गया और आख़िर क्यों विदेशी चंदे के लिए आवश्यक विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम के तहत नवीकरण नहीं किया गया?

मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी (एमओसी) का विदेशी चंदा बंद करने से संबंधित सरकारी उपायों का फॉलोअप मीडिया में वैसे नहीं हुआ जैसे होना चाहिए था। भारत सरकार जनता की सेवा जनता के पैसे से करती है और उसके लिये वेतन लेती है जबकि एमओसी जैसे एनजीओ अगर विदेशी चंदे से भारत की जनता की सेवा करें तो वह लगभग निशुल्क है। निश्चित रूप से इसे प्राथमिकता मिलनी चाहिए पर बीजेपी सरकार विदेशी चंदा प्राप्त करने में रोड़ा अटकाती रही है। और तो और विदेशों से धन प्राप्त करने के नियम भी मुश्किल कर दिए गए हैं।

मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी (एमओसी) का मामला सामने आया तो सरकार ने बचाव में कह दिया कि कुछ प्रतिकूल इनपुट्स देखे गए थे। मुद्दा यह है कि प्रतिकूल इनपुट्स पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई और इस पर फ़ैसला करने की बजाय विदेशी चंदे के लिए आवश्यक विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम (एफ़सीआरए) के तहत नवीकरण नहीं हुआ है और मंजूरी नहीं दी गई है। चूंकि 'प्रतिकूल इनपुट्स' के बारे में बताया नहीं गया इसलिए एक अटकल यह भी हो सकती थी कि उसपर धर्मांतरण या ऐसा ही कुछ दूसरा आरोप होगा।

मेरा मानना है कि अगर ऐसा होता और इसमें दम होता तो बीजेपी यह प्रचारित करती और बता सकती थी कि इस तरह का मामला है और इसलिए यह प्रतिबंध लगाया गया है या फलानी कार्रवाई की गई है। पर ऐसा नहीं हुआ और ममता बनर्जी ने इसका खुलासा किया तो सरकार को बचाव में आना पड़ा। यह अलग बात है कि प्रचारकों के दम पर उसे कोई नुक़सान नहीं हुआ पर इस मामले में जो मुख्य मुद्दा है वह रह गया। दूसरी ओर, एमओसी को बदनाम करने की कोशिश हुई और ऐसी कोशिशों के ज़रिए देश में आने वाले विदेशी धन को रोका जा रहा है जो सरकार के विरूद्ध लोकतान्त्रिक ढंग से काम आ सकता है या काम करने वालों को रोजी रोटी हो सकता है। सरकार दरअसल इसकी आड़ में अपने विरोधियों का दानापानी बंद करना चाहती है।

विदेशी पैसों से देश का नुक़सान रोकना होता तो बीजेपी को चाहिए था कि 1990 के दशक के जैन हवाला घोटाले की जांच कराती जिसमें सभी दल के लोगों को नकद बांटने का आरोप था और जिसकी जांच ही नहीं हुई। कहने की ज़रूरत नहीं है कि अवैध धन पाने वालों में बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी का नाम तो था ही, दो ऐसे लोगों का भी नाम था जो बीजेपी राज में गवर्नर बने बैठे हैं और जगदीप धनखड़ ने दावा किया कि वे बरी हो गए थे जबकि सच यह है कि भरी अदालत में सुप्रीम कोर्ट के जज ने कहा था कि उन पर भारी दबाव है फिर भी ना मामले की जाँच हुई ना दबाव डालने वाले का नाम उजागर हुआ। 

ऐसी हालत में जब यह सर्वविदित है कि पैसे आते और बंटते हैं तो एनजीओ पर रोक लगाने से बात नहीं बनेगी। वह सिर्फ़ बहाना है। मीडिया का काम है कि जनता को सरकार की नीयत से वाकिफ करवाए। लेकिन आमतौर पर मीडिया सरकारी लाइन ही लेता है।

29 दिसंबर 2021 को “द हिन्दू” में एक ख़बर है। इसके अनुसार न सिर्फ़  मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी बल्कि हजारों गैर सरकारी संगठन और लोकोपकारी ट्रस्ट सरकार के निर्णय के इंतज़ार में हैं। इन्हें विदेश से चंदा प्राप्त करने के लिए विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम (एफ़सीआरए) के तहत अनुमति लेनी होती है। और केंद्र सरकार ने बहुतों के मामले में निर्णय लंबित रखा हुआ है। ख़बर के अनुसार 22,000 से ज़्यादा एनजीओ इस अधिनियम के तहत पंजीकृत हैं और सरकार ने जो सख़्त रुख अपना रखा है, उससे कम से कम 10-15 प्रतिशत को अनुमति नहीं मिलने की आशंका है। ये विदेश से धन प्राप्त नहीं कर पाएँगे। 

सरकार की नज़र में यह भले देश सेवा हो पर क्या विदेश से धन प्राप्त करके यहां की जनता की सेवा को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।

अगर धन का दुरुपयोग ही हो और व्यक्ति उसका निजी उपयोग कर ले तो भी सरकार को एतराज़ नहीं होना चाहिए और यह चिन्ता धन देने वाले की होनी चाहिए पर सरकार जानती है कि ऐसे लोग उसका विरोध कर सकते हैं इसलिए वह इन पर सख़्ती कर रही है।

इस नाते देश में लोकोपकार पर ही संकट है। आप जानते हैं कि कारपोरेट सोशल रेसपांसिबिलिटी (सीएसआर) के तहत किए जाने वाले ज़रूरी खर्चे पीएम केयर्स में दिए और लिए जा सकते हैं। ट्रस्ट चलाने के नियम इतने सख्त कर दिए गए हैं कि टाटा समूह से 20,000 करोड़ रुपए की टैक्स मांगी गई और छह टाटा ट्रस्ट 2015 में अपना पंजीकरण सरेंडर करने के लिए मजबूर हुए। यह अलग बात है कि वर्षों बाद टाटा को इस मामले में राहत मिली। दूसरी ओर टाटा समूह ने सरकार को चंदा दिया ही है। मतलब यह हुआ कि टाटा समूह लोकोपकार के लिए ट्रस्ट नहीं चला पाये तो नहीं चलाए सरकार पीएम केयर्स चला रही है और इस तथ्य के बावजूद चला रही है कि वह तमाम सरकारी संस्थान को बेच रही है क्योंकि सरकार का काम नहीं है कंपनी चलाना। अगर सरकार का काम कंपनी चलाना नहीं है तो पीएम केयर्स क्यों चलाना चाहिए और एनजीओ क्यों बंद होने चाहिए?

 - Satya Hindi

सरकार की ऐसी नीतियों के कारण देश भर में 22,000 एनजीओ प्रभावित हैं। वहाँ क्या हालत होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। यह स्थिति तब है जब देश में रोज़ग़ार नहीं है, महामारी फैली हुई है और लोगों के पास इलाज व दवाई तो छोड़िए खाने के पैसे नहीं हैं। ऐसे में विदेश से आने वाले पैसे रोकना, कैसी देश भक्ति हुई। कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं हो सकता है। अगर उसे काम करना है तो क़ानून व्यवस्था की स्थिति पर काम होना चाहिये। समाज में शांति और भाई चारा फैलाने के लिए काम किया जाना चाहिये। महंगाई रोकने और रुपये को गिरने से रोकने और लोगों को रोज़गार और क़ारोबार के लिए सहायता देने जैसे काम करना चाहिए पर सरकार लगी हुई है कि कैसे विदेशी चंदा रोका जाए।

कहने की ज़रूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री खुद श्मशान कब्रिस्तान करते हैं, कह चुके हैं कि आग लगाने वालों की पहचान कपड़ों से की जा सकती है, और खुद कपड़े बदलते रहते हैं। ट्विटर पर टूलकिट फॉर्वर्ड करने से गिरफ्तारी हो सकती है पर दिल्ली में खुले आम भरी सभा में संविधान विरोधी हरकत करने और उसका वीडियो वायरल होने पर कार्रवाई नहीं होती है और इसी का असर हुआ कि हरिद्वार में खुलेआम नरसंहार की बात की गई। उसका भी वीडियो है पर कार्रवाई कई दिन बीतने पर भी नहीं हुई है।

बेशक प्रधानमंत्री ने जो सपने दिखाए थे वो झूठे थे और अब साफ़ हो चुका है कि प्रधानसेवक बनाने के लिए कहने वाले नरेन्द्र मोदी असल में राजा बनना चाहते हैं। यह अलग बात है कि जिस हिन्दुत्व के दम पर सत्ता में आए हैं उसमें राजा हर कोई नहीं बनता है। अब प्रधानमंत्री के नेतृत्व में उनकी सरकार कुर्सी बचाने वाली राजनीति कर रही है और उसमें गृहराज्य मंत्री पर आरोपों के बावजूद उन्हें पद से नहीं हटाना और विदेशी धन पाने वालों को रोकना, कमजोर करना शामिल है। इसे देशभक्ति का रंग दिया जा रहा है, सो अलग।

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